मंगलवार, 18 जनवरी 2011

चुनाव सुधार

चुनाव सुधार को लेकर भारत में बहस पिछले तीन दशकों से भी पुरानी है। मगर धरातल में इसे लेकर राजनीतिक दलों ने कभी कोई गंभीरता नही दिखाई। यही वजह है कि चुनाव सुधार आज टीवी चैनलों में गपषप से लेकर अखबार के संपादकीय तक सीमित रह गये है। गाहे बगाहे कुछ सनकी समाजसेवी इसे लेकर एक कार्यशाला का आयोजन कर देते है। मगर नतीजा वही ढांक के तीन पात। चुनाव आयोग भी कभी कभार चुनाव सुधार करने की रट लगाता है मगर राजनीतिक दलों के नाक भौं सिकोड़ते ही वह दुम दबा लेता है। नतीजतन कानून तोडने वालों की लम्बी फौज देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में कानून बनाने में लग जाती है जो दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र पर एक बदनुमा दाग है। सच पूछिए तो चुनाव सुधार को लेकर भी समितियों का खबू खेल हुआ। तारकुण्डे से लेकर दिनेष गोस्वामी समिति तक, एनएन वोहरा से लेकर इंद्रजीत गुप्ता समिति तक, सिफारिशों की एक लंबी फेहरिस्त सरकार के पास है मगर इस पर कुछ खास अभी तक नही हो पाया है। इस बीच चुनाव आयोग ने व्यापक चुनाव सुधार को ध्यान में रखकर सरकार को 22 सूत्रीय एजेंडा सौंपा, मगर कुछ को छोडकर बाकी सुधारों पर सरकार और उसका तंत्र कंुडली मारकर बैठा है। वो तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने जनप्रतिनिधीयों  के बारे में कुछ बातें जानने का हक तो हमें दिया वरना नेता लोग कभी नही चाहते मसलन उनकी शिक्षा, क्रिमिनल रिकार्ड और संपत्तियों के बारे में जानकारियां सार्वजनिक हो। नेताओं की जमात कभी नही चाहेगी की उनकी कमजोर नब्ज़ जनता के हाथ लगे। आजकल  मतदान को अनिवार्य बनाये जाने को लेकर बहस छिडी हुई है। वैसे अनिवार्य मतदान दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में लागू है। मगर भारत में इसे लागू करने को लेकर मतभेद है। गुजरात विधानसभा ने निकाय और पंचायत चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए कानून में संशोधन किया मगर राज्यपाल ने उसे वापस सरकार को लौट दिया। इसमें मतदाता को ‘इनमें से काई नही‘ का अधिकार देने का भी प्रावधान है। वही लोकसभा में निजि विधेयक ‘अनिवार्य मतदान कानून 2009‘ में जोरदार बहस हुई। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने गिरते वोट प्रतिषत पर चिंता प्रकट करते हुए मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कही। लेकिन फिलहाल यह मुददा दूर की कौड़ी नजर आ रहा है। मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला इसे अव्यवहारिक करार दे चुके है। बहरहाल सरकार को राजनीति में बड़ते अपराधीकरण को रोकने जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच दूरी पाटने, राजनीति में एक स्वस्थ्य माहौल बनाने, आयाराम गयाराम की परंपरा को रोकने चुनावों में धनबल और बाहुबल को रोकने जैसे बडे कदम उठाने पड़ेंगे। जमानत राशि बड़़ाने और चुनाव पूर्व अनुमान लगाने जैसे कदमों पर रोक लगाने से कुछ नही होने वाला। जरूरत इस बात की सरकार आज सभी राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों के लेकर आमसहमति बनाये और इसे लागू करे।

रविवार, 16 जनवरी 2011

महंगाई डायन खाए जात है (भाग 3)

महंगाई पुराण में हर रोज कुछ नया हो रहा है। अब कृषि मंत्री शरद पवार ने साफ कर दिया है कि महंगाई का दोष उनके मंत्रालय के मथ्थे नही मड़ा जा सकता । महंगाई रोकने की जिम्मेदारी सामूहिक है। वैसे देखा जाए तो बात कुछ गलत भी नही है। शरद पवार को अकेले कैसे बलि का बकरा बनाया जा सकता है। सवाल तो बाकि मंत्रालय से भी पूछे जाने चाहिए जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में महंगाई रोकने के लिए जिम्मेदार हैं। सवाल राज्यों से भी पूछे जाने चाहिए। मगर पूछेगा कौन। केन्द्र राज्यों के पाले में गेंद डाल रहा है तो राज्य सरकारें अपनी मजबूरी का रोना रो रही हैं। ऐसे में सिर्फ जनमानस को ही सरकारों को राह दिखानी होगी। मैं कुछ सीधे सवाल सरकार और विपक्ष से पूछना चाहता हूं । क्या सरकार ने या किसी राजनीतिक दल ने यह कहने की हिम्मत दिखाई कि मैं प्याज का तब तक सेवन नही करूंगा जब तक की आम आदमी तक इसकी दुबारा पहुंच न हो जाए। क्या सरकार के भीतर यह कहने का माद्दा है की दाम बड़ने के पीछे बहुत हद तक कुप्रबंधन जिम्मेदार है। क्यों नही घोषणा की जाती की शरद पवार से खाद्य मंत्रालय वापस लिया जाएगा क्योंकि वह इस मंत्रालय को संभालने में नाकामयाब रहे हैं। याद करिये वह दिन जब हमारे देश में अनाज की भारी कमी हो गई थी। लाल बहादुर शास्त्री की हफते में एक दिन उपवास रखने की अपील को जनमानस ने सहज क्यों स्वीकार किया? दरअसल लोगों को उनपर विश्वास था। देश ने इसे एक राष्ट्रीय चुनौति के तौर पर लिया और इससे बाहर निकलने का संकल्प लिया। मगर क्या आज कोई नेता या राजनीतिक दल ऐसा कहने का माद्दा दिखा सकता है। नही क्योंकि जनता जानती है कि केवल अनाज की कमी इसका कारण नही है। मामला कुछ और भी है। जनता जानती है की चन्द लोगों के लालच का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। कहते है अवसर ईमान का दुश्मन होता है और आज इन्ही अवसरों जमाखोरों और कालाबाजारियों की एक लम्बी फौज खड़ी कर दी है। दुख तो तब होता है जब नेताओं का खुला संरक्षण इन्हें प्राप्त होता है।अगर प्याज 100 रूपये किलो भी हो जाए तो इनकी सेहन में क्या फर्क पड़ता है। अगर दाल 500 रूपये भी हो जाए तो इन्हें कहां इसकी परवाह है। असर तो गरीब की थाली पर होता है जो दिन में कुआं खोदकर रात को दो वक्त की रोटी जुटा पाता है। इतिश्री महंगाई पुराणों तृतीयों अध्यायो समाप्तः

शनिवार, 15 जनवरी 2011

महंगाई डायन खाए जात हैः भाग 2

महंगाई डायन नही रूकेगी। कभी चीनी के रूप में आएगी तो कभी प्याज बनकर रूलायेगी। सरकार चाहे जो भी कर ले। उसके तमाम प्रयासों की उस पर एक नही चल रही है। अब 19 जनवरी को प्रणव मुखर्जी राज्यों के वित्तमंत्रियों  के साथ अपना सर खपाऐंगे। इससे पहले 6 फरवरी  2010 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री बैठक कर चुके है। महंगाई डायन के रंग ठंग  देखकर ऐसा नही लगता की यह केवल मांग और उत्पादन में कमी के चलते बड़ी है। या लोगों की आय में इजाफा हो रहा है। या खेत से किचन तक के दामों में भारी अन्तर है। ऐसा लग रहा है कि इसने कईयों को बेमान बना दिया है। और इस  बेमानी का खामियाजा पूरा देश भर रहा है। पिछले दिनों 8 सूत्रीय एजेंडा पेश किया गया। इसमें नया कुछ भी नही था। वही पुराने चलाए हुए तीर। महंगाई डायन पर न तो राजकोषीय उपाय असर कर रहे है और न ही मौद्रिक उपाय। प्रशासनिक उपायों का भी इस पर कोई असर नही हो रहा। लगता है सरकार भी अब राम भरोसे बैठ गई है। जितना हो सके आंकड़ेबाजी के सहारे जनता को बरगलाया जाया। इधर हर आमोखास के जुबां पर आज यही सवाल है। महंगाई से निजात कब मिलेगी। खाघ मुद्रास्फिति में 1.41 फीसदी की गिरावट जरूर देखने को मिली है मगर प्याज, सब्जी दूध मछती और फलों के दाम आसमान को छू रहे हैं। दो  दिन की मैराथन बैठकों के बाद सरकार ने महंगाई का कम करने के लिए कई उपायों की घोषणा की है। इनमें प्रमुख है। नैफेड और एनसीसीएफ 35 रूपये किलों प्याज बेचेंगी।
कालाबाजारियों और जमाखारों के खिलाफ सरकार सख्ती से पेश आयेगी।
सभी वस्तुओं के आयात और निर्यात की समय समय पर समीक्षा होगी।
सरकारी इकाइयां आवष्यक वस्तुओं मसलन तेल और दाल की खरीरदारी में तेजी लाऐंगी।
कैबीनेट सचिव के अधिन सचिवों की समिति राज्यों में कीमतों की समीक्षा करेगी।
मुख्य आर्थिक सलाहाकार की अध्यक्षता में अंतरमंत्रालय समूह का गठन किया जायेगा।
राज्य सरकारों से मंडी कर सहित अन्य करों में छूट देने की अपील की गई है।
साथ की केन्द्र सरकार गतिशील बाजारों के गठन में राज्यों का सहयोग करेगी। आगे क्या होगा चलिए इंतजार करते हैं।
इतिश्री महंगाई पुराणों द्धतिय सोपानः समाप्तः