शनिवार, 5 नवंबर 2016

समाजवाद पर हावी परिवारवाद

हाथ मिलते ही दिल भी मिल जाते तो बात ही क्या थी...लेकिन ना ऐसा होता है और ना ऐसा हुआ...समाजवादी एकता का नारा बुलंद करने के लिए शिवपाल ने मजमा तो लगा लिया...लेकिन भीड़ का शोर अखिलेश-अखिलेश करने लगा तो मुलायम भी हैरान रह गए और शिवपाल भी। मंच से अखिलेश की शान में कसीदे पढ़ना अखिलेश समर्थक जावेद आब्दी को थोड़ा महंगा पड़ा। उन्हें धक्के देकर हटाया गया। कहा जा रहा है कि आब्दी बिना इजाजत मंच पर बोलने चले आए थे...लेकिन यही तो अखिलेश बढ़ते कद का दर्द है जो रह-रह कर शिवपाल की जुबां पर आ जाता है। कभी नसीहत की शक्ल में और कभी शिकवों के तौर पर टीस इतनी ही भर नहीं है। दर्द कहीं गहरा है। ये जंग तो वर्चस्व की है, जिसे शिवपाल हर हाल में बचाए रखना चाहते हैं...लेकिन अखिलेश के युवा साथी इस वर्तमान को भविष्य बनाने पर तुले हैं इसलिए शिवपाल खफा हैं, और ये बार-बार नजर भी आता है शिवपाल अखिलेश के लिए खून भी देंगे...लेकिन मांगने पर...शिवपाल अखिलेश के लिए कुर्सी भी छोड़ देंगे लेकिन कहने पर...बस यही कहने और मांगने का वो खेल है जिसके टकराव के चलते समाजवादी कुनबा बिखर रहा है..नहीं तो नेताजी की पार्टी में उनके सामने ही शिवपाल इशारों में ही सही लेकिन अखिलेश को विरासत और किस्मत का ताना तो ना मारते। मुलायम माने या ना मानें...कहे या ना कहें लेकिन घर का घमासान थामे नहीं थम रहा...युवा जोश...अखिलेश के होश की वजह है...तो शिवपाल के लिए चुभता तीर...लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या धरतीपुत्र चाचा-भतीजे के इस पावर गेम में सीज़फायर करा पाएंगे

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

राहुल की खाट लुट गई


कोई सिर पर ले उड़ा...
कोई कांधे पर ले भागा..
और सफर शायद लंबा था इसलिए कई तो ट्रैक्टर पर लाद कर ले गए। खाट की ऐसी ठाठ थी...कि लुट कर भी अपने खास होने का उसने देश को अहसास करा दिया। प्रतीकों की राजनीति करना भारतीय नेताओं की आदत है, इसलिए कुछ दिनों पहले तक चायवाले ख़ास थे और अब खाट वाले इतरा रहे हैं..वक्त बदला है पहले चाय पर चर्चा होती थी...अब खाट का बोलबाला है..अब तक लोगों का बोझ-उठाए फिर रही खाट को ये पहली बार पता चला कि उसका रूतबा भी कम सियासी नहीं...खाट की अहमियत कांग्रेस समझ गई लेकिन ये बेचारे तो लाचार हैं वो तो अब भी यही जानते हैं...खाट वोट की नहीं उनकी ज़रूरत की चीज़ है..इसलिए जिसे खाट मिली वो उसे ले उड़ा। कैमरे की नज़रों में लुटते खाट की तस्वीरों ने ज्यादा सुर्खियां बटोरी..लेकिन यहां चर्चा तो सियासी है..खाट पर बैठकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पहले लखनऊ और फिर दिल्ली तक का सफ़र करने निकले हैं..

राहुल गांधी  के लिए सवाल कांग्रेस सिमटती ज़मीन का है...शीला दीक्षित को चेहरा बनाने का दांव कारगर होता नहीं दिख रहा...इसलिए उन्हें इस खाट से ज्यादा आस है...ये अलग बात कि सियासी विरोधियों को इस खाट में भी खोट नज़र आ रहा है। खाट खड़ी करना कहावत पुरानी है लेकिन अहमियत कम नहीं...विपक्षी राहुल गांधी का जमकर मखौल उड़ा रहे है। सपा बसपा और बीजेपी पहले ही उन्हे मिशन यूपी की दौड़ से बाहर मान रही है। मगर राहुल के रणनीतिकारों का क्या करें वो तो सोझ रहे होंगे राहुल से तो चमत्कार की उम्मीद नही क्या जाने ये खाट ही चमत्कार कर जाए?

रविवार, 28 अगस्त 2016

उत्तराखंड। 16 साल, 16 सवाल

उत्तराखंड को राज्य बने 16 साल हो गए हैं। अलग राज्या बनाने के लिए लोगों ने संघर्ष किया। कईयों ने जान की बाजी लगा दी। मगर क्या अलग राज्य बनने से हर उत्तराखंडी का सपना पूरा हुआ। क्या नए राज्य की यही कल्पना लोगों ने की थी। आज कुछ जरूरी सवाल उत्तराखंड से जुड़े मुददों पर। शिक्षा और स्वास्थ जैसे ज्वलंत सवात तो हैं ही इसके अलावा भी कई महत्वपूर्ण पहलू हैं।

1----पलायन - गांवों  से पलायन लगातार जारी है, हर साल आने वाली आपदा के बाद पलायन की दर बढ़ी है।, सुरक्षा की दृष्टि से भी यह अहम मुद्दा है चूंकि उत्तराखंड की सीमा नेपाल और चीन , सैकेंड डिफेंस लाइन मानी जाती है सीमावर्ती गांव की आबादी ।

2----रोज़गार - बहुगुणा सरकार ने बेरोज़गारों के लिए भत्ता देने की योजना चलाई थी....लेकिन रावत सरकार ने बेरोज़गारी भत्ता देना बंद कर किया....हर साल 1 लाख नौकरी देने का वादा किया गया था, लेकिन रोजगार पंजीकरण कार्यालय में रजिस्ट्रेशन करने वाले युवाओं की संख्या तो बढ़ गई मगर रोजगार का वादा भी हवा हवाई निकला। 

3----उद्योग - एनडी तिवारी सरकार में जिस सिडकुल की स्थापना हुई थी, रावत सरकार सिडकुल की संख्या बढ़ाने में नाकाम रही, पहाड़ में स्वरोज़गार के माध्यम बढ़ाने का दावा भी हवाई निकला, कोल्ड स्टोरेज के आभाव में पहाड़ों में फल सड़ रहे हैं। जिन फलों को अंतराष्ट्रीय बाजार की शोभी होना चाहिए था वो पेड़ों में सड़ रहे हैं।

4----आपदा - आपदा को लेकर सरकार हर मोर्चे पर नाकाम रही। उत्तराखंड में  दैवीय आपदाऐं बढ़ती जा रही हैं। 2013 में केदारनाथ की भयंकर त्रासदी को भला कौन भूल सकता है।
आपदा की मार से परेशान लोग आज भी मुआवजे को इंतजार में है। खबर तो यहां तक आई की इसकी आड़ में धर्मपरिवर्तन जैसे गैराकानूनी कामों को अंजाम दिया जा रहा है। भारी बारिश की सूचना देने वाले डॉपलर रडार लगाए जाने थे जो आज  तक नहीं लगाए गए।  2013 की आपदा के बाद केंद्र ने 2 डॉपलर रडार दिए थे जिने नैनीताल और मसूरी में लगाया जाना था। लेकिन जगह चिन्हित नहीं होने से ये रडार हिमाचल और जम्मू कश्मीर में लगाए गए। 

5---विस्थापन - दैवीय आपदा और भूकंप की दृष्टि से चमोली, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी ज़िले के 350 से ज़्यादा गांव का विस्थापन किया जाना है। यहां कभी भी कोई बड़ी आपदा कोई बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है। एनडी तिवारी सरकार में इन गांव चिन्हीकरण हुआ था , लेकिन अब तक एक भी गांव का पुनर्वास नहीं हुआ, बल्कि अब विस्थापित होने वाले गांव की संख्या 50 और बढ़ गई है। इससे ज्यादा खतरनाक स्थिति यह है कि एक रिपोर्ट में ये दावा किया गया है कि उत्तराखंड में नेपाल से ज्यादा खतरनाक भूकंप आने की संभावना है। 

6----शराब नीति - आबकारी नीति को लेकर हर सरकार विपक्ष के निशाने पर होती है, पारदर्शी नीति नहीं बनाने का आरोप सरकारों पर हमेश लगते आएें है। उत्तराखंड में बिकने वाली डेनिस शराब को लेकर सीएम रावत पर गंभीर आरोप लगे हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि हर बोतल में हिस्सा फिक्स है। विपक्ष डेनिस ब्रांड की शराब को सीएम के बेटे की फैक्ट्री मेड बताता है। यहां यह बात गौर करने की है कि पहाड़ को शराब ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।

7----खनन नीति - 16 साल बाद भी खनन नीति पर सरकार एक राय नहीं बना पाई है, खनन नीति को लेकर सरकार पर सवाल खड़े होते आए हैं, हर साल सरकार को अवैध खनन के चलते हज़ारों करोड़ के राजस्व का लगता है चूना, हरीश रावत ने हाल ही में नव प्रभात की अध्यक्षता में मंत्रियों की एक कमिटी बनाई है, जो खनन नहीं, बल्कि चुगान नीति बनाएगी।

8-----ऊर्जा नीति - उत्तराखंड में ऊर्जा की अपार संभावना होने के बावजूद ऊर्जा उत्पादन के मामले में उत्तराखंड बहुत पीछे है, जो बांध बनाए भी गए हैं, उन पर सवाल उठते आए हैं, पर्यावरण विद् इन बांध को लगातार आ रही आपदा के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं, सरकार इस पर भी स्पष्ट नीति नहीं बना पाई है।

9---पर्यटन नीति - उत्तराखंड में ऊर्जा के बाद पर्यटन ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है, जो उत्तराखंड की आर्थिकी का मुख्य आधार है, पर्यटन व्यवसाय से सूबे के लाखों लोग परोक्ष और अपरोक्ष रुप से जुड़े हुए हैं, लेकिन सरकार अभी तक तीर्थाटन और पर्यटन में अंतर नहीं कर पाई है, जो पुराने पर्यटक केंद्र हैं, वहां रखरखाव का अभाव है, जबकि तीर्थाटन को ही सरकार पर्यटन के रुप में बढ़ावा देने में जुटी है,  मॉनसून के दौरान सड़कें बंद होने के चलते यात्रा चौपट हो जाती है ।

10---चारधाम यात्रा - रावत सरकार ने 12 महीने चारधाम यात्रा चलाने का ऐलान तो किया, लेकिन चारधाम यात्रा ही सुचारु रुप से चलाना सरकार के लिए टेढी खीर है, उत्तराखंड में तीर्थाटन की दृष्टि से कई धार्मिक स्थल है, जिनका सरकार प्रचार प्रसार तक नहीं कर पाई है, इसके अलावा हिमालय दर्शन और कुमाऊं दर्शन की योजना भी टांय-टांय फिस्स हो गई ।

11---स्वास्थ्य सुविधा - उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाएं पटरी से उतरी हुई हैं, डॉक्टर पहाड़ चढ़ने को तैयार नहीं हैं, तो मैदान के हॉस्पिटल में भी डॉक्टरों का टोटा है, दवाइयां और दूसरी सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हैं, कुमाऊं के सबसे बड़े हॉस्पिटल सुशीला तिवारी में आए दिन लापरवाही के चलते मरीज़ों की मौत हो रही है, जिसको लेकर नैनीताल हाईकोर्ट ने सरकार से जवाब भी मांगा है। 

12---ट्रांसफर नीति - उत्तराखंड में तबादला नीति हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रही है, खंड़ूडी सरकार में बनाई गई ट्रांसफर नीति को अब तक सबसे अच्छा बताया गया है, लेकिन कांग्रेस सरकार ने ट्रांसफर नीति को बदल दिया, ट्रांसफर नीति का सबसे बड़ा असर शिक्षा महकमे में होता है ।

13----ज़मीन नीति - उत्तराखंड बनने के बाद से भूमाफिया लगातार बढ़ते जा रहे हैं, मैदानी इलाकों में लैंड से जुड़े हुए आपराधिक मुकदमों का ग्राफ़ बढ़ता जा रहा है, बेनामी संपतियों के खुर्दबुर्द होने का सिलसिला जारी है, खंडूडी ने बाहरी लोगों के लिए जमीन खरीद नीति बनाई थी, जिसके बाद भूमाफिया पर काफी हद तक लगाम लगी थी, लेकिन कांग्रेस सरकार में उस नीति को बदल दिया गया ।

14----स्मार्ट सिटी - देहरादून को स्मार्ट सिटी का दर्जा दिलाने में सरकार नाकाम रही, सरकार अभी तक ये भी तय नहीं कर पा रही है कि स्मार्ट सिटी के लिए कितने एकड़ ज़मीन की ज़रुरत पड़ेगी, पहले सरकार ने देहरादून विकासनगर के चाय बागान में स्मार्ट सिटी बनाने का फैसला लियख, और हज़ारों एकड़ भूमि में स्मार्ट सिटी बनाने का प्रपोजल रखा, लेकिन लोगों के विरोध के बाद सरकार ने उस फैसले को वापस ले लिया और बाद में स्मार्ट सिटी को 300 एकड़ भूमि पर ही बनाने की बात कही गई।

15----स्थायी राजधानी - 16 साल बाद भी कोई सरकार स्थायी राजधानी को लेकर अपना रुख साफ नहीं कर पाई है, गैरसैंण को लेकर पहाड़ के लोगों को गुमराह किया जा रहा है, जबकि देहरादून के रायपुर में केंद्र से मिले 100 करोड़ रुपये की मदद से नए विधानसभा भवन का निर्माण कराया जा रहा है।

16----परिसंपत्ति बंटवारा - 16 साल बाद भी उत्तराखंड और यूपी के बीच परिसंपत्तियों का बटवारा नहीं हो पाया है, आज भी उत्तराखंड की कई अहम संपत्तियों पर यूपी का कब्जा है, टिहरी डैम से उत्पादित होने वाली बिजली पर राज्य सरकार 25 फीसदी हिस्सेदारी चाहती है, लेकिन यूपी का स्टेग होने के चलते उत्तराखंड के हिस्से महज 12 फीसदी बिजली ही आ पाती है।

 सबसे बड़ सवाल है परिसीमन से बढ़ती परेशानी - जनसंख्या के आधार पर होने वाले परिसीमन से मैदानी इलाकों में विधानसभा सीटों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिससे मैदान और पहाड़ में खाई लगातार बढ़ती जा रही है, पहाड़ पहले से ही विकास से कोसो दूर हैं, अब मैदान में सीटों की संख्या बढ़ने के बाद सभी सियासी दलों का रुझान मैदानी सीटों को लेकर ही होता है, यही स्थिति रही तो 2050 तक मैदान में 70 में से 50 सीटे होंगी, जबकि पहाड़ में महज 20 सीटें रह जाएंगी, ऐसे में एक और आंदोलन होने की ज़मीन तैयार हो रही है।

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

सड़क, हादसे और संवेदनहीनता

भारत में सड़क हादसे एक गंभीर समस्या बनते जा रहे हैं।  कल दिल्ली में बेदर्द दिल्ली की जो तस्वीर सामने आई वो मानवता को शर्मसार करने वाली थी। सड़क पर घायल पड़े व्यक्ति को किसी ने अस्पताल नही पहुंचाया। टक्कर मारने वाले से लेकर वहां से गुजरते राहगीरों ने तक जहमत नही उठाई। एक रिक्शे वाला रूका मगर मोबाइल चुराकर चलता बना। यह सबकुछ एक सीसीटीवी में कैद हो गया। यह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकार तक सड़क पर पड़े घायलों की मदद के लिए निर्देश दे चुकी है। एक पर के लिए किसी ने नही सोचा का घायल पड़ व्यक्ति किसी का बेटा पति या पिता होगा। आखिरकार ज्यादा खून बहने से उसकी मौत हो गई। इन तस्वीरों ने पूरे भारत को हिला दिया। हाल ही में सरकार ने मोटर वेहिकल एक्ट में संशोधन कर हिट एन रन केस में मुआवजा 25 हजार से बढ़ाकर 2 लाख कर दिया है और सड़क हादसों में जान गंवाने वालों को 10 लाख का मुआवजा देने की बात कही है। भारत में हर साल 5 लाख सड़क हादसों में 1.5 लाख लोग अपनी जान गंवा देते हैं।  भारत में हर 1 मिनट में सड़क हादसा होता है। हर 1 घंटे में 18 मौत हो जाती है।   इस लिहाज़ से दुनिया में सड़क हादसों में सबसे ज्यादा लोग भारत में मारे जाते हैं। जबकि भारत में दुनिया के सिर्फ 1 फीसदी वाहन हैं। 10 फीसदी सड़क हादसे होते है और 6 प्रतिशत मौंते हो जाती हैं। इनमें 78.7 प्रतिशत हादसे ड्राइवर की गलती से होते हैं। भारत में 2011 में 136834 मौतें जबकि 2012 में 139091 मौतें हुई। 2015 में यह आंकड़ा बढ़कर 1.5 लाख तक पहुंच गया। यानि तमाम उपायों के बावजूद भारत में सड़क में होने वाली मौतें कम होने के बजाय बढ़ रही हैं...मसलन जिस दिन सड़क हादसे की वजह से केन्द्रीय  मंत्री गोपीनाथ मुंडे की मौत हुई थी उस दिन सड़क हादसों में कुल 400 लोग मारे गए थे। बीते 10 साल में या तो 55 लाख लोग गंभीर रूप से घायल हो गए या विकलांग हो गए। हादसो पर अगर गौर करें तो सबसे ज्यादा 23.2 प्रतिशत हादसे दुपहिया वाहन से होते हैं।  19.2 प्रतिशत हादसे ट्रकों से होते हैं।  नेशनल हाइवे में  30.1 प्रतिशत हादसे होते हैं जिसमें  37.1 लोगों की मौत हो जाती है।  स्टेट हाइवे   24.6 प्रतिशत हादसे  में 27.4 प्रतिशत लोगों की मौत हो जाती है। हादसो में 51.9  पीड़ित 25 से 65 साल के होते हैं जबकि 30.3 प्रतिशत हादसों में पीड़ित 15 से 29 साल के बीच के होते हैं। 15 प्रतिशत हादसों में पीड़ित महिलाऐं होती हैं। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि भारत में 5 से 20 प्रतिशत हादसे की वजह शराब पीकर वाहन चलाना है। सड़क दुर्घटना  से केवल जनहानि का नुकसान नही बल्कि सालाना 3 लाख करोड़ का नुकसान या 3 प्रतिशत जीडीपी का सालाना नुकसान होता है। हमारे देश में सड़क हादसों को लेकर आमतौर पर जितनी संवेदनशीलता दिखनी चाहिए उतनी दिखती नहीं..एक अनुमान के मुताबिक सड़क हादसों में 50% लोगों की मौत सिर्फ इसलिए हो जाती है क्योंकि उन्हें वक्त पर अस्पताल नहीं पहुंचाया गया । सेव लाइफ फांउडेशन के 2013 में हुए सर्वे में इस बात का खुलासा हुआ कि 74 फीसदी भारतीय  रोड एक्सीडेंट विक्टिम की मदद करने के लिये आगे नहीं आते। इनमें से 88% राहगीर पुलिस की पूछताछ और कोर्ट कचहरी के  चक्कर से बचने के  लिए घायलों को  अस्पताल नहीं ले जाते हैं...सर्वे के मुताबिक दिल्ली में एक्सीडेंट की सूरत में 96% लोग मदद करने आगे नहीं आते...जबकि मुंबई में करीब 90% लोग रोड एक्सीडेंट की मदद करने को तैयार नहीं होते...हैदराबाद में करीब 68% जबकि कोलकाता में करीब 59 फीसदी लोगों के मदद ना करने की बात सामने आई थी...बहरहाल सरकार सड़क हादसों में अगले 5 साल में 50 फीसदी की कमी लाना चाहती है। मगर देखना होगा क्या उसकी सोच जमीन पर उतर पाती है।



शनिवार, 6 अगस्त 2016

जीएसटी में आगे क्या!

सब जानना चाहते हैं कि जीएसटी में अब क्या होगा। 122 संविधान संशोधन विधेयक राज्य सभा से पारित हो गया। अब संशोधनों को लोकसभा से पारित करना होगा। इसके बाद 16 राज्यों को इसे रैटीफाई करना होगा। इसके बाद जीएसटी काउंसिल का गठन होगा जिसमें केन्द्र और राज्यों के प्रतिनिधि होंगे। इसमें फैसले के लिए दो तिहाई वोट राज्यों के पास होंगे तो  एक तिहाई वोट केन्द्र के पास। जीएसटी काउंसिल तीन मसौदों पर चर्चा करेगी।  ये हैं सीजीएसटी, एसजीएटी और आईजीएसटी। सेंटर जीएसटी स्टेट जीएसटी और इंटर स्टेट जीएसटी। पहला और तीसरा केन्द्र से जुड़ा और दूसरा राज्यों से  जुड़ा मसौदा है।  इसके बाद दो विधेयकों यानि सीजीएसटी और आईजीएसटी  को केन्द्र से मंजूरी और एसजीएचटी को राज्यों की मंजूरी चाहिए। सबसे बड़ी चुनौति है क्या 1 अप्रैल 2017 से सरकार इसे लागू कर पाएगी। क्योंकि इसके लिए आईटी इनफ्रास्ट्रक्चर के साथ बाकी तैयारी भी दुरूस्त करनीं होंगी।

समझिए जीएसटी का तर्कशास्त्र!

जीएसटी लाने के पीछे क्या तर्क है!

टैक्स पर टैक्स से राहत!
जीएसटी टैक्स के ऊपर टैक्स से राहत देगा। अभी हम अलग अलग 17 तरह के टैक्स देते हैं। इस कानून के बाद एक बार में सिर्फ डेस्टिनेशन कर देना होगा।

देश एक बाजार बन जाएगा !
आज हर राज्य की अपने टैक्स रेट हैं। मसलन दिल्ली, हरियाणा यूपी और उत्तराखंड में टैक्स की रेट अलग अलग है। इससे वस्तु और सेवा के दरों में भारी अंतर है।

महंगाई कम होगी!
 आज 80 फीसदी गुड्स में 27 फीसदी के आसपास टैक्स लगता है। इसमें केन्द्र एक्साइज के तौर पर 12.5 फीसदी और राज्य वैट के तौर पर 14.5 फीसदी लगाते हैं। अगर वैट का स्टैंर्ड रेट 18 फीसदी तय होगा तो सामान की कीमत कम हो जाएगी।

व्यापार करना आसान होगा!
आज नया काम शुरू करने से व्यापारी अलग अलग टैक्सों के बारे में सोचकर ही खबरा जाता है।  इसके बारे में हिसाब किताब रखना भी उसके लिए मुश्किल और खर्चिला होता है । यूनिफार्म रेट होने से उसे आसानी होगी।

विकास दर में 1.5 फीसदी का इज़ाफा होगा!
विशेषज्ञों के मुताबिक जीएसटी लागू होने के बाद टैक्स कॉम्पलाइंस बढ़ेगा जिससे राजस्व बढेगा। लोग टैक्स की चोरी नही कर पाएेंगे।

मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में बदलाव आएगा!
भारत की विकास और रोजगार यात्रा में ये क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। भारत में एस क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 15 फीसदी के आसपास है जबकि चीन में दुगना। ऐसे में जीएसटी लागू होने के बाद
मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर बढ़ेगा तो अर्थव्यवस्था बढ़ेगी अर्थव्यवस्था बढ़ेगी तो

टैक्स  चोरी रूकेगी!
टैक्स चोर सावधान हो जाऐं। जीएसटी लागू होने के बाद टैक्स छुपाना आसान नही होगा। किसी न किसी चरण में कर चोरी पकड़ी जाएगी। दूसरा टैक्स की दर कम होने से कोई कर चोरी नही करेगा।

टाउनहाल में प्रधानमंत्री से 9 सवाल!

गु़ड गवर्नेंस से क्या अभिप्राय है?
बढ़ती विकास दर का फायदा आम जन तक कब पहुंचेगा?
बेहतर स्वास्थ देने के लिए सरकार क्या कर रही है?
किसान का बेटा किसानी क्यों नही करना चाहता?
स्मार्ट शहर चर्चा में है मगर स्मार्ट गांव कब?
खादी को बढ़ावा देने के लिए सरकार क्या कर रही है?
विदेश यात्रा के चलते थकान नही लगती?
पर्यटन के लिए नया क्या  कर रहें हैं?
वालेयन्टर में क्या खूबी होनी चाहिए?
आखिर में प्रधानमंत्री ने कहा 80 फीसदी गौरक्षा दलों ने दुकानें खोल रखी हैं। राज्यों को इन पर नकेल कसनी चाहिए।

आजादी के 70 साल

जलाओं दिये पर, रहे ध्यान इतना।
अंधेरा घना कहीं, रह नही जाए।
गर्व हो रहा है। मै खुशी से फूला नही समा रहा हूं। आजादी की 70वी वर्षगांठ मना रहे हैं। इस पावन बेला पर देशवासियों को शुभकामनाऐं देना चाहता हूं। मगर कुछ सवाल मेरे मन में बिजली की तरह कौंध रहे है। जिसका जवाब न मिलता न कोई देने को तैयार दिखता। लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी देश को सम्बोधित करते दिखेंगे। देशवासियों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर संदेह नही है। फिर ऩए सपनों की उड़ान होगी। घोषणाओं की बरसात होगी। आखिर हो भी क्यों ना। आने वाले सालों में जनता के वोट का हिसाब किताब जो करना है। आज एक सवाल नीति निर्माताओं से । आजादी के 70 सालों में  क्यों आबादी का एक बडा हिस्सा आज भी गरीब है? भूखा है? मूलभूत सुविधाओं से वंचित है? शिक्षा स्वास्थ पानी बिजली सडक और आवास से क्यों वंचित है? जवाब है उनके पास। फिर कैसा आजादी का जश्न? ये क्या महान देशभक्त सेनानियों का अपमान नही। क्या इसी दिन के लिए उन्होने कुर्बानी दी थी। आजाद भारत की उनकी कल्पना का ये मखौल है। देश में 30 करोड जनता आज भी गरीब है। 40 करोड लोग असंगठित क्षेत्र से आते है। 77 फीसदी आबादी की हैसियत एक दिन में 20 रूपये से अधिक खर्च करने की नही है। 41 फीसदी किसान विकल्प मिलने पर किसानी छोडना चाहते है। 3 लाख ज्यादा किसान  हालात से हार मानकर आत्महत्या कर चुके है। 42 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार तो 69 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है। 1 करोड 12 लाख  बाल मजदूर है। बेरोजगारी चरम पर है। आधी आबादी खुले में शौच के लिए जाती है। आबादी के बडे हिस्से के पास पीने का साफ पानी नही है। भ्रष्टाचार ने पूरे देश को अपनी गिरफ़्त में ले रखा है। महंगाई आम आदमी के थाली से निवाला छीन रही है। आतंकवाद, नक्सलवाद और उग्रवाद आज भी आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा है। फिर भी आजादी का जश्न । कोरी घोषणाऐं। झूठे आश्वासन। देश की तस्वीर   तकदीर बदलने का सब्जबाग। विकास का फायदा हर व्यक्ति तक पहुचाने का झूठा वादा। मगर देश बदलने की जिद का स्वांग भरने में क्या जाता है। अच्छे दिन लाऐंगे ये कहने में क्या जाता है। कभी तो बदलेगी मुल्क की तस्वीर। सनद रहे। ये तभी संभव है जब हम बदलेंगे। अधिकारों के लिए चिल्लाने के बजाय जिम्मेदारी से काम करेंगे। देश के हालत सरकारें नही बदलती? जनता बदलती है। देश स्मार्ट तब बनता है जब जनता स्मार्ट होती है। इसलिए हम सब को देश के विकास के यज्ञ में आहूति देनी होगी। कवि की इन पंक्तियों के साथ लेखनी को विराम।
 गहरा जाता है अंधेरा, हर रात निगल जाती एक सुनहरा सवेरा।
फिर भी मुझे सृजन पर विश्वास है, एक नई सुबह की मुझे तलाश है।
जय हिन्द

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

लोकसभा टीवी की 10वीं सालगिरह

आज मेरे एक मित्र अनुराग का संदेश मिला।  लोकसभा टीवी ने अपने 10 साल पूरे कर लिए हैं।  इससे पहले मैं कुछ भी लिखूं मैं दो शख्सियतों का साधुवाद करना चाहूंगा। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और  भाष्कर घोष। लोकसभा टीवी की कल्पना सोमनाथ चटर्जी ने की तो उसे धरातल में उतारा भाष्कर घोष ने । सही मायने में ये दोनों शख़्सियत ही इसके असली शिल्पकार हैं। अब बात अपने सफरनामे की।  कैसे भूल सकता हूं  28 मार्च 2006 का वो दिन जब मैंने इस संस्थान में कदम रखा। सबकुछ नया था। नए लोग, नई सोच। मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे । क्या करना होगा, कैसे करना होगा । वहां मैं नया था... अकेला था... ना मेरा कोई मित्र न कोई शुभचिंतक... मेरे साथ सिर्फ मेरा आत्मविश्वास था। मुझे मालूम था कि सामने चुनौतियों का पहाड़ है लेकिन मैं ये भी जानता था कि अवसर की गंगा यही से निकलेगी।  प्रशिक्षण के दौरान लोकसभा की कार्यवाही कैसे चलती है ये जानने का मौका मिला। 24 जुलाई 2006 को लोकसभा में 24 घंटे के प्रसारण की शुरूआत हुई। जो  सदन की कार्यवाही लोगों को बोझिल लगती थी उसमें मानो हमारा आनंद छुपा था। सुबह प्रश्नकाल, उसके बाद  शून्यकाल , ज्वलंत विषय पर बहस... समेत विधेयकों पर चर्चा से बहुत कुछ सीखने को मिलता था। कई सांसद ऐसे थे जिसे सुनने के लिए पैर मानो अपने आप ठिठक जाते थे। महंगाई में सुषमा स्वराज का भाषण भूले नही भूलता। वो जब भी बोलने के लिए उठतीं सत्ता पक्ष के चक्रव्यूह को तहस नहस कर देतीं। ऐसा लगता कि उनके तर्क ही सम्पूर्ण हैं लेकिन जैसे ही तत्कालिन  वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी जवाब देने उठते तो चर्चा की तस्वीर फिर बदल जाती। प्रणब दा अपने सधे हुए जुबानी तीर से सुषमा के हर वार को नाकाम करने की कोशिश करते। यही खूबसूरती है सदन में होने वाली चर्चा की। जो आज भी मेरे लिए जानकारी का सबसे बड़ा स्रोत है। इसका फायदा शाम को होने वाले कार्यकम लोकमंच में मिलता था। विषय की तैयारी मैं शुरू से ही करता था। मगर जानकारी कैसे और कहां से जुटाई जाती है ये सिखाया लोकसभा टीवी ने।  आज भी मैं जिन विषयों पर धाराप्रवाह होकर बोल पाता हूं उसका श्रेय भी इस संस्थान को जाता है। यहां जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वो है लोकसभा टीवी की निष्पक्षता। यहां जितने कठिन सवाल मैंने लोकसभी टीवी में किए होंगे उतने निजी चैनल में लोग नहीं पूछ सकते। ये था निष्पक्षता का मानदंड।  2008 का एक वाकया आपसे साझा करता हूं। लोकमंच का कार्यक्रम चल रहा था। पैनल में सुषमा स्वराज, बासुदेव आचार्य , मोहन सिंह जैसे लोग शिरकत कह रहे थे। दर्शकों में से सवाल आया। आप जैसे नेताओं को चौराहे पर खड़ा कर गोली मार देनी चाहिए? इस सवाल ने मुझे हिला दिया। मैं कुछ बोलता उससे पहले सुषमा स्वराज ने जवाब दिया कि क्या ये जनता से सरोकार वाले मुद्दे उठाने की सज़ा है। हम आपकी आवाज़ ही संसद मे उठाते हैं। कहने का तात्पर्य है उनकी परिपक्वता ने उस मुश्किल पल को सामान्य सा बना  दिया।  एक दूसरा वाकया भी बेहद रोचक है। 2009 में  लोकमंच कार्यक्रम  में तेल की बढ़ी कीमतों पर चर्चा चल रही थी। अचानक सीपीआईएम के सांसद ने मुझसे पूछ लिया कि एक बैरल में कितने लीटर तेल होता है। मैने पलट के जवाब दिया 160 लीटर के आसपास। कहने का तात्पर्य है लोकसभा टीवी में तैयारी का ये स्तर था। संसदीय समिति की रिपोर्ट कितने लोग पढ़ते हैं मैं नही जानता मगर हमारे लिए वो रिपोर्ट जानकारी का भंडार थी। आज जो कुछ भी हूं उसमें इस संस्थान का बहुत बड़ा योगदान है। मैं अपने सभी सहयोगियों को धन्यवाद देता हूं। मैं नाम भी लिखना चाहता था मगर किसी का नाम गलती से छूट जाता तो जाने अनजाने में बड़ी गलती हो जाती और उससे उस शख्स को पीड़ा पहुंचती। मेरे कामयाब सफर में तमाम साथियों का अहम योगदान है। लिहाजा मैंने नाम नहीं लेना ही बेहतर समझा। मैं इस संस्थान को नमन करता हूं जिसने मुझे जीवन में एक नई दिशा दिखाई। साथ ही शुभकामनाएं ये भी हैं कि ये नित नए आयाम स्थापित करता रहे। साथ ही परमात्मा की ऐसी कृपा रही कि आज जिस संस्थान न्यूज नेशन के साथ हूं  उसने पत्रकारिता के जगत में एक आदर्श मानदंड स्थापित किया है।   मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह दिन दूर नही जब यह संस्थान पत्रकारिता के मूल सिद्धान्त पर हमेशा खरा  उतरेगा।
यह सिद्घान्त है
लोकतंत्र हिर्तारथाय, विवेकालोकवर्धनी
उदबोधनाय लोकस्य , लोकसत्ता प्रतिष्ठता

गुरुवार, 2 जून 2016

गांधी नाम केवलम!

डूबते को तिनके का सहारा...तो क्या कांग्रेस के लिए वो तिनका बस राहुल हैं...अटकलों का बाज़ार गर्म है कि सोनिया गांधी जल्द ही राहुल को कांग्रेस की विरासत सौंपने वाली हैं...तो क्या यही वो सर्जरी है जिसकी मांग दिग्विजय सिंह कर रहे थे...कांग्रेस के अंदर क्या मंथन चल रहा है ये तो कांग्रेस जाने लेकिन फिलहाल राहुल को अध्यक्ष बनाने को लेकर सुगबुगाहट तेज हो गई है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस संगठन में व्यापक फेरबदल करने की तैयारी में है।  क्या  राहुल की टीम में संतुलन देखने को मिलेगा? या युवा और अनुभव का संयुक्त संगम होगा? मगर असली सवाल यह नही कि कौन होगा, कौन नही। सवाल यह है कि कांग्रेस इतनी कमजोर क्यों हो गई। क्यों जनमानस का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। सबसे बड़ा सवाल है कांग्रेस के सामने चुनौतियां क्या हैं?

राहुल कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौति हैं!
हार दर हार की ज़िम्मेदारी लेकर राहुल ने दिलेरी चाहे कितनी भी दिखाई हो लेकिन रणनीति के तौर राहुल अब तक एक कमजोर सेनापति साबित हुए हैं बावजूद इसके उनको कमान क्यों। क्या कांग्रेस में गांधी परिवार से अलग कुछ भी नहीं....इसका जवाब इतिहास में छिपा है. कांग्रेस को केवल गांधी परिवार ही एकजुट रख सकती है। वरना कांग्रेस टुकड़ों में बंट जाएगी। हर नेता अपने नाम से एक कांग्रेस बना लेगा। लेकिन गांधी परिबार क्विकफिक्स का काम करता है। इसलिए पार्टी नेताओं को एकजुट रखना सबसे बड़ी चुनौति है।

हार का सिलसिला कब थमेगा!
कांग्रेस के हार का सिलसिला बदस्तूर जारी है। लोकसभा से शुरू हुआ यह सिलसिला असम और केरल तक आ पहुंचा है। नतीजा कभी देश भर में छाई रहने वाली पार्टी अपने अस्तित्व को बचाये रखने की कोशिश में जुटी है। एक एक कर वो अपने सारे राज्य बीजेपी के हाथों गंवाती जा रही है। कहने के लिए आज उसके पास कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल और पूर्वोत्रर के 2 राज्य बजे हैं। मगर सच्चाई यह है कि कांग्रेस मुल्क के कई बड़े भूभाग से गायब हो चुकी है।

कांग्रेस को मोदी चाहिए!
राहुल की सबसे बड़ी दिक्कत है कि उनका मुकाबला मोदी से है। मोदी के सामने वो बौने लगते हैं. मोदी न सिर्फ वाकपटु है बल्कि उनकी छवि एक ईमानदार और सख्त नेता की है। वो भीड़ को अपने अंदाज़ से आकर्षित करना जानते हैं। कोई माने या ना माने मोदी आज ब्रैंड बन चुके हैं। जो कार्यकर्ताओं में जोश का संचार करना जानते हैं। जनता से सीधे जुड़ने का उनका अंदाज दूसरे नेताओं से जुदा है। इसलिए राहुल को मोदी को उन्ही की शैली में जवाब देने का अंदाज़ सीखना होगा।

कार्यकर्ता टूट चुका है!
हार बड़े बड़े को तोड़ देती है। खासकर वो सैनिक जिनका युद्ध में जय बोलने का बड़ा महत्व होता है कांग्रेस में वो हताश और निराश है।
कोई उम्मीद की किरण भी उसे दूर दूर तक नजर नही आ रही है। राज्यों की हार से वो कमजोर हुआ है। उसमें उत्साह का संचार करना जरूरी है। मगर सवाल ये कि करेगा कौन?
राहुल उस भूमिका में दूर दूर तक नजर नही आते। राज्यों के स्तर में युवा नेता और बुजुर्ग नेताओं की बनती नही। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह औऱ सिंधया। राजस्थान में सचिन पायलट। वैसे में यह कहावत मशहूर है कि कांग्रेस की पहली लड़ाई हमेशा कांग्रेस के साथ होती है।

गठबंधन वक्त की मांग है!
कांग्रेस एक दौर में गठबंधन को लेकर असमंजस में रहती थी। लेकिम शिमला सम्मेलन के बाद कांग्रेस ने रणनीति बदली और इस सच्चाई को समझा। नतीजा 2004 में सरकार बनाई।  2009 की जीत से उत्साहित कांग्रेस ने फिर एकला चलो का नारा दिया मगर कामयाबी नही मिली। और आज हालात कांग्रेस के खिलाफ है। यहां तक की गठबंधन की स्थिति में उसे छोटे दलों की दया पर निर्भर रहना पड़ रहा है। मगर जब हवा का रूख विपरीत हो तो उसके सामने अपनी ताकत का ढोल पीटना नासमझी ही कही जाएगी। इसलिए जहां जरूरी हो समझदारी से गठबंधन का रिश्ता निभाया जाए। इसका फायदा काग्रेस को बिहार और बंगाल में मिल चुका है।

आगे की डगर ज्यादा कठिन है!
2017 में देश को सबसे बड़े सूबे में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। कांग्रेस की हालत यहां भी खराब है। लोकसभा में केवल गांधी परिवार ही अपनी सीट बचा पाया। ऐसे में यहां भी झटका लगना तय है। रही बात पंजाब की तो वहां वापसी के आसार पर आम आदमी पार्टी पानी फेर सकती है। उत्तराखंड और हिमाचल की जनता हर पांच साल में सत्ता बदल देती है। इसलिए उम्मीद यहां भी धूमिल हैं।

गुजरात से शुरू करें विजय अभियान!
कांग्रेस अगर गुजरात में वापसी कर ले तो  एक ही झटके में मोदी के ब्रांड वैल्यू की हवा निकल देगी... बीजेपी राज्य में फैले असंतोष को भली भांति जानती है इसलिए निज़ाम बदलने की तैयारी में जुट गई है। ऊपर से पटेलों में उपजा असंतोष गुजरात के चुनावों की तस्वीर बदल सकता है। बशर्तें कांग्रेंस अपने घर को दुरूस्त करे। गुजरात में विकल्प बनने की हिम्मत दिखाए। अगर यहां भी वह हालात अपने पक्ष में नही कर पाई तो कांग्रेस मुक्त भारत का बीजेपी का सपना पूरा होते देर नही लगेगी।

मंगलवार, 17 मई 2016

मेक इन इंडिया

मेक इन इंडिया केन्द्र सरकार की एक महत्वकाक्षी योजना है। सरकार इसके जरिए न सिर्फ निवेश लाना चाहती है बल्कि 10 करोड़ लोगों को रोजगार देना चाहती है। साथ ही जीडीपी में इस से्क्टर की भागीदारी मौजूदा 15 से 25 प्रतिशत करना चाहती है। बहरहाल इसके तहत 25 सेक्टरों को शामिल किया गया है।

आॅटोमोबाइल कंपोनेंट
आईटी और बीपीएम
सड़क और राजमार्ग
  • एविएशन
  • चमड़ा
  • अंतरिक्ष
  • जैव प्रौद्योगिकी
  • मीडिया और मनोरंजन
  • कपड़ा और वस्त्र
  • केमिकल
  • खनन
  • थर्मल पावर
  • निर्माण
  • तेल और गैस
  • पर्यटन और हाॅस्पिटेलिटी
  • रक्षा विनिर्माण
  • फार्मास्यूटिकल्स
  • कल्याण
  • इलेक्ट्रिकल मशीनरी
  • बंदरगाह
  • इलेक्ट्राॅनिक प्रणाली
  • रेलवे
सरकार की कोशिश है कि इन सेक्टरों में ज्यादा से ज्यादा  निवेश आये।

सब्सिडी में सुधार

मोदी सरकार ने सब्सिडी को टारगेट करना शुरू किया तो नतीजे सामने आने लगे। हालांकि उसने योजनाओं को जरूरतमंदों तक पहुचाने के लिए उसी आधार को सामने रखा जिसका की वो कभी विरोध करते थे।मोदी सरकार का जैम मंत्र यानि जनधन आधार और मोबाईल योजना  कामयाब होती दिख रही थी। योजनाओं का  फायदा जरूरतमंदों को मिलना चाहिए मगर  विचौलियों बीत में ही 

हाथ साफ कर लेते थे। नतीजा हजारों करोड़ो खर्च करने के बाद नतीजा ढाक के तीन पात। 
मसलन पीडीएस के तहत मिलने वाला 58 फीसदी राशन काले बाजार में बीक जाता था। गरीब को दिए जाने वाला कोरोसिन उस तक पहुंचने के बजाय डीजल में मिला जाता था। 

यूरिया एमओपी और डीओपी की कालाबाजारी जगजाहिर थी। मगर सरकार से सुधारों पर ध्यान देकर काफी हद तक इस स्थिति को संभाला। सरकार ने पहल योजना के तहत 14.672 करोड़ रूपये बचाये। अकेले हरियाणा में 6 लाख फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए गए। सरकार ने देश भर में 1.62 करोड़ बोगस राशन कार्ड निरस्त किए जिससे सरकार को 10 हजार करोड़ की बचत हुई।इसी तरह सरकार ने मनरेगा में 3000 करोड़,तो पेंशन फंड में 1.5 लाख डुप्लीकेट लाभार्थियों को बाहर किया। असर प्रधानमंत्री की अपील का भी हुआ। 1 करोड़ लोगों ने एलपीजी सब्सिडी को छोड़ दिया। जवाब में सरकार ने प्रधानमंत्री उज्जवला योजना के तहत 5 करोड गरीब परिवारों को 
एलपीजी कनेक्शन देने का टारगेट रखा है। इसके तहत सरकार एलपीजी कनेक्शन के साथ 1600 रूपये भी दे रही है।
यूरिया की कालाबाजारी रोकने के लिए नीम कोटिग का फार्मूला इजाद किया। आजादी के बाद गरीबी हटाओं योजना में लाख करोड़ पानी की तरह बहाये गए। समय समय परयोजनाओं के नाम तक बदल दिए गए। मगर भ्रष्टाचार के चलते यह योजना बीच में ही दम तोड़ देती थी। अब जैम के सहारे इसपर लगाम लगाने की कोशिश की गई है। यहां ये जानना भी जरूरी है कि की केन्द्र गरीब तक एक रूपया पहुंचाने के लिए 3.50 रूपये खर्च करती है।

जन धन योजना

जन धन योजना.....पीएम मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट
गरीब गुरबा को बैंकों से जोड़ने की मुहिम
मोदी सरकार दो साल पूरा करने जा रही है......जन धन योजना का क्या हाल है....हम यही पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं ।

28 अगस्त 2014 को इस महत्वकांक्षी योजना की शुरूआत हुई। लक्ष्य बड़ा है और चुनौतियां तमाम। वैसे जनता को बैंकों से जोड़ने की ये पहली कोशिश नहीं है...मनमोहन  सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने भी ऐसी कोशिश की थी, लेकिन  टारगेट के करीब वो कभी नहीं पहुंच सके.... लिहाज़ा सबका साथ सबका विकास का नारा देकर आई बीजेपी के लिए इस योजना का क्रियान्वयन इतना आसान नही था।

2011 के आंकड़े के मुताबिक कुल 24.67 करोड़ परिवारों में से 14.48 करोड़ की पहुंच बैंकिग सेवाओं तक थी। गांव में 54 फीसदी तो शहरों में 67.68 फीसदी परिवारों की पहुंच 
बैंकिंग सेवाओं तक थी। ऐसे में देश के 42 फीसदी परिवारों का बैंकों से कोई नाता नहीं था। 
42 फीसदी आबादी को बैंकों से जोड़़ने की चुनौती बहुत बड़ी है.....2014 से सरकार आरबीआई और बैंक इस काम पर जुट गए
जन धन योजना के तहत 
जीरो बैलेंस पर खाता खोला गया
जमा राशि पर  ब्याज का प्रावधान दिया गया
पैसा निकालने के लिए रुपे नाम का डेबिट कार्ड जारी किया गया
न्यूनतम राशि रखने के प्रावधना को खत्म किया गया 
एकाऊंट खोलने के साथ ही 30 हजार का जीवन बीमा दिया गया 
साथ ही 1 लाख का दुर्घटना बीमा इस एकाऊंट के साथ कवर किया गया
सामाजिक योजना मसलन सब्सिडी और पेंशन योजना का फायदा सीधे जरूरतमंदों पहुंचाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है

प्रधानमंत्री के इस ड्रीम प्रोजेक्ट के उद्घाटन के दिन ही 1.5 करोड़ बैंक खाते खोले गए
 
प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत अब तक 
21 करोड़ 81 लाख खाते खोले गए हैं
इन खातों में 37616.58 करोड़ जमा हैं
1-26 लाख बैंक मित्रों की तैनाती की गई है। 


आबादी की पहुंच बैंकिंग सेक्टर तक पहुचाने के लिए यह योजना की तारीफ हर कोई कर रहा है। लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या इससे समाज में बड़ी तब्दीली आएगी...... जानकार इसे सबका साथ सबका विकास के रास्ते पर महज एक कदम मानते हैं।

सोमवार, 18 अप्रैल 2016

किससे मुक्ति चाहिए भारत को।

प्रधानमंत्री मोदी को कांग्रेस मुक्त भारत चाहिए। अब नीतिश को आरएसएस मु्क्त भारत चाहिए। देश की जनता को क्या चाहिए इसकी फिक्र किसी को नही। हमें चाहिए----
गरीबी मुक्त भारत
अशिक्षा मुक्त भारत
कुपोषण मुक्त भारत
भ्रष्टाचार मुक्त भारत
अपराध मु्क्त भारत
क्षेत्रवाद मुक्त भारत
नक्सलवाद मुक्त भारत
एक महान देश बनाने के लिए यह बुनियादी जरूरत है। मगर माननीयों को आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने से फुर्सत ही नही है। बात करते है देश की। जेब भरते है सखे संबंधियों की। गरीब मर रहा है। किसान आत्महत्या कर रहा है। बेरोजगार युवा गलत रास्ते पर जा रहा है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? इतिहास गवाह कि जब भी राष्ट्र से बढ़कर नीजि हितों पर ज्यादा ध्यान दिया गया, देश का नुकसान हुआ।

ये घूस जान ले लेगी।

देश में मेडिकल कालेज की हकीकत। मेडिकल कालेज खोलने के लिए घूस दो।दाखिले देने में घूस लो। सोचिए जो डाक्टर पैसे के दम पर डिग्री लेगा वह सेवा करेगा या मरीजों को लूटेगा। मेडिकल एजुकेशन पर निगरानी के लिए देश में एमसीआई है यानि मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया, जिसके बारे में कहा जाती है कि यहां भ्रष्टाचार ही शिष्टचार है। हमारी सरकारों बीतते समय के साथ मेडिकल एजुकेशन को निजि संस्थानों के पास गिरवी रख दिया। जो एमबीएस में दाखिले के लिए 50 लाख या उससे ज्यादा औऱ पीजी में दाखिले के लिए 1 से 2 करोड़ लेते हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सरकार और एमसीआई को यह पता है। आप सोच रहे होंगे की सरकार कोे पता है तो कारवाई क्यों नही होती। जवाब सीधा और सरल है। संय्या भये कोतवाल को डर काहे का। भारत में सरकारी प्राइवेट मिलाकर कुल 422 मेडिकल काँलेज हैं। 200 सरकारी और 222 प्राइवेट। एमबीबीएस की सीटें 55000 और पीजी में 25000 सीटें हैं। मांग औऱ आपूर्ति का यह अंतर भ्रष्टाचार के बढ़वा देता है। अब नीट यानि कामन एलिजीबिलिटी और इंट्रेन्स टेस्ट के तहत परीक्षा होंगी। कुल मिलाकर सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य का जिम्मा सरकार के खुद उठाना चाहिए।

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

कितना सुरक्षित भारत

भारत सुरक्षित हाथों में है। हुक्मराम ऎसा कहते हैं। मुंबई हमलों के बाद कहा था। पठानकोट हमले के बाद भी यही दोहरा रहें है। मगर हर बार चंद आतंकी देश को दहलाने में कामयाब हो जाते हैं। ऎसा क्यों? क्या हमारा सुरक्षा तंत्र इतना कमजोर है। जानकारी होने के बावजूद इनकाउंटर इतना लंबा क्यों चला? आतंकी सीमा के भीतर कैसे प्रवेश कर गए? किसकी नाकामी के चलते इस आतंकी घटना को लेकर सवाल उठ रहें है? खैर जवाबदेही तय करने की रिवायत इस मुल्क में नही है। यहां तो हमले के बाद विधवा अलाप किया जाता है। नेता अपनी सुविधानुसार बयान देते हैं। टीआरपी के आदमखोर पाकिस्तान को खरीखोटी सुनाकर अपना सीना ठंडा कर लेते हैं। कुल मिलाकर बात आई गयी जैसी होती है। मानो अगले हमले का इंतजार कर रहें हो? यह हालात तब हैं जब एनएसजी गरुड़ और वायु सेना के जवान मोर्चे पर हों। यानि पुलिस पर भरोसा करना बेमानी है। अगर अब भी नहीं बदले तो इस मुल्क का क्या होगा राम जाने।