बुधवार, 28 सितंबर 2011

रेल सुरक्षा और आधुनिकीकरण

रेलवे ने 10वीं योजना में कुल 84 हजार करोड़ रूपये खर्च किए थे। जबकि ग्यारहवी पंचवर्षिय योजना में 2 लाख 51 हजार रूपये खर्च करने का कार्ययोजना थी। इसके लिए रेल संशोधन विधेयक 2008 में पारित हो चुका है। एनएचएआई की तर्ज पर यह विधेयक के सहारे रेलवे जरूरत के हिसाब से जमीन का अधिग्रहण कर सकता है। आज रेलों में ग्लोबल पोजिश्निंग सिस्टम के साथ ही इलेक्ट्रानिक डिस्पले बोर्ड लगाने की बात कही जा रही है जबकि उसकी बजट होटल परियोजना खटाई में पड़ गई है।
पब्लिक एकांट कमिटि की रिपेार्ट के मुताबिक रेलवे की नई रेल लाइन परियोजना को पूरा होने में लगभग 38 साल लगेंगे जबकि गेज कनवर्जन के लिए 15 साल का समय चाहिए।


रेलवे सुरक्षा

बीते 10 सालों में तकरीबन 2000 घटनाओं में डेढ हजार से ज्यादा लोग मारे गए। इनमें 44 फीसदी हादसे मानवीय भूल का कारण हुए हैं। रेलव में आज सुरक्षा के लिहाज से 76000 जगह रिक्त पड़ी हैं। साथी ही 13000 से ज्यादा भर्ती लोकोमोटिव पायलट की करनी हैं। बहरहाल 2003 में रेलवे ने यात्रियों की सुरक्षा के लिए 17000 करोड़ रूपये की एक नीधि बनाई गई थी। मगर आज रेलवे के पास धन का भारी टोटा है। विज़न 2020 में रेल हादसों को जीरो टोलरेन्स की बात करने वाले रेलवे ने रेल सुरक्षा के लिए बनाई गई खन्ना समिति की ज्यादातर सिफारिशें स्वीकार तो की मगर धन की कमीं के चलते उसे लागू नही कर पाया।  


पब्लिक प्राईवेट पाटर्नशिप

रेलवे की लगभग 43 हजार हेक्टेयर खाली पड़ी  जमीन का व्यवसायिक इस्तेमाल करने की प्लानिंग चल रही है। इसके अलावा मुसाफिरों की बेहतर सुविधा, फे्रट टर्मिनल, लोजिस्टिक पार्क और बजट होटल इत्यादी की बात कही जा रही है। यूं तो रेलवे में नई रेल लाइन योजनाओं में रूटों के विद्युतिकरण और गेज परिवर्तन के क्षेत्र में अच्छी प्रगति हुई है। मगर अभी रेलवे को एक लम्बा सफर कम करना है। लगभग 2 करोड़ यात्री रोजाना रेल से सफर करता है। लिहाजा उसकी सुरक्षा से समझौता नही किया जा सकता। आज रेलवे का मुनाफा तो बड़ रहा है मगर बुनियादी मोर्चे में उसके प्रदर्शन में गिरावट आई है।


 कुछ जरूरी बातें
पुराने हुए पुल की संख्या 127768 पुल
51000 पुल 100 साल से भी ज्यादा पुराने।
63327 किलोमीटर ट्रको का लम्बा रूट
प्रतिदिन 18371 ट्रेने दौड़ती है।
2 करोड़ लोग रोजाना सफर करते है। 20 लाख टन माल ढुलाई होती है।
रेलव के समाने सवाल
क्या बयानों में सपने ज्यादा जमीन में हकीकत कम दिखाई देती है?
हाई स्पीड ट्रेन का का सपना कब पूरा होगा?
भारत में सबसे ज्यादा तेज ट्रेन की रफतार 150 से 160 किलोमीटर है।
डेडीकेटेड फ्रेट कोरिडोर योजना नही हो पायेगी 11वीं पंचवर्षिय योजना में पूरी।
विज़न 2020 कहीं किताबों तक सीमित न रह जाए। अगले 8 सालों में रेलवे को अपने काम की रफतार बढ़ानी होगी।


बंटता समाज

दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र में सदभाव क्या आज दूर की कौड़ी है। गंाधी गौतम के अहिंसा और भाइचारे की सीख के आज कोई मायने नही। आज धार्मिक कट्टरपंथ, क्षेत्रीयवाद और जातिवाद  क्यों हवी हो रहा है। समाज आखिर क्यों बंट रहा है। जिस सदभाव को शस्त्र बनाकर पूर्व प्रधानमंत्री स्व राजीव गांधी ने देश में आपसी रिश्तो को मजबूत बनाने की पहल की थी आज वो बिखरता क्यों बिखरता नजर आ रहा है। जम्मू कष्मीर की समस्या महज जमीनी विवाद है या कुछ और। कहां है सदभाव का वह रूप जिसने अशांत पंजाब की रौनक को फिर से लौटा दिया। इतिहास का महत्वपूर्ण समझौता राजीव गांधी और संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच हुआ।कहां है सदभाव का वह रूप जिसने पूर्वोतर की समस्या के समाधान का रास्ता प्रशस्त किया। आज हर देशभक्त को यह सवाल खाए जा रहे है। जवाब मिलता नजर नहीं आ रहा है। जवाब सरकार के पास भी नही है। अगर होता तो जम्मू के हालात इस कदर नही बिगड़ते। भ्रष्टाचार और महंगाई से देश नही कर्राहा रहा होता। ऐसा नहीं की समाधान की कमी है। असली बात यह है कि हर कोई इसके लिए राजनीतिक नफे नुकसान का आंकलन करता है। हर कोई इसी दिशा में सोचता है कि फलां करने से उसकी राजनीतिक चमक बढ़ने की कितनी गुजाइष है।फिर क्यों कोई इसके समाधान की सोचे। आज  सदभाव आपसी भाईचारा सिर्फ किताबी बातें हैं। यह भावना आज भी हमारे बीच में है मगर केवल आदर्शों में। सही मायने में इसकी अहमियत आज कोई नही समझता है।


जापान करेगा भारत की मदद


जपान से सबसे अधिक सरकारी विकास सहायता  प्राप्त करने वाल देश
बना भारत। 
बुनियादी ढांचे के निर्माण में मदद। 
6 बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए कर्ज।
कुल 10,535 करोड़ का कर्ज।
दिल्ली मेट्रो के दूसरे चरण के लिए 1,648 करोड़ रूपये।
कोलकाता ईस्ट-वेस्ट मेट्रो के दूसरे चरण को 1,146 करोड़ रूपये।
डेडीकेटेड फ्रेट कारीडोर के लिए 4,442 करोड़ का कर्ज।
ओडीसा की रेंगाली सिंचाई परियोजना को 1,50 करोड़।
263.8 करोड़ सिक्किम की वनीकरण परियोजना के लिए।
इसके साथ ही भारत को जापान से मिलने वाली कुल सहायता 155840 करोड़ हो जाएगी। 


शनिवार, 24 सितंबर 2011

संयुक्त राष्ट्र और भारत


न्यूयार्क में हो रहे संयुक्त राष्ट महसभा के 66वें अधिवेशन पर दुनिया की नजरें गड़ी होंगी। यह अधिवेशन ऐसे समय में हो रहा है जब दुनिया भर में वित्तिय संकट, आतंकवाद मध्यपूर्व में अशांति जैसे मुददे चिंता का सबब बने हुए है। अपने न्यूयार्क दौरे से पहले प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह ने यह साफ कर दिया की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार उनके एजेंडे में सबसे उपर है। दुनिया ऐसा संयुक्त राष्ट्र देखना चाहती है जो तटस्थ विश्वसनीय और प्रभावी हो। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में  स्थाई सदस्यता की दौड़ में भारत के अलावा जर्मनी, जापान और दक्षिण अफ्रीका सबसे आगे है। वर्तमान में 19 साल के अंतराल के बाद भारत संयुक्त राष्ट्र का अस्थाई सदस्य है। इस अधिवेशन में आतंकवाद के खिलाफ साझा कारवाई की जरूरत, वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने की लिए व्यापक रणनीति पर विचार पर चर्चा सबसे उपर है। बैठक में खाड़ी, उत्तरी अफ्रिका और पश्चिमी एशिया में हो रही भारी उथल पुथल पर भी चर्चा की जाएगी। इधर बैठक से इतर प्रधानमंत्री ईरान, दक्षिण सूडान और श्रीलंकाई राष्ट्रपतियों के अलावा नेपाल और जापान के प्रधानमंत्री से भी मुलाकात करेंगे।

प्राकृतिक आपदओं से कैसे निपटेंगे हम?

हाल ही में सिक्किम में आए 6.9 तीव्रता वाले भूकंप से भारी जानमाल का नुकसान हुआ। 100 से ज्यादा लोगों को यह भूकंप लील गया, कई लापता है और सैकड़ों घायल है। तकरीबन इस आपदा के चलते 1 लाख करोड के नुकसान का अनुमान है। हाल ही यूएन द्धारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में 2010 की आपदाओं के देखते हुए प्राकृतिक आपदाओं के मददेजर विश्व में दूसरे स्थान पर रखा है। भारत की भोगौलिक क्षेत्र का 59 फीसदी भूभाग भूकंप के लिहाज से संवेदनशील माना जाता है। 38 भारतीय शहर मसलन दिल्ली, कोलकाता, मुबंई, चिन्नेई, पुणे और अहमदाबाद जैसे शहर साधारण से लेकर उच्च तीव्रता वाले भूंकप क्षेत्र में आते है। 344 नगर भूकंप के लिहाज से अतिसंवेदशील क्षेत्र में आते है। एक आंकड़े के मुताबिक 1990 से लेकर 2006 तक 23000 लोग अपनी जान गवां चुके हैं। इसमें लातूर 1993, जबलपुर 1997, चमोली 1999,  भुज 2001, सुमात्रा 2004, जिसके बाद सुनामी आई और 2005 में आया जम्मू कष्मीर में आया भूकंप शामिल हैं। इसमें गुजरात के भुज में आए भुकंप में 13800 लोगों की मौत हो गई। आज पूरे विश्व में कहीं कोई ऐसी प्रणाली नही है जो भूकंप से जुड़ी भविष्यवाणी कर सके लिहाजा सावधानी ही सबसे बड़ा बचाव है। प्राकृतिक आपदा और मानवजनित आपदा से निपटने के लिए केवल बचाव ही एक मात्र रास्ता है। इसी बचाव कार्य को ठोस स्वरूप प्रदान करने के लिए 2005 मे एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून 2005 अस्तित्व में आया। 2006 में इस कानून के तहत राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया। प्रधानमंत्री को इस प्राधिकरण का केन्द्र के स्तर पर अध्यक्ष बनाया गया है, राज्यों के स्तर पर मुख्यमंत्री और जिले के स्तर पर जिलाधिकारी को बनाया गया है। आज हर साल बाढ़, सूखे, भूकंप और  जमीन का खिसकना जैसी आपदाऐं आम हैं। जाहिर तौर पर इन्हें रोका नही जा सकता मगर हमारी तैयारियां इसमें होने वाले जानमाल को कम कर सकती है। अभी तक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण मानवजनित आपदा और दैवीय आपदा को लेकर 25 दिशानिर्देश जारी कर चुका है। इसके अलावा राज्य सरकारों को इन स्थितियों ने निपटने के लिए सुझाव भी दिए गए है मगर राज्यों ने इसे गंभीरता से नही लिया। 2009 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन नीति सामने आई जिसमें आपदाओं से निपटने की खाका तैयार किया गया। साथ ही केन्द्र के स्तर चार राष्ट्रीय आपदा रिस्पोंस फोर्स का गठन किया गया है। भारत को भूकंप के लिहाज से चार क्षेत्रों मसल जोन 2 से लेकर जोन 5 में बांटा गया है। जोन 5 को भूकंप के लिहाज से अतिसंवेदनशील माना जाता है। पूर्वोतर के राज्यों के साथ जम्मू कश्मीर उत्तराखंड हिमांचल प्रदेश रण और पश्चिमी बिहर के कुछ क्षेत्र जोन पांच में आते हैं। जोन चार में जम्मू कश्मीर हिमांचल उत्तराखंड के बाकी बचे क्षेत्र के साथ दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कुछ भाग इसमें ष्शामिल है। पिछले 100 सालों में चार महाभयंकर भूकंप से इस देश को दो चार होना पड़ा। इसमें कांगड़ा 1905, बिहार-नेपाल 1934, असम 1950, और उत्तरकाषी 1991 शामिल है। इतनी बड़ी आपदाओं झेलने के बावजूद कोई खास बदलाव हमारी कार्यषैली में नही दिखाई पड़ता।

गरीब के आंकलन की सोच में इतनी गरीबी क्यों ?


कौन गरीब? कितने गरीब? गरीब वो जो प्रतिदिन अपने दिनचर्या के लिए शहरों में 32 रूपया और गांव में 26 रूपये खर्च कर सकता है। यह हलफनामा योजना आयोग ने सुप्रीट कोर्ट में पेश किया है। गौर करने की बात यह है कि यह हलफनामा पहले के 15 रूपये गांव में और 20 रूपये शहरों में खर्च करने की क्षमता में बदलाव करके किया गया है। लगता है आज हमारे नीतिनिर्माताओं की सोच गरीबों से ज्यादा गरीब हो गई है, इसलिए तो इस तरह का आंकलन निकलकर सामने आया। क्या यह गरीब के साथ सहानुभूति जताने के बजाय उसका सार्वजनिक अपमान है। अब जरा रिपोर्ट में आंकड़ेबाजी के मकड़जाल को समझते हैं। इसके मुताबिक एक दिन में एक आदमी प्रतिदिन अगर 5.50 रूपये दाल पर, 1.02 रूपये चावल रोटी पर, 2.33 रूपये दूध पर, 1.55 रूपये तेल पर, 1.95 रूपये साग- सब्जी पर, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्य खाद्य पदार्थो पर, 3.75 पैसे ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्वस्थ्य जीवन यापन कर सकता है। साथ में एक व्यक्ति अगर 49.10 रूपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नही कहा जाएगा। योजना आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवाओं पर 39.50 रूपये प्रतिदिन खर्च करके आप स्वस्थ्य रह सकते हैं। शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च कर आप शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। अगर आप प्रतिमाह 61.30 रूपये और 9.6 रूपये चप्पल और 28.80 रूपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं हैं। आयोग ने यह डाटा बनाते समय 2010-11 के इंडस्टीयल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और सुरेश तेंदुलकर कमिटि की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का हिसाब किताब दिखाने वाल रिपोर्ट को आधार बनाया है। सवाल उठता है की गरीब के आंकलन में नीतिनिर्माताओं की सोच इतनी गरीब कैसे? क्या यह इस देश के गरीबों के खिलाफ साजिश तो नही। कहीं उन्हें सरकारी योजनाओं के अलग करने की कोशिश तो नही। अभी जो व्यवस्था है उसके तहत योजना आयोग गरीबी रेखा के लिए मापदंड तैयार करता है और राज्य सरकार उसके आधार पर गरीबों का चयन करती है। राज्य सरकारें केन्द्र पर हमलावर हैं कि उनके यहां गरीबों का संख्या ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर बिहार में जारी बीपीएल कार्ड की संख्या 1.40 करोड़ है जबकि योजना आयोग सिर्फ 65.23 लाख लोगों को ही गरीब मानता है और इसी आधार पर बिहार को केन्द्रीय पूल से पीडीएस के लिए खाद्यान्न का आवंटन होता है। इसी तरह मध्यप्रदेश में 60 लाख लोग गरीब है जबकि योजना आयोग 41.25 लोगों को गरीब मानता है। इसके अलावा अब तक पूरे देश में 1.80 करोड़ से ज्याद फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए जा चुके हैं। दुख की बात तो यह है कि राज्यों ने 17.5 फीसदी ऐसे लोगों को बीपीएल राशन कार्ड जारी कर रखें है जो अमीर हैं और 23 फीसदी जरूरतमंदों के पास राशन कार्ड उपलब्ध नही है। सवाल यह कि की गरीबों की इस सूची में भारी हेरा फेरी के लिए कौन जिम्मेदार है। जरूरत है कि आंकड़ों के भ्रमजाल से निकलकर नीतिनिमार्ताओं को गरीबी मांपने का एक आदर्श और व्यवहारिक पैमाना अपनाना चाहिए। गरीब के आंकड़ों का आलम यह है कि जितने मुंह उतनी बातें। एनएसएसओ के मुताबिक 27.5 फीसदी तेंदुलकर समिति 37.2 फीसदी, सक्सेना समिति 50 फीसदी, अर्जुन सेन गुप्ता समिति 78 फीसदी, विश्व बैंक 42 फीसदी और एशियाई विकास बैंक 41.5 फीसदी को हमारे मुल्क में गरीब मानता है। इन सब आकंडों का स्रोत नेशनल सैंपल सर्वे है मगर गरीबी मापने का मापदंड अलग है। मसलन विश्व बैंक का मापदंड 1.25 डालर है। क्या सरकार सही आंकड़ा अपनाने से नही हिचकिचा रही है। क्योंकि यह उसकी समग्र विकास के नारे की हवा निकाल देगा। एक बात तो सच जान पड़ रही है कि हमारे देश में आर्थिक सुधार के इस दौर में गरीबी घटने के बजाय बढ़ रही है। दरअसल विकास दर का उलझा हुआ गणित जितना बताता है उससे कही अधिक छिपाता है। जबकि गरीबी न घटने के पीछे सीधा कारण सामाजिक क्षेत्र में कम खर्च है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 90 फीसदी जनता स्वास्थ्य का खर्च अपने जेब से उठाती है। इसका मुख्य कारण है कि स्वास्थ्य क्षेत्र हमारा खर्च केवल 1.04 फीसदी है जो विकासशील देषों के 3 फीसदी और विकसित देशों के 5 फीसदी से बहुत पीछे है। ब्रिटेन की एक प्रतिष्ठित पत्रिका लेंसेट के मुताबिक भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च के चलते 3.70 करोड़ सालाना लोग गरीबी हो जाते है। इसलिए जरूरी है की शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक विकास और बुनियादी ढांचे में न सिर्फ खर्च बढ़ाया जाए बल्कि जारी किए गए पैसे का बेहतर इस्तेमाल भी हो। हमारे देश में सब्सिडी का बड़ा भाग जरूरमंदों तक नही पहंुच पाता। 2010-11 के आर्थिक समीक्षा की मानें तो 51 फीसदी पीडीएस राशन कालेबाजार में बिक जाता है। उत्तरपूर्व में यह आंकड़ा तो 90 फीसदी के आसपास है। अब सवाल है कि इसे रोका कैसे जाए। कुछ सुझाव सामने है जिसमें सबसे उपर सीधे जरूरत मंदों के खातों में नकदी का आहरण है। इसपर काम भी चल रहा है। ब्राजील जैसे देशों में यह व्यवस्था कुछ शर्तों के साथ लागू भी है। ब्राजील में भोलसा परिवार कार्यक्रम के नाम से इसे चलाया जाता है। इसके तहत पात्र व्यक्तियों को बच्चों को स्कूल भेजने की अनिवार्यता के साथ साथ टीकाकरण कराना भी आवश्यक कर दिया है। इसका नतीजा भी निकलकर सामाने आया। ब्राजील में 2003-2009 के बीच 2 करोड़ लोग न सिर्फ गरीबी रेखा से निकलकर बाहर आये बल्कि उनकी कमाई में 7 गुना बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। सीधे नकदी आहरण एक अच्छा विकल्प है लेकिन संभव कैसे होगा। हमारे देश में 40 फीसदी आबादी के पास ही बैंक खाते उपलब्ध है। लिहाजा सरकार को बैंकों के विस्तार में तेजी से कदम बड़ाना होगा। साथ की संतुलित विकास की नीव रखनी होगी। सिर्फ उच्च विकास दर का सपना दिखाकर काम नही चलते वाला। ऐसी नीतियों को लागू करने की आज दरकार है जो किसी भी व्यक्ति को समाज में सम्मान से जीने का अवसर प्रदान करे। 12वीं पंचवर्षिय योजना एक बेहतर अवसर है जब हम अपनी मौजूदा नीतियों का आंकलन कर उसमें जरूरी बदलाव कर उसे बेहतर क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाये। इतना ही नही इस देश में खर्च और परिणाम को लेकर भी एक ईमानदार बहस की शुरूआत होनी चाहिए। आखिर में वर्तमान व्यवस्था में बिना बदलाव किए हम अगर खाद्य सुरक्षा कानून को पारित करते है तो इसका हश्र भी दूसरी योजनाओं की तरह की होगा।
जो भूख मिली सौ गुना बाप से अधिक मिली
अब पेट फैलाये फिरता है, चैरा मुंह बायें फिरता है,
वो क्या जाने आजादी क्या, आज देश की बातें क्या।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कौन करेगा सुधार ?



 राशन वितरण प्रणाली जो देश में भूख से लड़ने की सबसे बड़ी योजना है उसमें सुधार की बात कोई नही करता। दुनिया का सबसे बड़ा सस्ता राशन प्रदान करने का नेटवर्क हमारे देश में है। तकरबीन 5 लाख सस्ते गल्ले की दुकानें इस व्यवस्था के तहत काम कर रही है। गरीब का भूख से लड़ने का एक मात्र सहारा। मगर यह सहारा चंद लोगों के लालच की भेंट तले  दम तोड़ रहा है। नेता, अफसर, ठेकेदार, दुकानदार और बाबू सबके सब इस योजना में अपना हाथ साफ कर रहे हैं। मगर इनके खिलाफ करवाई करने की जहमत कोई नही उठाता। दरअसल नीचे से लेकर उपर तक हर कोई इस योजना को लूटने घसूटने में लगा है, ऐसे में कारवाई की उम्मीद करना बेमानी है। हमारे देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में समय- समय पर बदलाव किए गए। योजना का मकसद गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों को सस्ता राशन मुहैया कराना था। ताकि देश से भूखमरी और कुपोषण को दूर किया जा सके। इसके तहत गेहूं ,चावल चीनी और किरोसिन सस्ते दामों में बीपीएल कार्ड धारकों को मुहैया कराया जाता है। केन्द्र सरकार इसके लिए हर साल हजारों करोड़ रूपये सब्सिडी के तौर पर खर्च करती है। यह 2006 में 23827 करोड़ से बढ़कर 2010 में 58242 करोड़ पहुंच गई। आज देश  के 6.52 करोड़ परिवार बीपीएल श्रेणी के तहत आते हैं। इसमें 2.44 करोड़ अति गरीब परिवार भी शामिल हैं। इन परिवारों का सस्ता राशन मुहैया कराया जाता है। हालांकि राज्य सरकारों ने 10.59 करोड़ परिवारों को बीपीएल कार्ड जारी किए हैं। यही कारण है कि अकसर राज्य सरकारें केन्द्र सरकार पर आरोप लगाती है कि केन्द्र उनके गरीबों को गरीब नही मानता। मसलन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुताबिक उनके राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 1.50 करोड़ है जबकि केन्द्र के मापदंड के मुताबिक 65 लाख परिवार ही बीपीएल श्रेणी में आते है। अभी हाल में योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर गांव में 26 रूपये और शहरों में 32 रूपये प्रतिदिन खर्च क्षमता वाला व्यक्ति को गरीब नही माना। क्या यह हमारे नीतिनिर्धारकों का मानसिक दिवालिया पन नही है। क्या आज की इस महंगाई में कोई व्यक्ति प्रतिदिन 26 और 32 रूपये में अपना जीवन निर्वाह कर सकता है। लगता है सरकार सही आंकड़ा अपनाने में हिचकिचा रही है। क्योंकि इसका सीधा असर उसके समग्र विकास के नारे के साथ- साथ उन सभी योजनाओं पर पड़ेगा जिसका अधार बीपीएल श्रेणी है। मुश्किल तो यह है कि एक बड़ी जरूरतमंद आबदी के पास बीपएल कार्ड नही हैं। मगर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो गरीब न होने के बावजूद बीपीएल कार्ड धारक है। इसी कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कई झोल दिखाई दे रहें हैं। सरकार की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक 51 फीसदी पीडीएस का खाद्यान्न काले बाजार में बिक जाता है। इसका मतलब राज्य सरकारें कालाबाजारी रोकने में नाकामयाब रही हैं। कितनी शर्म की बात है कि 51 फीसदी अनाज खुले बाजार में बिक जाता है। मगर सरकारों के पास शिकायतें महज मुठठी भर दर्ज होती है। क्योंकि सारा खेल नेताओं और अफसरशाही की आड़ में होता है। इसलिए कोई भी मामला दर्ज नही हो पाता। सरकारों के नुमाइंदे चाहे वह खाद्य मंत्री हो या खाद्य सचिव दिल्ली के विज्ञान भवन में आकर वितरण प्रणाली में सुधार पर माथापच्ची करते हंै। जबकि इस खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी या कहें कमाऊपूत यही लोग हैं। खेल का सबसे बड़ा हिस्सा इन्ही की झोली में जाता है। कहने का मतलब है चोरों से चोरी कैसे रोकी जायी इस पर चर्चा की जाती है। कालाबाजारी से जुड़ी शिकायतों पर अगर गौर किया जाए तो 2007 में 99, 2008 में 94, 2009 में 169 और सितंबर 2010 तक 142 शिकायतें पूरे देश में दर्ज हुई। जरा सोचिए जिस देश का 51 फीसदी आनाज कालेबाजार में बिक जाता है वहां मुठ्ठी भर शिकायतें भी दर्ज नही होती। क्या इस निकम्मेपन के सहारे हम वितरण व्यवस्था को सुधारने का दंभ भर रहे है।  जब मामले ही दर्ज नही होगें तो कार्यवाही कहां से होगी। जबकि कुछ जरूरी कदम उठाकर इस व्यवस्था में  बदलाव आ सकता है। बस जरूरत है कुछ ठोस उपाय करने की।
1-सस्ता गल्ला की दुकानों को जल्द ही कम्पयूटीकृत कर दिया जाए। साथ ही इनकी दुकानों का खुलने का दिन व समय निश्चित हो।
2-जरूरत मंदों चिन्हित कर उन्हें स्मार्ट कार्ड उपलब्ध कराऐं जाए। 
3- हर राज्य की राजधानी में एक केन्द्रीय व्यवस्था का निर्माण किया जाए ताकी कोई भी कहीं से भी पीडीएस से जुड़ी जानकारी प्राप्त कर सके।
4-हर जिले में शिकायत निवारण की व्यवस्था की जाए।
5-चावल, गेंहू ,चीनी, दाल और तेल को खुले के बजाय सील पैकेट में दिया जाए।
6-खाद्यान्न ले जाने के लिए परिवहन नीति को कठोर बनाया जाए। 
7-पीडीएस की ढुलाई करने वाले वाहनों में जीपीएस सिस्टम लगाया जाए। ताकि कालाबाजारी के समय आसानी से इसे चिन्हित किया जा सके।
8-परिवहन से जुड़े ठेकेदारों के चयन के लिए विशेष प्रावधान किया जाए। मसलन कालाबाजारी की सजा 10 साल। खास बात यह है कि इस मामले के निपटारे में 1 साल से ज्यादा का समय न लगे।
इसके अलावा कुछ अहम सवाल जिनके जवाब सियासतदानों को ढूंढने होंगे। क्या आज तक किसी खाद्य मंत्री को कालाबाजारी के चलते जेल की हवा खानी पड़ी है। जबकि यह तथ्य किसी से नही छिपा कि कालाबाजारी से कमाई गई रकम के सबसे बड़े हिस्सेदार यही लोग होते है। क्यों आज तक एक भी खाद्य सचिव को सजा नही हुई। क्यों जिलापूर्ति अधिकारी को जवाबदेही नही बनाया गया। क्यों हमेशा बाबू के गले में रस्सी पहनाकर मामले को रफा दफा कर दिया जाता है। इस व्यवस्था को ना सुधारने के पीछे हमारे नेताओं का सबसे बड़ा हाथ है। कौन चाहता है कि इस सरकारी दुधारू गाय का दूध मिलना बंद हो जाए। उदाहरण के तौर पर अब तक 1 करोड़ 80 लाख से ज्यादा फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए जा चुके है। अकेले दिल्ली यानि देश की राजधानी में एक महिला के नाम 801 राशन कार्ड जारी किए गए। सवाल आज मंशा का है और वह भी ऐसे समय में जब हम खाद्य सुरक्षा विधेयक का प्रारूप तैयार कर चुके हैं। मगर वितरण प्रणाली में सुधार की बात कोई नही कर रहा है। जबकि सब जानते है कि अगर मौजूदा प्रणाली में बदलाव नही किया गया तो यह कानून का हश्र भी बाकी योजनाओं की तरह ही होगा। इसलिए जरूरी है कि लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में समय रहते आमूलचूल परिवर्तन किए जाऐं। बहरहाल सरकार जरूरत मंदों के खाते में सीधे नकद राशि पहुंचाने की बात कह रही है। इसके लिए नंदन निलेकणी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई है जो जरूरत मंदों तक सीधी सहायता राशि कैसे पहुंचाई जाए इस पर सिफारिश देगी। मगर उससे पहले जरूरतमंदों के बैंक में पहुंच बनानी होगी। आज केवल 40 फीसदी आबादी की पहुंच बैंकों तक है। ऐसे में 2000 की आबादी में बैंक स्थापित करने की दिशा में तेजी से काम करना होगा। इसके बाद ही नकद धनराशि खाते में पहुंचाने पर काम किया जा सकता है।
निश्चित है दौर तबाही है,
शिशे की अदालत में पत्थर की गवाही है।
इस दुनिया में कहीं ऐसी तफ़सील नही मिलती ,
कातिल ही लुटेरा है, कातिल ही सिपाही है।



मंगलवार, 20 सितंबर 2011

घरेलू हिंसा निवारण कानून

2005 में बना कानून
2006 में लागू हुआ
केन्द्र सरकार से अब तक कोई बजट नहीं।
भारत में हर साल 1 करोड़ जोड़े विवाह बंधन में बंध जाते है।
तलाक की दर 1980 के 5 फीसदी से बढ़कर अब 14 फीसदी तक पहुंच गई है।
हर साल महिलाओं के खिलाफ 1.5 लाख मामले दर्ज किये जाते है।
5 करेाड़. महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। शिकायत 0.1 ही रहती हैं।
मौजूदा कानूनों से दहेज के 100 मामलों में से सिर्फ 2 केा ही सजा होती है।
80 फीसदी महिलाऐं अपने पति और परिवार के साथ समांजस्य की केाशिश करती हैं।
शहरी पेशेवर महिलाएं अब 26 से 30 की उम्र में विवाह करती हैं।
25 फीसदी कामकाजी महिलाएं अपना जीवन साथी खुद चुनती हैं।


2005 में बना कानून 
लागू में लागू हुआ
केन्द्र सरकार से अब तक कोई बजट नहीं।
भारत में हर साल 1 करोड़ जोड़े विवाह बंधन में बंध जाते है।
तलाक की दर 1980 के 5 फीसदी से बढ़कर अब 14 फीसदी तक पहुंच गई है।
हर साल महिलाओं के खिलाफ 1.5 लाख मामले दर्ज किये जाते है।
5 करेाड़. महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। शिकायत 0.1 ही रहती हैं।
मौजूदा कानूनों से दहेज के 100 मामलों में से सिर्फ 2 केा ही सजा होती है।
80 फीसदी महिलाऐं अपने पति और परिवार के साथ समांजस्य की केाशिश करती हैं।
शहरी पेशेवर महिलाएं अब 26 से 30 की उम्र में विवाह करती हैं।
25 फीसदी कामकाजी महिलाएं अपना जीवन साथी खुद चुनती हैं।


खनन पर मनन


भारत में पहली खनन नीति 1993 में आई। 1994 में इसमें पुर्नविचार किया गया। इसके दरवाजे निजि निवेश और विदेशी निवेश के लिए खोल दिये गये। पहले ही खनिज सम्बन्धी खान और खनिज विनियमन और विकास अधिनियम 1957 अस्तित्व में आया। इसमें 1972 में पहला संशोधन हुआ। इसके बाद 1986, 1988, 1994 और 1999 में कानून में जरूरी बदलाव हुए। अब सरकार नया एमएमडीआर कानून लाने जा रही है जिसमें मुनाफे का 26 फीसदी हिस्सा उस जगह में रह रहे लोगों के विकास के लिए खर्च करना होगा।

कौन क्या करता है।
जीएसआई क्षेत्रीय ज्ञान सम्बन्धी खनीज पदार्थो की जानकारी उपलब्ध कराता है।
इंडियन ब्यूरो आफ माइन्स निगरानी के साथ साथ खोज सम्बन्धी जानकारी भी उपलब्ध कराता है।


क्या हैं प्रावधान।
सुरक्षा मानकों को ताक में रखना।
पुर्नवास है एक बडी समस्या।
राज्य सरकारों की सुस्ती।
पर्यायवरण प्रदूषण।
सालाना 1800 करोड़ के कोयले के अवैध कारोबार पर अंकुश  लगाना।
हाल ही में सीएसई ने उठाये कई सवाल।
माइन्स में काम करने वालों की संख्या 10 लाख।
ज्यादातर इलाके की आर्थि  स्थिति खराब।
रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं।

मौद्रिक नीति


सीआरआर 
कमर्शियल बैंकों को अपने डिपाजिटस का एक खास हिस्सा रिजर्व बैंक के पास जमा रखना पड़ता है। आरबीआई इस जमा की हुई राशि  पर कोई ब्याज नही देता। कमर्शियल बैंक प्राफिट मार्जिन से बचाने के लिए इंटरेस्ट रेट बड़ा देते है और डिपाजिट रेट कम कर देते है। यही है महंगाई को काबू को काबू में करने का आरबीआई का मंत्र। इसके जरिये आरबीआई बैंकिंग सेक्टर में मौजूद अतिरिक्त लिक्विडिटी को सोखता है।
  
रिपो रेट
वह रेट जिस पर आरबीआई बैकों शार्ट टर्म लोन देता है।

रिवर्स रिपो रेट
वह रेट जिस पर कमर्शियल बैंक रिजर्व बैंक के पास कम समय के लिए रूपया जमा कराते है।


बड़ते सड़क हादसे



 देश भर में सडक हादसों से जुडे मामलों में भारत की स्थिति खासा खराब है। साल 2004 में 92618 लेाग सडक हादसो में मारे गये। विश्व स्वास्थ संगठन के मुताबिक 2002 में ये आंकड़ा 84674 था। यानि दो सालों में सडक में मौत का तांडव कम होने के बजाय ज्यादा हुआ। 2009 में यह आंकड़ा 1 लाख 25000 के आसपास तक पहुंच गया। योजना आयोग की रिपोर्ट 2002 की रिपोट के मुताबिक भारत का 55000 करेाड रूपये सलाना इन दुर्गघटनाओं की भेंट चढ जाता है। यानि जीडीपी की तीन फीसदी का सलाना नुकसान सड़क हादसों के चलते हमें झेलना पड़ता है। इन सब के लिए जिम्मेदार जो भी हो लेकिन जानमाल के नुकसान के साथ साथ आर्थिक नुकसान किसी भी उभरती हुई अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए ठीक नही। इन आंकड़ों से साफ जाहिर होता है कि हालात को सुधारने के लिए ठोस रणनीति बनाने की जरूरत है। इसके लिए सुन्दर समिति का गठन किया गया था जिसकी सिफारिश सरकार के पास मौजूद है। इसमें कानून का बेहतर कार्यान्वयन, सड़कों के बेहतर डिजाइन, डाइवरों की प्रशिक्षण, शराब पीकर गाड़ी चलाने पर सख्त कार्यवाही आदि हैं। इसके अलावा लोगों को भी इस कार्य में बड़चड़कर हिस्सा लेना होगा। ज्यादातर मामलें सावधानी हटने से होती है। लिहाजा हादसों को रोकने की जिम्मेदारी हमसबपर होती है।

अंडरवल्र्ड का आतंक


 अगस्त 2005 करिमा कपूर के पति संजय कपूर को रवि पुजारी ने जान से मारने की धमकी
     देते हुए 50 करोड रूपये की फिरौती मांगी।
     1997 अभिने आस्टेलिया का रूख किया।
     1997 अबू सलेम को इशारे पर कैसेट इंडस्टी के बादशाह गुलशन कुमार की नई दिल्ली में गोलियों से भूनकर  हत्या।
     जनवरी 2000 फिल्म निर्माता निर्देशक राकेश रोशन को उनके के बाहर गोली मारी गई। रेाशन अंडरवल्र्ड के
     इस हमले में बाल बाल बचे।
     2000 फिल्म चोरी- चोरी चुपक- चुपके के काम करने के लिए प्रीति जिंटा समेत फिल्म केा प्रमुख कलाकारेां को  अंडरवल्र्ड की धमकियां।
     2007 महेश भटट, पूजा भटट मोनिका बेदी के पूर्व प्रेमी और फिल्मी निर्देशक मुकेश दुग्गल का हत्या।                                   भूमाफियाओं की लडाई में अंडरवल्र्ड के इशारे पर जान ली गई।
     1997 फिल्म निर्माता राजीव राय को अंडरवल्र्ड से फिरौती को लिए धमकियों से तंग आकर राजीव ने मायानगरी से नाता तोड़ा।
 इस साल मीड डे के पत्रकार जे डे की गोली मारकर हत्या।

सच्चर समिति का सच


शिक्षा
 मुसलमानों में साक्षरता दर 59.1 प्रतिशत है जो कि राष्टीय औसत 64.8 प्रतिशत से कम है।
 6 से चैदह उम्र के 25 फीसदी मुसलमान बच्चो ने या तो स्कूल देखा नही या उन्होने छोड़ दिया।
 एक बडी तादाद में मुसलिम लडके और लडकियों ने मैटिक की परिक्षा पास नही की या उन्होने इससे पहले ही स्कूल को  छोड़ दिया।
  4 फीसदी के कम मुसलिम बच्चे गे्रजवेट या डीप्लोमा होल्डर है। जबकि 20 साल के सात फीसदी बच्चे है।
  मुसलमानों में लडकियों और महिलाऐं के लिए खासकर ठोस प्रतिबद्धता की जरूरत है।
  मस्लिम बहुल इलाके में माध्यमिक स्कूल की तादाद खासी कम है। इसके अलावा लड़कियों के लिए अलग से स्कूल की आवश्यकता है।  लडकियों के लिए छात्रावास की भी खासी कमी है।
  मुस्लिम अभिभावकों में भौतिक समाज और वर्तमान शिक्षा के प्रतिकूल नही, लेकिन उनके पास विकल्प की खासा कमीं। साथ ही वो अपने बच्चों को मदरसे में पढने देना नही चाहते।
      कौशल क्षमता का विकास।
स्कूली शिक्षा नही लेने वाले मुसलमानों केा स्वरोजगार के लिए प्रशिक्षण देना।
कामगारों की बदलती सेवा और तकनीक क्षेत्र के साथ विर्निमाण क्षेत्र के लिए तैयार करना जिन्होने बीच तक की शिक्षा ली है।
भूमंडलीकरण के दौर में कामगारों के कौशल को और अधिक धारदार बनाने के लिए वित्तिय सहायता उपलब्ध कराना।
   रोजगार और अधिक मौके।
स्वरोजगार मुस्लिमों की आय का प्रमुख साधन है।
12 फीसदी पुरूष मुसलमान रेहरी पट्टी के काम में जुडे़ हैं जो राष्टीय औसत जो कि 8 फीसदी से भी कम है।
70 फीसदी मुस्लिम महिलाएं घरेलू काम से जुड़ी हैं जो सामान्य 51 फीसदी से काफी ज्यादा है।
इसके अलावा इस समुदाय के बडे हिस्से के लोग  बीड़ी उद्योग और गारमेन्ट्स से जुड़े है।
       

राजनीति का अपराधीकरण।


जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 के अंतर्गत कानून की निम्नलिखित धाराओं के तहत दोषी पाए गए व्यक्ति सजा पूरा करने के 6 साल बाद तक संसदीय चुनाव लडने के लिए पात्र नही है।
धारा 153ए, जाति धर्म आदि के नाम पर दो समुदायों में वैमनस्य पैदा करना, या समाज में अशांति फेलाना।
धारा 17 1 ई रिश्वत का आरोप।
धारा 17 एफ चुनाव में बांधा डालने का आरेाप।
धारा 376ए, 376बी, 376सी, 376डी बलात्कार से संबंधित आरोप।
धारा 498 ए महिला पर अत्याचार का आरोप।
धारा 505 दो समुदाय में शत्रुता फैलाने वाला वक्तव्य।
छुआ- छूत मानने वाला व्यक्ति। सिविल राइटस एक्ट 1955।
कस्टम एक्ट 1962 की धारा 11- प्रतिबंधित माल का आयात और निर्यात।
गैरकानूनी गतिविधि कानून 1967 की धारा।
10 से 12 गैरकानूनी संस्था से ताल्लूकात।
फारेन एक्सचेंज रेगुलशन एक्ट 1973।

                   ये नही लड सकते चुनाव।
नारकोटिक एक्ट डरग्स एंड साइकोटरापिक सस्ब्टैंसेज एक्ट 1985।
टाडा एक्ट 1987 की धारा 3 या 4।
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 125 
चुनाव के दौरान देा समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाना।
धारा 135ए मतदान केन्द्र पर कब्जा।
धारा 135 मतदान केन्द्र लूटना।
धारा 136 उम्मीदवार के नामांकन पत्र फाड़ना।
प्लेसेज आफ वर्शिफ। स्पेशल प्रोविजन एक्ट 1991 की धारा 6।
प्रिवेंशन आफ इंसल्टस टू नेशनल आनर एक्ट 1971 की धारा 2 या धारा 3।
कमीशन आफ सती प्रिवेंशन एक्ट 1987।
प्रिवेंशन आफ करप्शन एक्ट 1988
इसके अलावा कैदी चुनाव तो लड सकते है लेकिन वोट नही डाल सकते।

जैव विविधता को तार तार करता मानव


जैव विविधता आज अपने अस्तित्व की लडाई लड रही है। जल जंगल, जानवर, जमीन आज सब कोई परेशान है। कारण मनुष्य ने अपने ऐसो आराम के लिए उसका सुख-चैन छीन लिया है। बढती जनसंख्या के चलते मानव ने उसके जीवन में दखल दिया। आज दखल इस कदर बढ गया है कि जंगल में अपने आपको सुखी मानने वाले जानवर शहरों में आतंक मचा रहे हैं। जंगल कंक्रीट के मैदान में बदलते जा रहे हैं। जनसख्ंया विस्फोट, जंगलों का कटना, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैव विविधता को नष्ट करने पर तुले हैं। भारत में 81 हजार जानवरों की और 46 हजार पौंधों की प्रजातियां हैं। इंटर गर्वमेन्टल पैनल फार क्लायमेट चेंज यानी आइपीसीसी ने भी अपनी रिपोर्ट में इस ओर इशारा किया है। रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु में तेजी से हो रहे परिवर्तन के कारण भारत की 50 प्रतिशत जैव विविधता पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। अगर तापमान 1.5 से 2.5 डीग्री सेंटीग्रेड तक बडा तो 25 फीसदी पौंधों की प्रजातियां विलुप्त हेा जाएंगी। पृथ्वी पर लाखों प्रजाति की जीव व वनस्पति उपलब्ध है। इनकी विशेषता और रहन सहन अलग अलग है। पर्यायवरण में रहे बदलाव क चलते इनकी कड़िया टूट रही है। आज इन्हें बचाने की जरूरत है।

विकास बनाम भ्रष्टाचार

मेरा भारत महान। सौ में से नब्बे बेइमान। फिल्मों में बोले इस डायलाग से किसी को ताज्जूब नही हुआ। क्योंकि यह आज के भारत की एक कड़वी सच्चाई है। भारत आर्थिक तरक्की की राह में निरन्तर आगे बढ़ रहा है। अर्थव्यवस्था 8 फीसदी की तेज रफतार से दौड रही है। सेंसेक्स की 17 हजार की जबरदस्त  छलांग। उपर से लबालब भरा हमारी विदेशी कोष। ये सब गवाह है भारत की गुलाबी तस्वीर के। सारे बिन्दू बयां कर रहे है कि भारत विकसित देशों की कतार में शमिल होने जा रहा है। पल भर के लिए आप और हम यह सब जानकर खुशी से फूले नही समा रहे हैं। मगर क्या कहे बात निकली है तो दूर तलक जायेगी। बात साफ है कि भ्रष्टाचार आज हमारी तरक्की का सबसे बड़ा रोड़ा है। इससे निजात पाये बिना विकसित भारत की सपना कही कपोर कल्पना बनकर न रह जायें। ट्रांसपैरेन्सी इंटरनेशनल की हाल में आई रिपोर्ट में भ्रष्टतम देशों की गिनती में भारत का 120 पायेदान में पहुंचना थोड़ी राहत जरूर देता है। मगर नतीजों में अगर गौर किया जाये तो कुछ मुद्दे किसी डरावने सपने से कम नही। मसलन केवल 11 महकमे ही हमें सेाचने पर मजबूर कर देते है। पुलिस, निचली अदालतें, सरकारी अस्पताल,  निकाय, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, बिजली विभाग में भ्रष्टाचार कोई नई बात नही है। रिपोर्ट कहती है कि इन 11 महकमों में सालाना 21068 करेाड रूपये घूस के तौर पर दिये जाते हैं। पुलिस सबसे ज्यादा भ्रष्ट है। निचली अदालत दूसरे नम्बर पर तो जमीन से जुडे मामले में भी जमकर लूटघसूट होती है। बिहार को एक बार फिर माहाभ्रष्ट राज्य का तोहफा मिला है। वहीं उम्मीद के मुताबिक केरल शान से कह सकता है। से नो टू करप्सन। संसद, न्यायपालिका, नौकरशाही, भ्रष्टाचार के बड़े अड्डे बन गये हंै। प्रशासनिक पारदर्शिता और परिणाम परेासने की जिम्मेदारी के आभाव में भ्रष्टाचार निरंकुश हुआ है। मौजूदा हालात में विजन 20- 20 जैसे दावे को झूठलाता है। उपर से प्रबल राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी दाद में खाज का काम कर रही है।
लोकपाल विधेयक।
सूचना का अधिकार।
माडल पुलिस एक्ट।
निगरानी समिति।
प्रशासनिक आयोग की सिफारिशें।
जनप्रतिनीधि को वापस बुलाने का अधिकार।
जजेस इनक्वारी बिल।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

आतंकवाद से निपटने के लिए हमारी तैयारी कहां है ?


बुधवार को दिल्ली उच्च न्यायलय के गेट पर हुए धमाके से क्या इस देश के सुरक्षा रणनीतिकार सबक लेंगे। क्या यह धमका एक गंभीर चूक का नतीजा नही है। महज 3 महिने 13 दिन बाद दिल्ली हाइकोर्ट को दुबारा निशाना बनाना क्या दिखाता है। यह दिखाता है की आतंकवाद जो पूरी दुनिया के लिए एक नासूर बन चुका है उससे लड़ने के लिए हम कितने प्रतिबद्ध हैं। हर बार जब हमला होता है। घटना की निंदा कर दी जाती है। मुआवजे का ऐलान होता है। सरकार का बयान आता है कि गुनेहगारों को कानून की जद में लाया जाएगा। आखिर देश  इन आश्वासनों पर कब तक भरोसा करे। कब तक आतंकवादी हमारे निर्दोष नागरिकों को अपना निशाना बनाऐंगे। आज देश  की आवाम भय में जी रही है। बस, ट्रेन, मंदिर मस्जिद, अस्पताल, बस स्टैंड, पार्क, कोर्ट यहां तक की देष की संसद तक में आंतकी घुस जाते है। सरकार बताए आखिर इस देश के लोग कहां सुरक्षित हैं। 26/11 के बाद इस देश की आवाम को सुरक्षा तंत्र को लेकर सब्जबाग दिखाए गए वो क्या सब झूठे थे। बुनियादी प्रश्न यह है कि क्या इस तरह के हमलों से निपटने के लिए हमारी तैयार है। क्या हमारे खुफिया तंत्र में वह चैकन्ना पन है जो हमलों से पहले ही हमलावरों को धर दबोचे। क्या हमारी पुलिसिया तंत्र मजबूत है। आखिर क्यों बीते 15 सालों में 21 बार आतंकवादी देश की राजधानी को आसानी से निशाना बना लेते हैं। कैसे बीते 8 सालों में देश की आर्थिक राजधानी 11 बार आतंकियों के नापाक मंसूबों का शिकार हो जाती है। मुंबई हमलों के बाद गृहमंत्रियों ने सुरक्षा तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए क्या कुछ नही कहा। इसमें राष्ट्रीय  आतंकवाद प्रतिरोध केन्द्र,( एनसीटीसी)  बहु अभिकरण केन्द्र,(एमएसी)  राष्ट्रीय  अभिसूचना संजाल,(नैटग्रिड)  राष्ट्रीय जांच एजेंसी, विदेशियों के पंजीकरण तथा तलाश, राष्ट्रीय  सुरक्षा दस्ता, सामुद्रिक सुरक्षा सलाहाकार, समुद्री नौकाओं का पंजीकरण, मछुवारों के लिए पंजीकरण, संयुक्त आपरेशन केन्द्र की स्थापना, सागर प्रहरी बल, तटीय दस्तों का आधुनिकीकरण, आतंक निरोधी दस्ते और गुप्तचर व्यवस्था में सुधार जैसे अहम बदलावों की घोषणा की गई। इनमें से कुछ में काम हुआ और कुछ सरकारी फाइलों की शोभा बड़ा रहे है। इसका उदाहरण दिल्ली हाइकोर्ट परिसर से ही मिल जाएगा। तीन साल पहले सीसीटीवी लगाने की योजना बनाई गई मगर मसला फाइलों से आगे नही बड़ पाया। यहां तक की 25 मई को हुए धमाके से भी हम नही सीखे। यह है आतंकवाद से लड़ने का हमारा रवैया। और हमारी सरकारें हर हमले के बाद आतंकवाद को परास्त करने का दंभ भरती हैं। सच्चाई यह है की कुछ महिने की शांति व्यवस्था हमारे सुरक्षा तंत्र को निश्चिंत कर देती है। आज हमें बिना देरी किये यह सच्चाई कबूल कर लेनी चाहिए कि आतंकवादी हमारी सुरक्षा एजेंसियों की चैकस नजरों से ज्यादा शातिर हैं। इसलिए वह हर बार कामयाब हो रहे हैं। हमारे देश में आइबी सबसे बड़ी गुप्तचर संस्था है। लेकिन इस संस्था में 9443 पद रिक्त पड़ें हैं। जरूरत तो थी कि मानव संसाधन बढ़ाने की मगर यहां पहले के ही रिक्त पद नही भरे गए हैं। आज देष में 1327 आइपीएस अफसरों की कमी है। पुलिस में निचले स्तर के हालात और ज्यादा खराब हैं। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक प्रत्येक 1 लाख की आबादी में न्यूनतम 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, मगर हमारे देश में यह संख्या 160 के आसपास है। यह राष्ट्रीय औसत है। राज्यवार आंकड़े  तो और भी चैंकाने वाले हैं। प्रति लाख आबदी के हिसाब से बिहार में यह आंकड़ा 75 है, उत्तरप्रदेश में 115, आंध्रप्रदेश में 125, ओडिसा में 135, छत्तीसगढ़ में 205, और झारखंड में 205। इसकी सबसे बड़ी वजह है की देष में तकरीबन 560000 पुलिसकर्मियों के पद रिक्त पड़े है। पुलिस सुधार को लेकर बने राष्ट्रीय  पुलिस आयोग की सिफारिशों पर राज्य सरकारें नाक भौं सिुकोड़ने लगती है। यही कारण है की हमारे देश का 1861 का कानून आज सुधारों की बाट जोह रहा है। सोली सोराबजी की अध्यक्षता में एक माडल पुलिस एक्ट 2006 राज्य सरकारों के भेजा जा चुका है मगर ज्यादातर सिफारिशों को लागू करने में राज्यों की दिलचस्पी नही। यह भी तब जब सितंबर 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने तक राज्यों को पुलिस सुधार को लेकर निर्देश दे चुका है। केन्द्र सरकार कानून व्यवस्था को राज्यों सरकारों के अधिन बताकर अपना पल्ला झाड़ लेती है मगर इस माडल पुलिस एक्ट को वह दिल्ली में तक लागू नही करा पायी है। क्या इसी रवैये के सहारे हम आतंकवाद को हर कीमत पर परास्त करने की बात करते हैं। सवाल यह भी है कि जब राजधानी में सुरक्षा का यह हाल है तो बाकि राज्यों में क्या स्थिति होगी। आज समय की मांग है कि राज्यों को बिना देरी किए पुलिस आधुनिकीकरण पर तेजी से काम करना चाहिए। न सिर्फ हमारे पुलिसकर्मी आधुनिक हत्यारों से लैस हो बल्कि उनके प्रशिक्षण की ओर खास ध्यान देना होगा। साथ ही आतंकी वारदातों से निपटने के लिए राज्यों को विशेष दस्तों की स्थापना करनी चाहिए जो केन्द्र सरकार की एनएसजी की तर्ज पर हो। इसके अलावा थानों के स्तर में एलआइयू जैसे यूनिट को ज्यादा जिम्मेदार बनाने की जरूरत है। दूसरा मसला आता है कि आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे में हम कितना खर्च करते हंै। यह आंकड़ा जीडीपी यानि सकल घरेलू उत्पाद का 1 फीसदी है। जबकि रक्षा क्षेत्र में हम जीडीपी का 2.5 फीसदी खर्च करते हैं। लिहाजा इसका खास ख्याल रखा जाए की धन की कमी राष्ट्रीय  सुरक्षा के र्मोचे पर आड़े न आए। आज देश को जरूरत है एक कठोर कानून की। जो उन असमाजिक तत्वों के मन में भय पैदा करे जो विदेशी ताकतों के इशारों पर काम करते हैं। क्योंकि आतंक के इस नए चेहरे में घरेलू समर्थन को नकारा नही जा सकता। साथ ही ऐसे मामलों को  एक तय समयसीमा के तहत निपटाने की व्यवस्था कायम की जाए। भारत को एक नरम राष्ट्र की छवि से बाहर निकलकर कठोर बनना होगा। आखिर क्या वजह है कि अमेरिका ने 9/11 जैसे हमलों को दुबारा नही होने दिया। पहला वहां के सुरक्षा तंत्र में वह सारी विषेषाऐं हैं जो किसी भी हमले से निपटने के लिए तैयार हैं। दूसरा वहां आतंकवादियों के लेकर राजनीति नही होती है और न ही आतंकी जेलों में सालों तक रोटी तोड़ते है। वो तो घर में घुसकर अपने दुश्मन को मारने का माद्दा रखते है और ओसामा को मारकर उन्होंने यह साबित भी कर दिया। आज हमें अमेरिका के सुरक्षा तंत्र की बारीकियों से सीखने की जरूरत है। यह बात सही है कि हमारी भौगोलिक परिस्थितियां अलग है। मगर हमें नागरिक सुरक्षा को हर कीमत पर सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। जरा सोचिए जिस देश में  आतंकवादियों को फांसी की सजा से बचाने पर राजनीति होती है। आतंकवादियों को फांसी देने में सालों लग जाते है। जहां की न्याय व्यवस्था में कई छेद हो वहां का सुरक्षा तंत्र क्या भय पैदा कर पायेगा। आज जमीन आसमान और समंदर तीनों जगह हमें पैनी निगाह रखनी होगी  और इसके लिए जरूरत है ठोस राजनीति प्रतिबद्धता की जो अकसर नदारद सी दिखती है।
कर रहा साजिश अंधेरा, सीढ़ियों में बैठकर 
रोशनी के चेहरे पर क्यों कोई हरकत नहीं

रविवार, 4 सितंबर 2011

डाक्टर जनसंख्या अनुपात



भारत में जनसंख्या के हिसाब से डाक्टरों का खासा टोटा है। शहरों में डाक्टर जरूर मौजूद हैं मगर राज्यों और खासकर ग्रामीण इलाकों में यह हालत चिन्ताजनक हैं। आज विश्व मानदंडों से हम कहीं मेल नही खाते। हाल की में प्रकाशित विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक डाक्टर प्रति मरीज सिर्फ 60 सेकेंड ही दे पाते है। आईये एक नजर डालते हैं विश्व को डाक्टर जनसंख्या अनुपात पर।
देश                    डाक्टर जनसंख्या अनुपात        
भारत                       1ः1667
अमेरिका                     1ः375
ब्रिटेन                       1ः365
जर्मनी                       1ः283
इंडोनेशिया                   1ः3449
फ्रांस                        1ः286
ईजिप्ट                       1ः353
इराक                        1ः1449
पाकिस्तान                    1ः1235
श्रीलंका                      1ः2041
इसके अलावा भारत में राज्य वार डाक्टर जनसंख्या अनुपात पर नजर डाली जाए तो
प्रदेष                      डाक्टर जनसंख्या अनुपात 
झारखंड                     1ः16000  
छत्तीसगढ़                   1ः10000
बिहार                       1ः4761  
उत्तरप्रदेश                   1ः3125
मध्यप्रदेश                     1ः2439
कर्नाटक                     1ः666
महाराष्ट                     1ः872
तमिलनाडू                    1ः769
पशिचम बंगाल                 1ः1408
आंध्रप्रदेश                     1ः315
राजस्थान                     1ः2173
इसके अलावा विदेषों में काम करने वाले डाक्टरों पर नजर डाली जाए तो पिछले तीन सालों में 3660 स्पेशलिस्ट और सुपर स्पेशलिस्ट
विदेशों में जाकर अपनी सेवाऐं दे रहे हैं। इसके अलावा अमेरिका में 80000 डाक्टर जिसमें 61000 रजिस्टर्ड और 21000 अनरजिस्टर्ड डाक्टर हैं। इस तरह यूरोप में तकरीबन 40000 और 30000 के आसपास खाड़ी देशों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

सांसदों की जिलास्तरीय निगरानी व्यवस्था से हुआ मोहभंग


लगता है हमारे परम आदरणीय सांसदों का जिला स्तर निगरानी समिति के कामकाज से मोहभंग हो गया है। सरकार ने उन्हें इस समिति का अध्यक्ष जरूर बनाया है मगर सांसदों की मानें तो उन्हें नाममात्र का अध्यक्ष बनाया गया जबकि उनकी सुनवाई कहीं नही होती। निम्नलिखित योजनाओं की निगरानी के लिए सरकार ने राज्य स्तर और जिला स्तर पर निगरानी तंत्र बनाया है। राज्य स्तर पर मुख्य सचिव की अध्यक्षता में और केन्द्र स्तर पर सांसदों के स्तर पर निगरानी तंत्र का गठन किया गया है। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत त्रीस्तरीय निगरानी व्यवस्था का गठन किया गया है। इसमें एक केन्द्र के स्तर पर नेशनल लेवल मानीटर और 2 तंत्र राज्य के स्तर पर बनाए गए हैं। इसके अलावा नेषलन रूरल हेल्थ मिशन, संपूर्ण स्वच्छता अभियान, राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण जैसे योजनाओं का निगरानी का जिम्मा सांसदों को दिया गया है। बकायदा सालाना आधार पर प्रत्येक राज्यों और जिलों में कितनी बैठकें होनी है इसके दिशानिर्देश केन्द्र ने जारी कर रखें हैं। मसलन सालान आधार में 28 राज्यों में 112 बैठकें होनी चाहिए मगर 2006-07 में 35, 2007-08 में 36 और 2008-09 में 35 बैठकें भी हो पायी। हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, मिजोरम ,दादर और नागर हवेली में पिछले 2 सालों में एक भी बैठक नही हुई। वही 619 जिलों में कुल 2476 बैठकें होनी चाहिए। मगर 2006-07 में 619, 2007-08 में 912 और 2008-09 में 579 बैठकें ही हुई। महात्मा गांधी नरेगा में सोशल आडिट का प्रावधान है। बकायदा हर जिले पर एक लोकपाल नियुक्त करने के दिशानिर्देश जारी किये गए हैं। समाज के जागरूक लोगों का एक पैनल गठित करने की बात कही गई है। खासकर निगरानी को लेकर पंचायतों की भूमिका को काफी अहम बना दिया गया है। आज बजट की एक बडी राषि ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों के लिए खर्च की जा रही है। जरूरत है इन योजनाओं का जरूरतमंदों तक पहुंचाने की।

शनिवार, 3 सितंबर 2011

स्वास्थ्य क्षेत्र में है व्यापक सुधार की दरकार


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने योजना आयोग की हालिया बैठक में 12वीं पंचवर्षिय योजना में स्वास्थ्य क्षेत्र पर विशेष जोर देने की बात दोहराई है। इसके लिए बकायदा जो खाका तैयार किया गया है उसमें स्वास्थ्य क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का 2.5 फीसदी 12वीं पंचवर्षिय योजना के अन्त तक खर्च करने की बात कही है। योजना आयोग ने 11वीं पंचवर्षिय योजना में मातृ मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, अस्पताल में प्रसव कराने और सम्पूर्ण टीकाकरण को लेकर जो लक्ष्य निर्धारित किए थे उससे हम काफी दूर है। मगर 2005 में लागू की गई महत्वकांक्षी योजना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अस्तित्व में आने के बाद हालात जरूर बदले हैं। मगर सफर अभी बहुत लंबा है। भारत में अगर स्वास्थ्य क्षेत्र पर नजर दौड़ाई जाए तो कई चैकाने वालें आंकड़ों से हमें दो चार होना पड़ेगा। मसलन इस क्षेत्र का 80 फीसदी हिस्सा निजी हाथों में है। महज 20 फीसदी हिस्सा सरकार के जिम्मे है। इस 20 फीसदी में भी 80 फीसदी राज्य सरकार के अधीन आता है। चंूकि स्वास्थ्य क्षेत्र राज्यों का विषय है लिहाजा लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाऐं पहुंचाना राज्य सरकार का प्राथमिक जिम्मेदारी बन जाती है। मगर राज्यों ने अपने सालाना बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आवंटन में कुछ खास दरियादिली नही दिखाई। यही कारण है कि केन्द्र सरकार के बजट आवंटन बढ़ाने के बावजूद हम जरूरत के मुताबिक समुचित राशि का प्रबंध नही कर पा रहे हैं। आज दुनिया की आबादी में हमारी हिस्सेदारी 16 फीसदी के आसपास है, मगर बीमारी में हमारा योगदान 20 फीसदी से ज्यादा है। यूपीए सरकार जब 2004 में सर्वसमावेशी विकास के नारे का साथ सत्ता में आसीन हुई तो उसने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में इस बात की घोषणा की कि स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर को बदलने के लिए सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का 2 से 3 फीसदी इस क्षेत्र में दिया जायेगा। मगर अभी तक गाड़ी 1.04 फीसदी के आसपास है। अगर षुद्ध जल मुहैया कराने और स्वच्छता को दिए गए बजट को भी जोड़ लिया जाए तब भी यह आंकड़ा 1.08 फीसदी तक ही पहुंचता है। क्योंकि स्वास्थ्य क्षेत्र का 59 फीसदी बजट दूषित पानी से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च हो जाता है। इसलिए पानी और स्वच्छता को मिलने वाले बजट पर भी नजर रखना आवष्यक है। विष्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि विकासषील देषों को जीडीपी का 5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च करना चाहिए। मगर हम अभी इससे काफी दूर हैं। जरूर 11 पंचवर्षिय योजना में 140135 करोड की राशि का निर्धारण किया गया है,जो 10वी पंचवर्षिय योजना के मुकाबले 227 फीसदी ज्यादा है। इसमें से अकेले 90558 करोड़ की राशि केवल केन्द्र सरकार का महत्वकांक्षी कार्यक्रम राष्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए रखे गए थे। स्वास्थ्य क्षेत्र के सामने आज सबसे बड़ी चुनौति मानव संसाधन की कमी को पूरा करने की है। इसमें सबसे ज्यादा खराब तस्वीर ग्रामीण क्षेत्रों की है। भौतिक सुविधाओं को मुहैया कराने में सरकार कुछ हद तक जरूर सफल रही है, जिसमें प्रमुख है उपकेन्द, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और जिला अस्पताल । मगर डाक्टर और नर्सो की भारी टोटा सरकार के माथे में बल ला देता है।  हमारे देष में डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1ः1667 है। यानि 1667 आबादी पर 1 डाक्टर। जबकि अमेरिका में यह अनुपात 1ः375 और ब्रिटेन में 1ः365 है। डब्लयूएचओं के मुताबिक डाक्टर जनसंख्या अनुपात 1ः250 होना चाहिए। मगर ग्रामीण भारत में यह अनुपात डराने वाला है। ग्रामीण भारत में  34000 की आबादी में 1 डाक्टर है। योजना आयोग के मुताबिक भारत में 8 लाख डाक्टर और 20 लाख नर्सो की कमी है। इस मुष्किल से निपटने के लिए सरकार अब इस कमी को पूरा करने के लिए बैचुलर आफ रूरल हेल्थ केयर मसलन रूरल एमबीबीएस कोर्स पर विचार कर रहा है। यह पाठ्यक्रम चार साल का होगा जिसमें  6 माह की इंटरनशिप शामिल है। अहम सवाल उठता है कि आज हालात ऐसे क्यों बने। आखिर क्या वजह है की दक्षिणी राज्यों स्वास्थ्य में मामले में उत्तरी राज्यों से आगे हैं। आइये जरा समझने की कोषिष करते है। आज देश में तकरीबन 300 मेडीकल कालेजों में 190 सिर्फ पांच राज्यों में है। इसमें कर्नाटक, महाराष्ट, तमीलनाडू, आंध्रप्रदेश  और कर्नाटक शामिल है। जबकि बिहार में के पास महज 9 मेडीकल कालेज है जबकि उसकी आबादी 7 करोड़ से ज्यादा है। ऐसे ही कुछ हाल झारखंड का भी है। 3 करोड़ की आबादी वाले इस राज्य में केवल 3 मेडीकल और 1 नर्सिंग कालेज है। आज इस अन्तर को पाटने की भी सख्त दरकार है। दूसरी तरफ सरकार के लिए मिलीनियम डेवलपमेंट गोल के तहत निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पाना किसी चुनौति से कम नही होगा। सरकार 2012 तक मातृ मृत्यु दर को प्रति लाख 100 तक लाना चाहती है। जो 2007 में 254 था। इसी तरह शिषु मृत्यु दर को 30 तक जो 2007 मंे 55 था। जननी सुरक्षा योजना के अस्तित्व में आने के बाद जरूर अस्पताल में प्रसव कराने आने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ रही है। वहीं 2012 तक संपूर्ण टीकाकरण की राह लंबी है। फिलहाल यह आंकड़ा 60 से 65 फीसदी के आसपास है। भारत सरकार के लिए आज सबसे बड़ी चुनौति डाक्टरों का गांवों से अलगाव है। आखिर यह स्थिति क्यों। इसमें कोई दो राय नही कि डाक्टरी आज सेवा करने का एक माध्यम नही बल्कि, एक विषद्ध व्यवसाय बन गया है। इंडियन मेडीकल सोसइटी के सर्वे के मुताबिक 75 फीसदी डाक्टर शहरों में काम कर रहे हैं। 23 फीसदी अल्प शहरी इलाकों मे और महज 2 फीसदी डाॅक्टर ग्रामीण इलाकों में अपनी सेवा प्रदान कर रहे है। क्या इसके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार नही। बहरहाल मेडीकल काउंसिल आॅफ इंडिया ने कुछ बड़े फैसले किए है जिसमें शिक्षक छात्र अनुपात को 1ः1 से बढ़कार 1ः2 कर दिया गया है। साथ ही जमीन की उपलब्धता जैेस मुददों में भी राहत प्रदान की गई हैं। हमारे देश में आज प्राचीन चिकित्सा प्रणाली पर कोई खास ध्यान नही दिया गया। आर्युवेदिक, होमयोपैथिक, सिद्धा और यूनानी जैसी चिकित्सा प्रणाली की तरफ समुचित ध्यान न दिए जाने के कारण ऐसे हालत पैदा हुए हैं। ऐसा नही कि यह चिकित्सा प्रणाली फायदेमंद नही है। दरअसल सवाल यह है कि इसे फायदेमंद बनाने के लिए हम कितने गंभीर है। जरा सोचिए जब देश की 77 फीसदी आबादी की हैसियत एक दिन में 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की नही है। तो वह क्या फाइव स्टार की तर्ज पर बने निजि अस्पतालों में जाकर इलाज करा सकते हैं। इसलिए समय की मांग है कि इन बहुमुखी सुविधाओं से लैस अस्पतालों के उपर एक प्राधिकरण का गठन किया जाए। भारत सरकार का महत्वकांक्षी कार्यक्रम राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन को लागू हुए पांच साल से ज्यादा बीत चुके हैं। मगर यह अपने उददेष्य के मुताबिक गांवों में कोई आमूलचूल परिवर्तन नही कर पाया है। इसके तहत जारी धनराषि खर्च तक नही हो पा रही है उपर से भ्रष्टाचार ने भी इस योजना को घेर रखा है।हाल में उत्तर प्रदेश में हुए घोटाला इसका ताजा उदाहरण है। आजादी के 64 साल बीत जाने के बात भी हम अपने नागरिकों को जब स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाऐं भी मुहैया नही करा पा रहें हैं तो हम समग्र विकास के दावे का स्वांग क्यों रचते हैं।