सोमवार, 29 दिसंबर 2014

मेरा गांव, मेरा देश

एक ऐसा गांव जहां गरीबी लोगों को तिल तिल मार रही थी। ऐक ऐसा गांव जहां एक शराब की बोतल में बेटी की शादी का समझौता हो जाता था। जहां सूखा किसानों की किस्मत के साथ आंख मिचैली खेलता था। वह गांव आज देश और दुनिया के लिए एक प्रयोगशाल बन गया है। यहां सबकुछ बदल चुका है। इस गांव में 1995 में प्रति व्यक्ति आय महज़ 830 रूपये थी मगर आज यह 30 हजार रूपये से ज्यादा पहंुच चुकी है। शराब और तंबाकू इस गांव में पूर्ण रूप से निषेध है। ज्वार बाजरा प्याज़ और आलू की खेती यहां के किसानों की आजीविका को मजबूत कर रही है। मजदूरों का दैनिक वेतन यहां 230 रूपये प्रतिदिन से ज्यादा है। 235 परिवारों वाले इस गांव का नाम है हिबड़े बाजार। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले का यह गांव आज दूसरे गांवों के लिए किसी प्रेरणा से कम नही। यह चमत्कार किसी सरकार के प्रयास का नतीजा नही बल्कि गांव के लोगों की जनभागीदारी का परिणाम है। गांव के लोगों की सामूहिक मेहनत और संकल्प ने इस गांव की तस्वीर और तकदीर बदल कर रख दी। हिबड़े बाजार एकेला आदर्श ग्राम नहीं है। तेलांगाना का गंगादेवीपल्ली गांव भी आदर्श गांवों के मानदंडों पर खरा उतरता है। हाल में 8 देशों के 25 प्रतिनिधि इस गांव की कायपलट के लिए किए गए प्रयासों से वाकिफ होन इस गांव पहुंचे थे। यानि जब यह गांव जनभागीदारी के मंत्र के महव्वता समझकर बदलाव ला सकतें है तो देश के 6 लाख गांवों को आदर्श ग्राम क्यों नही बनाया जा सकता। कुछ ऐसी ही पहल का नाम है सांसद आदर्श ग्राम योजना। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के हर गांव को माॅडल विलेज बनाना चाहतें है। प्रधानमंत्री के शब्दों में हर गांव में सुविधाऐं शहरों वाली  हों, मगर आत्मा गांव की हो। इसलिए हर सांसद को एक गांव गोद लेकर उसके सामूहिक विकास का जिम्मा उठाना होगा। अब सवाल यह उठता है कि बेताहाशा स्कीमों वाले भारत में यह योजना क्या नया चमत्कार करेगी? खासकर तब जब घर मुहैया कराने से लेकर पीने के पानी और शौचालय तक की स्कीम जारी है। मसलन भारत में ग्रामीण आवास के लिए इंदिरा आवास योजना है। मगर आज भी बड़ी आबादी खुले आसमान में जीवन बीताने के लिए मजबूर हैं। इस तरह 250 से ज्यादा योजनाऐं देश के विकास के लिए लागू है। मगर क्रियान्वयन को लेकर हमेशा सवाल खड़े होते रहें। लाखों करोड़ों खर्च करने के बावजूद हमारे गांव पीछे क्यों है? शिक्षा, स्वास्थ, पेयजल, शौचालय, आजीविका मिशन, रोजगार, आवास, बिजली और ग्रामीण सड़क से जुड़ी योजनाऐं सालों सालों से चली आ रही है। हर साल इन मदों में बजट बढ़ता गया मगर सुविधाओं में कोई बड़ा बदलाव नही आया। सरकारों ने भी दिल खोल के इन योजनाओं में पैसे लुटाया और सार्वजनिक मंचों से वाहवाही बटोरी मगर जमीन में बड़े बदलाव का सिर्फ इंतजार है। इसका एक मुख्य कारण यह रहा की देश में आउटले पर ध्यान देता जाता रहा गया जो की जरूरी भी था मगर आउटकम क्या रहा इससे नजरें चुरा ली गई। अब सबकी नजरें सांसद आदर्श ग्राम योजना पर है। सबसे पहले इस योजना का कोई बजट आवंटन नही है। यह पहले से चली आ रही योजनाओं के बेहतर परिणामों के लिए जनभागीदारी को बढ़ावा देने जैसे प्रयोगों के तेजी से लागू कराने से जुड़ी योजना है। पहले जिन दो गावों का उदाहरण दिया गया है वह भी जनभागीदारी के चलते आज आदर्श बनें है। मगर सासंदों का रिकार्ड विकास कार्यो की देखरेख को लेकर खराब रहा है। यूपीए सरकार के दौरान केन्द्रीय प्रायोजित योजनाओं के लेकर एक जिला स्तर पर निगरानी व्यवस्था बनाई गयी जिसका अध्यक्ष सांसद को बनाया गया। बाद में जब रिपोर्ट तैयार हुई तो मालूम चला की ज्यादातर माननीयों ने बैठक में हिस्सा ही नही लिया और जिन्होंन तिमाही बैठकों में हिस्सा लिया वह इस बात का रोना लेकर बैठे गए की उनके सुझावों को जिलाधिकारी तवज्जों नही देते। ऐसे में अगर सांसद आदर्श ग्राम योजना को लेकर संशय है तो उसके कारण है। इतिहास है और भविष्य बदलने के लिए हमें नई पहल का स्वागत करना होगा। इस योजना की सफलता 8 मानदंडों पर मापी जाएगी। मसलन व्यक्ति विकास, मानव विकास, सामाजिक विकास, आर्थिक विकास, पर्यायवरण का विकास, बुनियादी सुविधाऐं को मुहैया कराना, सामाजिक सुरक्षा और बेहतर प्रशासन। एक आर्दश गांव में यह खूबिया देखने को मिलेंगी। हम सब इस बात को जानतें हैं कि यह यात्रा बेहद लंबी है। क्योंकि 6 लाख गांवों को आदर्श बनाना एक बड़ी चुनौति है। मगर इस योजना के मुताबिक हर सांसद को 2024 तक 5 गांवों को आदर्श ग्राम बनाना है। इस लिहाज़ से 2019 तक 2500 गांव आदर्श गांव बनेंगे। मगर भारत जैसे देश में सफलता का लक्ष्य हमेशा सुखदायी नही रहा है। इसका प्रमाण है राजीव गांधी का वह बयान जिसमें 1 रूपये में से सिर्फ 15 पैसे ही जरूरत मंदों तक पहुंच पातें है। इस एक रूपये को जरूरत मंदों तक पहुंचाने का खर्च भी इससे जोड़ा जाए तो लागत 4.50 रूपया आती है। ऐसे में आज भी ग्रामीण योजनाओं से जुड़ी धनराशी का बड़ा भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे में अगर जनभागीदारी के प्रोत्साहित करने का प्रयास हो रहा है तो सफलता को लेकर अपेक्षा करना जायज़ है। क्योंकि भारत की समस्यओं का हल सरकारों प्रशासन, पंचायत या नगरपालिकाओं के भरोसे नही छोड़ा जा सकता। एक गांव का कायाकल्प तभी संभव है जब लोग बदलाव को लेकर उत्साहित हों। एक गांव तभी आदर्श बन सकता हों जब लोग एक दूसरे के सुख दुख  में बराबर के भागीदार हों। मगर भारत जैसे देश में यह जिम्मेदारी और जवाबदेही केवल सांसदों तक समिति नही रहनी चाहिए। सासंदों से होती हुई यह विधायकों तक और जिला पंचायत से क्षेत्र पंचायत तक पहुंचनी चाहिए। इसके लिए अगर भारत सरकार को ऐसे गांवों को प्रोत्साहित करना पड़े तो तो सरकार को दिल खोल कर करना चाहिए। भारत में व्यवहारिक दृष्टिकोण का अभाव है। एक योजना जो दिल्ली में बनती है उसे देश भर में थोप दिया जाता है। बिना यह जानें की देसरे राज्य की जरूरतें क्या हैं। भूगोलिक परिस्थियां क्या हैं। एक उदाहारण के जरियें हम आसानी से इस व्यवस्था को समझा सकतें है। भारत में गरीबी हटाओं का नारे से कौर वाकिफ नही। समय से साथ सरकार बदली, नारे बदलें मगर गरीबी नही बदलीं। सरकार की गरीब उन्मूल और अपनाए गए मानदंडों से इसे आसानी से समझा जा सकता है। हो सकता है गरीबी का पैमाना तय करने के लिए हमें किसी गणना की जरूरत हो। मगर गणना व्यवहारिक नही तो नतीजों के बजाय निराशा हाथ लगती है। इस देश में गरीबी मापने का मानदंड ले लिजिए। जो प्रतिदिन अपने दिनचर्या के लिए शहर में 32 रूपया खर्च और गांव में 26 रूपये खर्च कर सकता है। वह गरबी नही है। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक एक दिन में एक आदमी प्रतिदिन अगर 5.50 रूपये दाल पर,1.02 रूपये चावल रोटी पर, 2.33 रूपये दूध पर, 1.55 रूपये तेल पर, 1.95 रूपये साग सब्जी पर, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्य खाद्य पदार्थो पर, 3.75 पैसे ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्वस्थ्य जीवन यापन कर सकता है। साथ में एक व्यक्ति अगर 49.10 रूपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नही कहा जाएगा। योजना आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवाओं पर 39.50 रूपये प्रतिदिन खर्च करके आप स्वस्थ्य रह सकते हैं।षिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च कर आप षिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। और आप महिनेवार 61.30 रूपये और 9.6 रूपये चप्पल और 28.80 रूपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं हैं। यह सोच ना तो गरीबी मिटा सकती है और न ही किसी का विकास कर सकती है। इसलिए केवल जनभागीदारी के सहारे योजनाओं के शत प्रतिशत कियान्वयन से हम एक आदर्श गांव की स्थापना कर सकतें है। आने वाले दिनों में हो सकता है कि यह योजना एक स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा को जन्म दें। क्योंकि एक आदर्श गांव का असर उसके आसपास के क्षेत्र में अवश्य पड़ेगा। इस योजना के प्रति सोच भी इसी तरह की प्रतिस्पार्धा बढ़ाने को लेकर है। जरा सोचिए अगर गांव बदलने की सोच और संकल्प की लहर दौड़ने लगी तो हम गांवों के हालात में सध्ुाार ला सकतें है। इसलिए सांसदों की जिम्मेदारी तो बढ़ी ही है, मगर जनभागीदारी को लेकर भाव विकसित करने की आज नितांत आवश्यता है। साथ ही समय- समय पर विकास कार्यो के नतीजों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। योजना के साथ ही सरकार को यहां सबसे ज्यादा ध्यान कृषि क्षेत्र में देने की जरूरत है। चूंकि आर्थिक विकास के लिए जरूरी है कि किसान की आजीविका का संसधान खेती को मजबूत किया जाए। जब हम सब क्षेत्रों में समान रूप से कार्य करेंगे तब जाकर एक आदर्श भारत के निमार्ण का सपना साकार होगा।