बुधवार, 8 जुलाई 2015

कुपोषित भारत!

क्या आप जानते है कि दुनिया का हर पांचवा बच्चा भारत में रहता है। 22 प्रतिशत बच्चे कम वजन के पैदा होते हैं। 1000 बच्चों में से 50 बच्चे अपने जीवन का  पहला साल नही देख पातें यानि बीमारी उन्हें पहले साल में लील लेती है। जब बात 0- से 5 वर्ष तक के उम्र की आती है तो 42.5 फीसदी बच्चे कम वज़न के होते हैं, जबकि जब बात कुपोषण की होती है तो 6 से 35 माह के 79 फीसदी बच्चों में खून की कमी पाई गई। अगर एनएफएचएस 2 की बात करें तो 74 फीसदी बच्चों में खून की कमी पाई गई जब यह आंकड़ा बढ़कर एनएफएचएस में बढ़कर 79 फीसदी हो गया। सवाल उठता है की सरकार द्धारा इस कुपोषण मुक्त कार्यक्रम में भारी खर्च के बावजूद यह आंकड़ बड़ कैसे गया। जब बात गांव और शहरों की आती है तो गांव में यह आंकड़ा 81 फीसदी है। बहरहाल सरकार ने स्टेट न्यूर्टीशनल काउंसिल और स्टेट
न्यूर्टीशन एक्शन प्लान जैसे कार्यक्रम के जरिये कुपोषण से लडना चाहती है। जन्म देने वाली मां अगर कमजोर रहेगी तो बच्चा कैसे स्वस्थ होगा। देश में 36 फीसदी महिलाऐं किसी न किसी बीमारी का शिकार है। जबकि 56.2 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है। भारत में 11 से 18 साल की युवतियों की संख्या 8.32 करोड़ यानि कुल आबादी का 16.7 फीसदी है। इसमें 2.75 करोड़ यानि 33 फीसदी कुपोषण का शिकार हैं। जबकि 56 फीसदी युवतियों में खून की कमी पाई गई। 1 से 10 कक्षा में पढ़ रहे 63.5 प्रतिशत बच्चे पढ़ाई पूरी करने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। देश में 15 से 19 साल की 50 प्रतिशत लड़कियां कुपोषण का शिकार हैं। जहां तक सरकार द्धारा इस समस्या से निपटने के लिए चलाए जा रहें कार्यक्रमों की बात है तो महिलाओं खास कर गर्भवती महिलाओं के लिए आइसीडीएस यानि एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम आंगनवाडी के जरिये चलाया जा रहा है। इसके अलावा आरसीएस, जननी सुरक्षा योजना, राष्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, इंदिरा गांधी मातृृत्व सहयोग योजना, एकीकृृत बाल संरक्षण कार्यक्रम, राजीव गांधी नेशनल क्रेच स्कीम, स्वच्छ भारत , ग्रामीण शुद्ध पेयजल योजना, मीड डे मील सर्व शिक्षा अभियान, किशोरी शक्ति योजना और खाद्य सुरक्षा कानून जैसे दर्जनों कार्यक्रम है। सवाल उठता है इतने कार्यक्रमों में हजारों लाखों करोड़ खर्च करने के बाद माताओं में खून की कमी और बच्चे कुपोषित क्यों है। सरकार मेक इन इंडिया, स्क्लि इंडिया, क्लिन इंडिया और डीजीटल इंडिया पर काम करे मगर कुपोषित भारत के चलते यह सपने बेकार हैं। 

गुरुवार, 18 जून 2015

मोदी जी की सुन लेते!

कोई भी देश बंग्लादेश की टीम को हलके में लेने की गलती न करें। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी बंग्लादेश यात्रा के दौरान यह बात कही। मगर उन्हें क्या पता था किउनके देश की टीम ही बंग्लादेश को हलके में लेगी और नतीजा। हार। प्रधानमंत्री मोदी की यह बात सच साबित  हो रही है। पहले बंग्लादेशी बल्लेबाजों ने टीम इंडिया के गेंदबाजों की खूब धुनाई की और स्कोर 300 के पार पहुंचा दिया। भारत ने शुरूआत जरूर सधी हुई की मगर अच्छी शुरूआत के बावजूद टीम बिखर गई। कोई भी खिलाड़ी टिक कर खेल नही सका। पूरा श्रेय बंग्लादेश के गेंदबाजों को देना चाहिए जिन्होंने न सिर्फ संतुलित गेंदबाजी की बल्कि जरूरत के मुताबिक विकेट भी निकाले। विराट कोहली तो आए और गए। कुल मिलाकर बंग्लादेश की टीम ने मौदान में अच्छा प्रदर्शन किया। क्रिकेट में हार जीत लगी रहती है। मगर भारतीय टीम के लिए यह सोचना जरूरी है कि आखिर क्यों बंग्लादेश जैसी टीम भी उनपर भारी पड़ गई। मोदी जी ने तो पहले ही कह दिया था बंग्लादेश को हलके में ना लें। हमारे खिलाड़ियों ने उनकी सुनी नही। नतीजा हार! 

बुधवार, 17 जून 2015

दुविधा में बीजेपी!

बीजेपी मुश्किल में है। अपने दो बड़े नेताओं सुषमा और वसंधरा पर लगे आरोपों का जवाब देते नही बन रहा है। ललित मोदी से रिश्तों को लेकर बीजपी कुछ भी बोलने की स्थिति में नही। प्रधानमंत्री मोदी को अपने मंत्र न खाउंगा, न खाने दूंगा के आधार पर इस मामले पर फैसला  लेना चाहिए। ललित मोदी की मदद करना न सिर्फ गैर कानूनी था बल्कि नेता अपने रसूक का इस्तेमाल कैसे करतें हैं उसका यह जीता जागता उहाहरण है। यही बीजेपी ने संसद के कितने सत्रो को सिर्फ इसलिए नही चलने दिया की भ्रष्टाचार में लिप्त उसके कई मंत्रियों का इस्तीफा दिया जाए। यूपीए में कलमाड़ी राजा, बंसल और अश्विनी कुमार सबका इस्तीफा हुआ। मगर अब बीजेपी की चुप्पी समझ में नही आ रही। सबसे ज्यादा चैंकाया प्रधानमंत्री ने जो मामले पर मौन है। मैं यकिन के साथ कह सकता हूं कि अगर बाकि मामलों पर भी जांच हो तो ऐसे मामलों की बाड़ आ जाएगी। क्योंकि ज्यादातर उच्च पदों पर बैठे लोग अपनों के लिए अपने विशेषाधिकार का गलत फायदा उठातें हैं। कई मुख्यमंत्रियों की पत्नियां तो सिर्फ टांसफर पोस्ंिटग के धंधों में लगी रही। उनके बेटों के तो कहने ही क्या। यह पूरी कहना इस हाथ ले, उस हाथ दे के इर्दगिर्द घूम रही है। क्या प्रधानमंत्री इंसाफ करेंगे? क्या सरकार ललित मोदी पर देश में मुकदमा चलाएगी? एक देश के भगोड़े और गंभीर आरोप झेल रहे देश को दूसरा देश कैसे शरण दे सकता है। ब्रिटेन की सरकार को इस बारे में सख्त संदेश देना चाहिए। आखिर क्यों सरकार ललित मोदी पर मेहरबान है? जरा पता लगाइये की नेताओं ने अपने बेटों को कैसे सेट कर रखा है। अब देखतें है कि इन दो बड़े नेताओं की छुटटी कर किसी गंभीर अपराध में लिप्त आरोपी करने के जुर्म में मुकदमा क्यों न दर्ज किया जाए। 

सोमवार, 15 जून 2015

सुषमा ने मोदी की मदद क्यों की!

सुषमा स्वराज ने ललित मोदी की मदद क्यों की। मानवीय आधार पर या किसी और आधार पर। बस यही सवाल हर कोई पूछ रहा है। सुषमा स्वाराज का कहना है कि कैंसर पीड़ित पत्नी के कैंसेंट पेपर साइन करने के लिए टैवल वीजा डाक्यूमेंट दिलाने में मदद की। मगर जब बात उनके पति और बेटी की आती है तो मामले उतना सीधा नहीं लगता जितने सामान्य तरीके से सुषमा स्वराज बता रहीं हैं। क्योंकि ललित मोदी पर गंभीर आरोप है और ईडी उन्हें तलाश रहा है। इस बात की जानकारी होने के बावजूद सुषमा ने मोदी की मदद की कांग्रेस अगर आज हमलावर है तो बीजेपी को भी उन दिनों की याद करनी चाहिए जब रेलमंत्री बंसल और कानून मंत्री अश्विनी कुमार के इस्तीफे को लेकर बीजेपी ने सड़क से संसद तक कोहराम मचा दिया। बीजेपी अध्यक्ष का ये कहना कि क्वात्रोक्कि और एंडरसन मललब बोफोर्स और भोपाल गैस कांड के आरोपियों को कांग्रेसियों ने भगाया। इस तर्क के आधार पर कल कोई यह कहने लगे की कांग्रेस की सरकार ने लाखों करोड़ों के घोटाले किये और हमने हजारों में कर लिये तो क्या गलत। दरअसल इस समस्या की जड़ में है मंत्रियों के पास मौजूद
विशेषाधिकार जो गाहे बगाहे वो अपने परिजनों और रिश्तेदारों को मदद करने के लिए इस्तेमाल में लाते हैं। प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व वाली समिति ने इनको खत्म करने की सिफारिश की थी। यूपीए इसपर फैसला नही कर पाई। क्या मोदी इस पर गौर करेंगे? दूसरा ये पूरी कहानी बीजेपी के अंदरूनी झगड़े की भी है। मसलन कांग्रेस के कार्यकाल के दौरान एक मंत्री मीडिया के जरिये दूसरे मंत्री को नीचा दिखाने में लगे रहते थे। इस पुरानी बीमारी के शिकार मोदी के मंत्री भी हैं। बहरहाल असली सच देश के सामने आना चाहिए। आप भी अपनी राय साझा करें।

रविवार, 14 जून 2015

चुनाव सुधार !

क्या आप जानतें है की भारत में अबू सलेम और दाउद इब्राहिम भी चुनाव लड़ सकतें है। ऐसा मुमकिन है। 2006 में मुख्य चुनाव आयुक्त ने यही चिंता प्रधानमंत्री के सामने रखी थी। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के आर्डर के बाद की निचली अदालत से 2 साल की सजा़ या उससे ज्यादा में सदस्यता स्वतः रदद हो जाएगी कुछ उम्मीद जगी। जो आज आप कैंडिडेट की शैक्षिक योग्यता और आर्थिक स्थिति के बारे में जान पातें है, उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने लागू किया। राजनेता संसद के जरिये इस आदेश पलटने की कोशिश भी की। मगर सुप्रीम कोर्ट नही माना। चुनाव सुधार। देश की सबसे बड़ी जरूरत। मित्रों अगर राजनीति की चाल सुधर जाए तो बाकी चीजें अपने आप दुरूस्त हो जाऐंगी। मगर इस राजनीति में बदलाव कोई लाना ही नही चाहता। ऐसा नहीं की सरकारों को मालूम नही की करना क्या है। सवाल है कि करेगा कौन? दर्जनों समितियों की सिफारिशें धूल फांक रही है। 1975 से अब तक। मगर राजनीति है की सुधरने का नाम ही नही लेती। मसलन
1975   तारकुन्डे समिति 
1990   गोस्वामी समिति
1993   एनएन वोहरा समिति
1998   इंद्रजीत गुप्ता समिति
1999   विधि आयोग की रिपोर्ट
2001  संवीधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए बनी राष्टीय समीक्षा समिति 
2004  चुनाव आयोग की सिफारिशें
2008  विधि मंत्रालय से जुड़ी स्थाई समिति की रिपोर्ट
2008  दूसरा प्रशासनिक सुधार अयोग
समितियों का खेल जबरदस्त हुआ। मगर 4 दशक बीत गए मगर सरकारों का एक ही रटारटाया बयान। सहमति बनाने के लिए प्रयासरत हैं?

अखिलेश का राजधर्म!

उत्तरप्रदेश में एक प्रत्रकार को जिंदा जलाने के आरोप अखिलेश यादव के मंत्री पर लगें हंै। पत्रकार ने मृत्यु पूर्व अपने बयान में यह साफ कर दिया की मंत्री के इशारे पर पुलिस कर्मियों ने उसे जिंदा जला दिया। मगर अब तक आरोपी मंत्री को पुलिस ने गिरफतार नही किया है। इसके पीछे वजह साफ है। रामस्वरूप वर्मा सपा की वोर्ट बैंक 
राजनीति में सटीक बैठते हैं। शाहजहांपुर में तकरीबन 1.5 लाख लोध वोट हैं। इसपर आरोपी मंत्री की पकड़ है।बस यही प्रश्न सपा सरकार को परेशान कर रहा है। आरटीओ की पीटाई करने वाला मंत्री कैलाश चैरसिया पुलिस की पकड़ से बाहर है। यूपी की पुलिस पूरी तरह से राजनीति की गिरफत में है। मतलब वोट बैंक के लालच में हमारे नेता या पार्टी किसी भी हद तक जा सकतें हैं। मगर अखिलेश यादव जैसे युवा नेता से यह उम्मीद नही थी। उनके कई मंत्रियों पर गंभीर आरोप है। मगर सब खुले में घूम रहें है। जब अखिलेश राजधर्म का पालन नही कर रहें है तो जनता वोट धर्म से उन्हें सबक सिखाएगी।

बिहार चुनाव! अवसरवाद की पराकाष्ठा

बिहार में जनता परिवार और एनडीए आमने सामने होंगे। या यूं कहिए कि अवसरवाद की राजनीति के धुरंधर जनता से विकास के नाम पर वोट मागेंगे। लालू के जंगलराज के लाफ लड़ने वाले नीतीश कुमार अचानक उनके अनुज बन गऐं हैं। दिल मिले हो या नही मगर मजबूरी ने मिलने को बाध्य कर दिया। बीजेपी के लिए बिहार का दंगल साख का सवाल है। चूंकि दिल्ली की ऐतिहासिक हार के बाद एक और हार का मतलब उससे बेहतर भला कौन जान सकता है? बीजेपी में मोदी से खार खाए कई नेता मौके का इंतजार कर रहें हैं। इसमें कोई दो राय नही की नीतीश ने बिहार में बदलाव की कोशिश की थी। मगर बीजेपी से गठबंधन टूटने के बाद वो अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे। मांझी, पासवान और कुशवाहा एनडीए के घटकदल हैं। पप्पू जुड़ने की तिकड़म पर काम कर रहें हैं। मगर बिहार का दंगल राजनीतिक दलों के साथ साथ कई नेताओं के राजनीतिक भविष्य भी तय करेगा। सवाल यह कि क्या अवसरवाद की राजनीति करने वाले नेताओं को जनता सबक सिखाएगी?

शनिवार, 13 जून 2015

बिन विचारे जो करे, सो पाछे पछताये!

बीजेपी के नेताओं का अतिउत्साह आप्रेशन म्यांमार में सरकार की किरकिरी कर गया। देश चाहे छोटा हो या बड़ा उसकी संप्रभुता उसके लिए सर्वोपरीहोती है। जब भारत में आप राज्यों के कामकाज में दखल नही दे सकते तो दूसरे देशों के बारे में सावर्जनिक टिप्पणी या यूं कहना की उनके जमीन पर जाकर उग्रवादियों पर हमला किया, किसी भी देश की संप्रभुता का मजाक बनाना है। प्रधानमंत्री कीविदेश नीति के पंचामृत मसलन संवाद, संस्कृति, सम्मान,सुरक्षा और समृद्धि के भी यह खिलाफ है। रक्षा मंत्री मनोहर परिकर ने अपने बयान से एक और भूचाल ला दिया कि आंतकियों को आतंकियों से मिटायाजाए। इन बयानों ने पाकिस्तान को बैठे बैठाये मुददा दे दिया। कुछ इसी तरह की गलती कोस्टगार्ड मामले में अलग अगल बयानों से हुई। एक तरफ मोदी सार्क देशों को साधने में लगे हैं। दुनिया में भारत की साख बड़ा रहें हैं। नतीजतन पाकिस्तान  सार्क में अलग थलग पड़ गया है। उसपर हमारे बचकाने बयान भारी पड़ रहें हैं। अब बात 56 इंच के सीने की।सीना आपका 56 का हो या 156 इंच का। क्या आप पाकिस्तान के खिलाफ इस तरह के आपरेशन को अंजाम दे सकतें हैं? मुंबई हमलों का मुख्य अरोपी जकीउर रहमान लखवी और मास्टरमाइंड हाफिज सईद खुले आम पाकिस्तान में घूम रहें है। भारत के खिलाफ आग उगल रहें है। इनके खिलाफ कोई कुछ नही करता। दाउद को पकड़कर क्यों नही लाया जाता। दूसरे देश की छोड़िये आपके श्रीनगर में आए दिन अलगाववादी भारत विरोधी गतिविधियों को हवा देने और पाकिस्तान जिन्दाबार के नारे लगाते में जुटे हैं। हम उनका क्या बिगाड़ पाए। एक एनसीटीसी तो आप राज्यों के मत के बिना बना नही सकते दूसरे देश की संप्रभुता के चीरहरण का अधिकार आपको किसने दिया। राज्यवर्धन सिंह राठौर से इसका जवाब मांगा जाना चाहिए। कहने का तात्पर्य कोई भी बयान समय पात्र और परिस्थिति को ध्यान में रखकर दिया जाए। आपका अतिउत्साह देश के शक्ति बोध को नुकसान पहुंचा रहा है। 

शुक्रवार, 12 जून 2015

दिल्ली का कूड़ा कांड!

दिल्ली को कूड़ा कूड़ा करने के लिए जिम्मेदार कौन है? आप, बीजेपी या कांग्रेस? वैसे देखा जाए तो सबसे ज्यादा जिम्मेदार कांग्रेस है। क्योंकि कांग्रेस ने जब एमसीडी का विभाजन किया तो इस बात का आंकलन नही किया की इनके राजस्व के स्रोत क्या होंगे?पिछले 8 साल में बीजेपी ने इसे भ्रष्टाचार का अड्डा बना डाला। उसके नेताओं ने इसे दुधारू गया की तरह दुहा। अब सवाल की एमसीडी की कमाई का साधन क्या है। एमसीडी का कमाई का साधन है हाउस टैक्स टोल टैक्स और विज्ञापन। ऐसे में दक्षिण दिल्ली की कमाई का मुकाबला पूर्वी दिल्ली से नही किया जा सकता। तो पूर्वी दिल्ली में यह हालात आने तय थे। तीसरा आम आदमी पार्टी ने इस समस्या को गंभीरत से नही लिया। बीजेपी औरआप इस मामले में गेंद एक दूसरे के पाले में डालते रहें। बीजेपी ने तो प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छता अभियान का भी मान नही रखा। ये वही नेता हैं जो 2 अक्टूबर को झाड़ू के साथ फोटो खिंचाने के लिए आतुर दिखे। तीनों दल सिर्फ और सिर्फ राजीनीति कर रहें हैं। हाईकोर्ट को मामले में दखल देना पड़ा। लानत है ऐसी राजनीति पर जो आम आदमी के दर्द के न समझती है न समझना चाहती। उन्हें सिर्फ राजनीति करनी है। आज आप के नेता सफाई कर रहें है। तोमर और सोमनाथ कांड से हुई किरकिरी की भरपाई की झूटी कोशिशें। बीजेपी जानबूझकर आप के लिए हर रोजनई मुश्किल खड़ी कर रही है। और आप झगड़ा सुलझाने के बजाय लड़ने को आतुर है। इन नेताओं की राजनीति और अहंकार ने जनता का कूड़ा कर दिया है। न प्रधानमंत्री टीम इंडिया के भाव का परिचय दे रहें है ना आप के नेता र्धर्य का। मुश्किल यह है की हालात आने वाले दिनों में और खराब होंगे। क्योकि यह वेतन संकट आगे भी जारी रहेगा। दिल्ली का कूड़ा कूड़ा होना तय है। आप भी अपने सुझाव अवश्य साझा करें।

सोमवार, 4 मई 2015

प्राकृतिक आपदओं से निपटने की तैयारी नाकाफी?

नेपाल में 25 अप्रेल को 7.9 तीव्रता वाले भूकंप ने तबाह कर दिया। पूरा काठमांडू जमीनदोज हो गया। कई ऐतिहासिक धरोहरों का अता पात नही।  हजारों लोग मारे गए। कई अब भी मलबे के नीचे दबे हैं। दुनिया के हाथ नेपाल की मदद में लगे है। भारत के आपरेशन मैत्री ने नेपाल को इस विपदा से निपटने में मदद की है। नेपाल में इस अपदा ने कितना जानमाल का नुकसान किया है इसका आंकलन तो बाद में होगा। मगर नेपाल को इस आपदा से बाहर निकलने में सालों लग जाऐंगे। जिस पर्यटन और इतिहास के दम पर उसकी अर्थव्यवस्था चलती थी उसको भी भारी नुकसान पहुंचा है। मगर नेपाल के हालात से भारत के लिए सिखने के लिए बहुत कुछ है। अकेले भारत में प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले नुकासन पर नजर डाली जाए तो यह सालाना 9.8 बिलियन डालर बैठता है। अकेले बाढ़ से सालाना 7.8 बिलियन डालर का नुकसान होता है। हाल ही यूएन ़द्धारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में 2010 की आपदाओं के देखते हुए प्राकृतिक आपदाओं के मद्देजर भारत को विश्व में दूसरे स्थान पर रखा है। भारत का भोगौलिक क्षेत्र का 59 फीसदी  भूभाग भूकंप के लिहाज से संवेदनशील माना जाता है। 8.5 फीसदी भूभाग चक्रवात के लिहाज से संवेदनशील है। 38 भारतीय शहर मसलन दिल्ली, कोलकाता, मुबंई, चिन्नेई, पुणे और अहमदाबाद जैसे शहर साधारण से लेकर उच्च तीव्रता वाले भूंकप क्षेत्र में आते हंै। 344 नगर भूकंप के लिहाज से अतिसंवेदशील क्षेत्र में आते है। एक आंकड़े के मुताबिक 1990 से लेकर 2006 तक 23000 लोग अपनी जान गवां चुके हैं। इसमें लातूर 1993, जबलपुर 1997, चमोली 1999,  भुज 2001, सुमात्रा 2004, जिसके बाद सुनामी आई और 2005 में आया जम्मू कष्मीर में आया भूकंप शामिल हैं। इसमें अकेले गुजरात के भुज में आए भुकंप में 13800 लोगों की मौत हो गई थी। आज पूरे विश्व में कहीं कोई ऐसी प्रणाली नही है जो भूकंप से जुड़ी भविष्यवाणी कर सके लिहाजा  सावधानी ही सबसे बड़ा बचाव है। प्राकृतिक आपदा और मानवजनित आपदा से निपटने के लिए केवल बचाव ही एक मात्र रास्ता है। इसी बचाव कार्य को ठोस स्वरूप प्रदान करने के लिए 2005 मे एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून 2005 अस्तित्व में आया। 2006 में इस कानून के तहत राष्ट्रीय आपदा  प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया। प्रधानमंत्री को इस प्राधिकरण का केन्द्र के स्तर पर अध्यक्ष बनाया गया है, राज्यों के स्तर पर मुख्यमंत्री और जिले के स्तर पर जिलाधिकारी को बनाया गया है। आज हर साल बाढ़, सूखे, भूकंप और  जमीन का खिसकना जैसी आपदाऐं आम हैं। जाहिर तौर पर इन्हें रोका नही जा सकता मगर हमारी तैयारियां इसमें होने वाले जानमाल को कम कर सकती है। अभी तक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण मानवजनित आपदा और दैवीय आपदा को लेकर 26 दिशानिर्देश जारी कर चुका है। इसके अलावा राज्य सरकारों को इन स्थितियों ने निपटने के लिए सुझाव भी दिए गए हैं, मगर राज्य इसपर गंभीर नही दिखाई देते। देष में 2009 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन नीति सामने आई जिसमें आपदाओं से निपटने की खाका तैयार किया गया। साथ ही केन्द्र के स्तर पर 10 बटालियन का गठन राष्ट्रीय आपदा रिस्पोंस फोर्स के तौर पर किया गया है। इसी तरह राज्यों और जिलास्तर में भी रिस्पोंस गठन का प्रस्ताव है मगर इसे अमलीजामा पहनाना राज्यों के हाथ में है। भारत को भूकंप के लिहाज से चार क्षेत्रों में बांटा गया है। यह जोन 2 से लेकर जोन 5 तक है। जहाॅं जोन 5 को भूकंप के लिहाज से अतिसंवेदनशील माना जाता है वहीं जोन  2 को निम्न संवेदनषील के तौर पर देखा जाता है। उदाहरण के तौर पर पूर्वोतर के राज्यों के साथ जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड, हिमांचल प्रदेश, और पश्चिमी बिहार के कुछ क्षेत्र जोन पांच में आते हैं। जोन चार में जम्मू कश्मीर, हिमांचल और उत्तराखंड के बाकी बचे क्षेत्र के साथ दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कुछ भाग आते हैं। इतिहास गवाह है कि पिछले 100 सालों में इस देष को चार महाभयंकर भूकंप से दो चार होना पड़ा। इसमें कांगड़ा 1905,
 बिहार-नेपाल 1934, असम 1950, और उत्तरकाषी 1991 शामिल है। इतनी बड़ी आपदाओं को झेलने के बावजूद हमारी कार्यषैली में कोई खास बदलाव नही आत दिखाई देता। हमेष की ही तरह में घटना हो जाने के बाद नींद से जागते है और कुछ दिन बाद भूल जाते हैं। आज सबसे ज्यादा खतरा है उन गगनचुंबी इमारतों को है जिन्हें निश्चित निर्माण मानकों के आधार पर नही बनाया गया है। कुछ विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि घरों के भूकंप झेलने  की क्षमता का खुलासा हो जाए तो लोगों में दहशत फैल जाएगी। अकेले देश की राजधानी में भारी तादाद में ऐसी इमारतें है जो 6 से 6.5 तीव्रता वाले भूकंप के दौरान ताष के पत्तों की तरह जमीन पर बिखर जाऐंगी। ऐसी स्थिति में हमारे नीतिनिर्माताओं के पास क्या जवाब होगा। सिर्फ हर कोई एक दूसरे पर
दोषारोपण होगा। प्राथमिक तौर पर बिल्डिंग निमार्ण काूनन के प्रावधन तय करना और उसे क्रियान्वित करना राज्यों का दायित्व है मगर केन्द्र सरकार ने भी राज्यों के इस विषय में आवश्यक दिशानिर्देष जारी कर रखें हैं। यह बात दिगर है कि यह दिशानिर्देषों पर राज्यों ने आंख मूंद रखी है। यहां तक खुद केन्द्र सरकार की  जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय नवीकरण मिषन, इंदिरा आवास योजना और राजीव आवास योजना में भी इस बात का ख्याल नही रखा गया है। देष में आने वाली प्राकृतिक आपदाऐं न सिर्फ जानमाल का नुकसान करती हैं बल्कि यह अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख देती हैं। पीड़ितों को सालों साल मुआवजे का इंतजार करना पड़ता है। अपना सब कुछ गवां चुके परिवारों की किस्मत में सिर्फ और सिर्फ इंतजार रह जाता है। जो मुआवजा मिलता भी है उसकी रकम भी ना के बराबर होती है। अभी कुल साल पहले जापान में आएं भयंकर भूकंप के बाद आई सुनामी ने वहां भारी तबाही मचाई। यहां तक की जापान के फूकुशिमा परमाणु संयंत्र को भारी नुकसान पहंुचा। कहा यह भी जाता है कि अगर जापान ने अपने यहां हो रहे निर्माण कार्यों में कानून का प्रभावी क्रियान्वयन नही किया होता तो तबाही का मंजर कई गुना ज्यादा होता। लिहाजा हमारी सरकारों के लिए यह जरूरी है कि हम अपने बिल्डिंग बाइलौज के प्रावधानों को प्रभावी तरह से लागू करें। हाल ही में ऐसे कई अध्यन सामने आऐं है जिसमें यह साफ कहा गया है की साधारण तीव्रता वाला भूकंप भी राजधानी दिल्ली में तबाही मचा सकता है। क्योंकि सबसे ज्यादा जनहानी कमजोर इमारतों के ढहने से होती है। साथ ही राज्यों और जिला स्तर में ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए पर्याप्त तैयारी की आवश्यकता है। लोगों में ऐसी परिस्थिति से निपटनें के लिए
जागरूता फैलाई जाए। मसलन भूकंप आता है तो हमें क्या करना चाहिए? बाढ़ आती है तो हमें अपने व अपने परिवार की सुरक्षा कैसे करनी होगी? राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने इसके लिए कुछ दिशानिर्देष बनाए है मगर एनडीएमए के बेवसाइट से निकलकर आम व्यक्ति तक उनकी पहुंच हो। आज जरूरत है कि हर राज्य अपनी आपदा प्रबंधन योजना को तैयार करें। साथ ही केन्द्र सरकार को चाहिए इस काम में राज्यों की क्षमता बड़ाने के लिए उसे आर्थिक मदद मुहैया करवाए। राज्य खुद भी आपदा प्रबंधन को गंभीरत से लें। खासकर वो राज्य जो सिस्मिक जोन 4 और 5 में आते हैं।नेपाल इस त्रासदी से निपटने के लिए बिलकुल भी तैयार नही था। मगर भारत के हालात भी इससे बेहतर नहीं?

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

किसान की मौत का जिम्मेदार कौन?

जंतर मंतर में गजेन्द्र ने अपनी आवाज़ को खामोश कर लिया। मगर सवाल अब भी वही है कि उसकी मौत का जिम्मेदार कौन है? रैली के आयोजनकर्ता अर्थात आम आदमी पार्टी, या वहां मौजूद दिल्ली पुलिस के जवान। हमेशा की तरह जांच बैठा दी जाती है। मैं वहां पर कल तकरीबन 3 घंटे रहा। इस दौरान कई प्रत्यक्षदर्शियों से बातचीत हुई। प्रथम दृष्टया दिल्ली पुलिस बेहद संवेदनहीन है। उसने किसान को बचाने की कोशिश नही की। दूसरा आम आदर्मी पार्टी के नताओं की भाषणबाजी जो इस घटनाक्रम के बाद भी जारी रही। वैसे भी इस हत्या के लिए जिम्मेदारी तो तय की जानी चाहिए। दिल्ली पुलिस की संवेदनहीनता का एक उदाहरण देखिए। उसके आला अधिकारी शाम 7ः20 मिनट पर पहुंचते है। 5 मिनट घटनास्थल को देखते हैं। इस दौरान एक बड़ा अधिकारी संसद मार्ग थाने में फोन कर कहता है। अरे भई एक एसआई की  यहां पर डयूटी लगा दो। पुलिस की मौजूदगी कमसे से कम दिखनी तो चाहिए। इससे बड़ा निक्कमापन क्या हो सकता है? आप नेताओं को  भाषण देने और मंच की प्रथम पंक्ति में बैठने का बड़ा शौक है। हमेशा कार्यकताओं से लैस पार्टी के कार्यकताओं ने गजेन्द्र को बचाने की जहमत क्यों नही उठाई? गजेन्द्र की मौत के बात भी भाषणबाजी का दौर क्यों चलता रहा? तीसरा बड़ा सवाल बीजेपी नेताओं से जो आप को जिम्मेदार  ठहरा रहें थे। गजेन्द्र राजस्थान से था। फसल बर्बाद होने के चलते बेहद हताशा था। तो सवाल बीजेपी की वसुंधरा राजे सरकार से भी पूछना चाहिए? प्रधानमंत्री को इस घटना से दुख पहुंचा। मगर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वह यह बताने की हालात में नही होंगे कि आगे किसी और किसान को गजेन्द्र नही बनने देंगे। चुनावी वादे करना आसान है उसे निभाना उतना मुश्किल। मोदी जी के राज में भी हजारों किसान मौत को गले लगा चुके हैं। चैथा सवाल कांग्रेस के युवराज  राहुल गांधी से जो पार्टी किसान हितैषी होन का स्वांग भरती है। अगर ऐसा तो देश में 2004 से 2014 तक लाखों किसानों ने आत्महत्या क्यों ? सबसे ज्यादा आत्महत्याऐं महाराष्ट में विदर्भ के किसानों ने की? यहां राज्य में भी कांग्रेस एनसीपी गठबंधन की सरकार थी। देश के कृषि मंत्री शरद पवार थे। कभी राहुल गांधी ने यह पूछने की जहमत क्यों नही उठाई कि किसान इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्या क्यों कर रहे है? सबसे बड़ी बात लोकसभा में हमारे कुल माननीयों में से 32 फीसदी सांसद खेती से ताल्लुख रखतें हैं? यानि उनका पेशा किसानी है। क्या संसद, सरकार और नीति निर्माता गजेन्द्र की मौत के कारणों का समाधान कर पाऐंगे? सोचिए कितना दुर्भाग्य है कि छोटी से छोटी वस्तु का बीमा हो जाता है मगर किसान की  फसल का बीमा नही हो सकता। कुल मिलाकर गजेन्द्र की मौत के लिए हम सब जिम्मेदार है। बंद करिए यह गंदी राजनीति। ऐसी नीतियां बनाइये ताकि कोई और किसान गजेन्द्र न बन पाए?

शनिवार, 14 मार्च 2015

जासूस कौन?

कांग्रेसियों का पारा गरम है। उनको शक है युवराज की जासूसी हो रही है। एक एसआई ने राहुल की बाल का रंग, आंख का रंग, कद काठी किससे मिलते हैं कहां जाते है जैसे जानकारी जुटाने की कोशिश की। दिल्ली पुलिस इस रूटीन जांच से जोड़कर बता रही है। मगर कांग्रेसियों को शक है कि यह जासूसी हो सकती है। उनकी शंका भी वाजिब है क्योंकि परेशान बीजेपी की के आला नेता भी हैं उनकों भी नींद नही आती है कि कहीं उनकी भी तो जासूसी नही हो रही है। अब जवाब गृहमंत्रालय को देना है। जासूसी है या कुछ और। माननीय राजनाथ जी। जानकारी जुटाइये। सोमवार को राहुल बाबा के चाटुकार सदन में जमकर उधम मचाऐंगे।

अन्नदाता सुखी भवः

परम श्रद्वेय। किसानों को लेकर चर्चा बहुत हुई। अब जरूरत है उनके विकास के लिए कुछ जरूरी उपाय करने की। हमें ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा कि किसान को समय पर सस्ता कर्ज, नवीनतम जानकारी, खाद, बीज, पानी, उवर्रक और उसके उत्पाद का उचित मूल्य मिले। साथ ही बजट में प्रस्तावित अटल पेंशन योजना, सुरक्षा बीमा योजना और जीवन ज्योति बीमा योजना जैसे महत्वपूर्ण योजनाओं से इस समुदाय को जोड़ा जाए। कुल मिलाकर खेती को लाभकारी कैसे बनाया जाए? इस प्रश्न का उत्तर तलाशना है?

भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौति उसकी खाद्य सुरक्षा है। एनएसएसओ के मुताबिक 41 फीसदी किसान विकल्प मिलने पर किसानी छोड़ना चाहता है। 1981 से लेकर 2001 तक 81 लाख किसान किसानी छोड़ चुके हैं। आज भी छोड़ रहें हैं। देश का 90 फीसदी किसान 2 एकड़ से कम जमीन में खेती कर रहा है। 1997 से लेकर अब तक 250000 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुकें हैं। आज भी कर रहें हैं। किसान अपने परिवार का भरण पोषम करने में असमर्थ है। आपके एक भारत श्रेष्ठ भारत बनाने के मिशन की शुरूआत इस महान कार्य से होनी चाहिए।

भारत में विश्व की 4 फीसदी जल उपल्ब्धता है, 2.3 फीसदी जमीन है मगर जनसंख्या के मामले में हमारी हिस्सेादारी 16 फीसदी के आसपास है। यानि खेती में जबरदस्त दबाव है। तमाम उपायों के बावजूद 1980-81 में 185 मिलीयन हेक्टेयर खेती योग्य भूमि आज घटकर 183 हेक्टेयर हो खेती योग्य भूमि को संरक्षित करना। जमीनी पानी के अंधाधुंध दोहन पर रोक लगाना। भूजल का स्तर लगातार गिर रहा है जबकि देष में 60 फीसदी सिंचाई और 80 फीसदी पीने के लिए हम भूजल का उपयोग करते है। पंजाब के दक्षिण पश्चिम प्रांत में जहां भूजल स्तर 80 फुट था अब वह 30 फुट तक नीचे आ गया है। इतना ही नही उवर्रकों के अंधाुधंध प्रयोग से पानी में आसेर्निक की मात्रा के बढ़ने से न सिर्फ जमीन की उर्वरा श्क्ति प्रभावित हुई है बल्कि मानव स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। आपने जो सुझाव दिया है पर ड्राप, मोर क्राप को जमीन पर लागू करना होगा। कुषि विज्ञान केन्द्रांे के अनुसंधान को किसानों के खेत तक ले जाना होगा। साथ ही यह निवेदन कि देश के कृषि विज्ञान केन्द्रों का आडिट किया जाए।

हमें अनाज के रखरखाव की व्यवस्था में बदलाव लाना चाहिए। हमें ग्रामीण स्तर पर भंडारण की व्यवस्था करनी चाहिए। ग्राम सभा को इसके रखरखाव की जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। इससे बर्बादी भी रूकेगी। परिवहन लागत भी घटेगी और जरूरतमंदों तक समय पर राशन पहुंचने के साथ-साथ भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी।

माननीय जब आप 1.25 करोड़ आबादी की बात करें तो 50 करोड़ पशुधन के बारे में भी अवश्य जिक्र करें। किसान के लिए एक निर्धारित मासिक रकम की व्यवस्था, 2007 में आई राष्ट्रीय किसान नीति का क्रियान्वयन, न्यूनतम समर्थन मूल्य के आंकलन की पद्वति में बदलाव, किसान की सीधे बाजार तक पहुंच और इस क्षेत्र से जुड़ी नवीनतम जानकारी तक किसान की पहुंच।

भारत में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता विकसित देशों के मुकाबले 3 गुना कम हैं। भारत में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 1127 किलोग्राम है जबकि अमेरिका में 2825 और चीन में 4455 किलोग्राम है। चावल की प्रति हेक्टयर उत्पादकता भारत में 3124 किलोग्राम जबकि अमेरिका और चीन में यह 7694 और 6265 किलोग्राम है। इसे कैसे बढ़ाया जाए इस पर विचार हो?

हमारा एनपीके का अनुपात असंतुलित है। आदर्श अनुपात 4ः2ः1 होना चाहिए। दूसरी तरफ हम प्रति हेक्टेयर उवर्रक का इस्तेमाल कम करतें हैं। भारत में प्रति हेक्टेयर जमीन पर 117.07 किलोग्राम उवर्रकेां का इस्तेमाल होता है जबकि चीन में यह मात्रा 289.10, इजिप्ट में 555.10 और बंग्लादेश में 197.6 किलोग्राम है। भारत के उवर्रकों के इस्तेमाल का अुनपात एक आंकड़े के मुताबिक भारत में 2001 से 2008 तक उत्पादन 8.37 फीसदी बढ़ा, उत्पादकता 6.92 मगर उवर्रकों में मिलने वाली सब्सिडी का बिल 214 फीसदी बड़ गया।

किसानों की खेती में हुए नुकसान के गणना का तरीका दशकों पुराना है। इसमें बदलाव लाना चाहिए। किसानों को बड़े पैमाने पर क्राप इंश्योरेंश स्कीम का फायदा मिलना चाहिए।