रविवार, 28 अगस्त 2016

उत्तराखंड। 16 साल, 16 सवाल

उत्तराखंड को राज्य बने 16 साल हो गए हैं। अलग राज्या बनाने के लिए लोगों ने संघर्ष किया। कईयों ने जान की बाजी लगा दी। मगर क्या अलग राज्य बनने से हर उत्तराखंडी का सपना पूरा हुआ। क्या नए राज्य की यही कल्पना लोगों ने की थी। आज कुछ जरूरी सवाल उत्तराखंड से जुड़े मुददों पर। शिक्षा और स्वास्थ जैसे ज्वलंत सवात तो हैं ही इसके अलावा भी कई महत्वपूर्ण पहलू हैं।

1----पलायन - गांवों  से पलायन लगातार जारी है, हर साल आने वाली आपदा के बाद पलायन की दर बढ़ी है।, सुरक्षा की दृष्टि से भी यह अहम मुद्दा है चूंकि उत्तराखंड की सीमा नेपाल और चीन , सैकेंड डिफेंस लाइन मानी जाती है सीमावर्ती गांव की आबादी ।

2----रोज़गार - बहुगुणा सरकार ने बेरोज़गारों के लिए भत्ता देने की योजना चलाई थी....लेकिन रावत सरकार ने बेरोज़गारी भत्ता देना बंद कर किया....हर साल 1 लाख नौकरी देने का वादा किया गया था, लेकिन रोजगार पंजीकरण कार्यालय में रजिस्ट्रेशन करने वाले युवाओं की संख्या तो बढ़ गई मगर रोजगार का वादा भी हवा हवाई निकला। 

3----उद्योग - एनडी तिवारी सरकार में जिस सिडकुल की स्थापना हुई थी, रावत सरकार सिडकुल की संख्या बढ़ाने में नाकाम रही, पहाड़ में स्वरोज़गार के माध्यम बढ़ाने का दावा भी हवाई निकला, कोल्ड स्टोरेज के आभाव में पहाड़ों में फल सड़ रहे हैं। जिन फलों को अंतराष्ट्रीय बाजार की शोभी होना चाहिए था वो पेड़ों में सड़ रहे हैं।

4----आपदा - आपदा को लेकर सरकार हर मोर्चे पर नाकाम रही। उत्तराखंड में  दैवीय आपदाऐं बढ़ती जा रही हैं। 2013 में केदारनाथ की भयंकर त्रासदी को भला कौन भूल सकता है।
आपदा की मार से परेशान लोग आज भी मुआवजे को इंतजार में है। खबर तो यहां तक आई की इसकी आड़ में धर्मपरिवर्तन जैसे गैराकानूनी कामों को अंजाम दिया जा रहा है। भारी बारिश की सूचना देने वाले डॉपलर रडार लगाए जाने थे जो आज  तक नहीं लगाए गए।  2013 की आपदा के बाद केंद्र ने 2 डॉपलर रडार दिए थे जिने नैनीताल और मसूरी में लगाया जाना था। लेकिन जगह चिन्हित नहीं होने से ये रडार हिमाचल और जम्मू कश्मीर में लगाए गए। 

5---विस्थापन - दैवीय आपदा और भूकंप की दृष्टि से चमोली, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी ज़िले के 350 से ज़्यादा गांव का विस्थापन किया जाना है। यहां कभी भी कोई बड़ी आपदा कोई बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है। एनडी तिवारी सरकार में इन गांव चिन्हीकरण हुआ था , लेकिन अब तक एक भी गांव का पुनर्वास नहीं हुआ, बल्कि अब विस्थापित होने वाले गांव की संख्या 50 और बढ़ गई है। इससे ज्यादा खतरनाक स्थिति यह है कि एक रिपोर्ट में ये दावा किया गया है कि उत्तराखंड में नेपाल से ज्यादा खतरनाक भूकंप आने की संभावना है। 

6----शराब नीति - आबकारी नीति को लेकर हर सरकार विपक्ष के निशाने पर होती है, पारदर्शी नीति नहीं बनाने का आरोप सरकारों पर हमेश लगते आएें है। उत्तराखंड में बिकने वाली डेनिस शराब को लेकर सीएम रावत पर गंभीर आरोप लगे हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि हर बोतल में हिस्सा फिक्स है। विपक्ष डेनिस ब्रांड की शराब को सीएम के बेटे की फैक्ट्री मेड बताता है। यहां यह बात गौर करने की है कि पहाड़ को शराब ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।

7----खनन नीति - 16 साल बाद भी खनन नीति पर सरकार एक राय नहीं बना पाई है, खनन नीति को लेकर सरकार पर सवाल खड़े होते आए हैं, हर साल सरकार को अवैध खनन के चलते हज़ारों करोड़ के राजस्व का लगता है चूना, हरीश रावत ने हाल ही में नव प्रभात की अध्यक्षता में मंत्रियों की एक कमिटी बनाई है, जो खनन नहीं, बल्कि चुगान नीति बनाएगी।

8-----ऊर्जा नीति - उत्तराखंड में ऊर्जा की अपार संभावना होने के बावजूद ऊर्जा उत्पादन के मामले में उत्तराखंड बहुत पीछे है, जो बांध बनाए भी गए हैं, उन पर सवाल उठते आए हैं, पर्यावरण विद् इन बांध को लगातार आ रही आपदा के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं, सरकार इस पर भी स्पष्ट नीति नहीं बना पाई है।

9---पर्यटन नीति - उत्तराखंड में ऊर्जा के बाद पर्यटन ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है, जो उत्तराखंड की आर्थिकी का मुख्य आधार है, पर्यटन व्यवसाय से सूबे के लाखों लोग परोक्ष और अपरोक्ष रुप से जुड़े हुए हैं, लेकिन सरकार अभी तक तीर्थाटन और पर्यटन में अंतर नहीं कर पाई है, जो पुराने पर्यटक केंद्र हैं, वहां रखरखाव का अभाव है, जबकि तीर्थाटन को ही सरकार पर्यटन के रुप में बढ़ावा देने में जुटी है,  मॉनसून के दौरान सड़कें बंद होने के चलते यात्रा चौपट हो जाती है ।

10---चारधाम यात्रा - रावत सरकार ने 12 महीने चारधाम यात्रा चलाने का ऐलान तो किया, लेकिन चारधाम यात्रा ही सुचारु रुप से चलाना सरकार के लिए टेढी खीर है, उत्तराखंड में तीर्थाटन की दृष्टि से कई धार्मिक स्थल है, जिनका सरकार प्रचार प्रसार तक नहीं कर पाई है, इसके अलावा हिमालय दर्शन और कुमाऊं दर्शन की योजना भी टांय-टांय फिस्स हो गई ।

11---स्वास्थ्य सुविधा - उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाएं पटरी से उतरी हुई हैं, डॉक्टर पहाड़ चढ़ने को तैयार नहीं हैं, तो मैदान के हॉस्पिटल में भी डॉक्टरों का टोटा है, दवाइयां और दूसरी सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हैं, कुमाऊं के सबसे बड़े हॉस्पिटल सुशीला तिवारी में आए दिन लापरवाही के चलते मरीज़ों की मौत हो रही है, जिसको लेकर नैनीताल हाईकोर्ट ने सरकार से जवाब भी मांगा है। 

12---ट्रांसफर नीति - उत्तराखंड में तबादला नीति हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रही है, खंड़ूडी सरकार में बनाई गई ट्रांसफर नीति को अब तक सबसे अच्छा बताया गया है, लेकिन कांग्रेस सरकार ने ट्रांसफर नीति को बदल दिया, ट्रांसफर नीति का सबसे बड़ा असर शिक्षा महकमे में होता है ।

13----ज़मीन नीति - उत्तराखंड बनने के बाद से भूमाफिया लगातार बढ़ते जा रहे हैं, मैदानी इलाकों में लैंड से जुड़े हुए आपराधिक मुकदमों का ग्राफ़ बढ़ता जा रहा है, बेनामी संपतियों के खुर्दबुर्द होने का सिलसिला जारी है, खंडूडी ने बाहरी लोगों के लिए जमीन खरीद नीति बनाई थी, जिसके बाद भूमाफिया पर काफी हद तक लगाम लगी थी, लेकिन कांग्रेस सरकार में उस नीति को बदल दिया गया ।

14----स्मार्ट सिटी - देहरादून को स्मार्ट सिटी का दर्जा दिलाने में सरकार नाकाम रही, सरकार अभी तक ये भी तय नहीं कर पा रही है कि स्मार्ट सिटी के लिए कितने एकड़ ज़मीन की ज़रुरत पड़ेगी, पहले सरकार ने देहरादून विकासनगर के चाय बागान में स्मार्ट सिटी बनाने का फैसला लियख, और हज़ारों एकड़ भूमि में स्मार्ट सिटी बनाने का प्रपोजल रखा, लेकिन लोगों के विरोध के बाद सरकार ने उस फैसले को वापस ले लिया और बाद में स्मार्ट सिटी को 300 एकड़ भूमि पर ही बनाने की बात कही गई।

15----स्थायी राजधानी - 16 साल बाद भी कोई सरकार स्थायी राजधानी को लेकर अपना रुख साफ नहीं कर पाई है, गैरसैंण को लेकर पहाड़ के लोगों को गुमराह किया जा रहा है, जबकि देहरादून के रायपुर में केंद्र से मिले 100 करोड़ रुपये की मदद से नए विधानसभा भवन का निर्माण कराया जा रहा है।

16----परिसंपत्ति बंटवारा - 16 साल बाद भी उत्तराखंड और यूपी के बीच परिसंपत्तियों का बटवारा नहीं हो पाया है, आज भी उत्तराखंड की कई अहम संपत्तियों पर यूपी का कब्जा है, टिहरी डैम से उत्पादित होने वाली बिजली पर राज्य सरकार 25 फीसदी हिस्सेदारी चाहती है, लेकिन यूपी का स्टेग होने के चलते उत्तराखंड के हिस्से महज 12 फीसदी बिजली ही आ पाती है।

 सबसे बड़ सवाल है परिसीमन से बढ़ती परेशानी - जनसंख्या के आधार पर होने वाले परिसीमन से मैदानी इलाकों में विधानसभा सीटों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिससे मैदान और पहाड़ में खाई लगातार बढ़ती जा रही है, पहाड़ पहले से ही विकास से कोसो दूर हैं, अब मैदान में सीटों की संख्या बढ़ने के बाद सभी सियासी दलों का रुझान मैदानी सीटों को लेकर ही होता है, यही स्थिति रही तो 2050 तक मैदान में 70 में से 50 सीटे होंगी, जबकि पहाड़ में महज 20 सीटें रह जाएंगी, ऐसे में एक और आंदोलन होने की ज़मीन तैयार हो रही है।

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