रविवार, 26 दिसंबर 2010

कांग्रेसवाणी

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का अंकाड़ा जब 200 को पार कर गया तो पार्टी में हर कोई फूले नही समा रहा था। कोई इसे सोनिया राहुल का करिश्मा बताते नही थक रहा था तो कोई इसे काम का इनाम बता रहा था। चुनाव ने सबकों चैंकाया भी। खासकर आंध्रप्रदेष में मिली 33 लोकसभा सीटें या दिल्ली उत्तराखंड की एकतरफा जीत। ऊपर से यूपी के फैसले ने तो मानों मन की मुराद पूरी कर दी। यह कांग्रेस का फीलगुड फैक्टर का दौर था। प्रधानमंत्री ने मंत्रीमंडल के सहयोगियों को कह दिया की पहले 100 दिन के कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करें और फिर रिपोर्ट कार्ड पेश करें। सारे मंत्री इसी पर लग गए। कोई शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन की बात कर रहा था तो कोई एक दिन में 20 किलोमीटर सड़के बनाने की। माहौल ऐसा बना गया कि मानों कांगे्रसी 60 साल के तकलीफों को 100 दिन में दूर कर देंगे। बहरहाल जनता यह सब देख रही थी। यही वह दौर था जब खाद्य आधारित महंगाई अपने चरम पर थी। आवष्यक चीजों के दाम आसमान छू रहे थे। सरकार कम होनी की भविष्यवाणी करकर अपना दामन बचा रही थी। इसके बाद अचानक एक अखबार ने खबर प्रकाशित की की केन्द्र सरकार के दो मंत्री होटल में रूकते हैं और बिल करोड़ो में पहुंच गया है। ध्यान रहे यह 100 दिन के पहले की उपलब्धि है। इसके पास कांग्रेसियों के बचत का नाटक शुरू हुआ। बिजनेस क्लास की जगह इकोनामी क्लास में सफर कर उदाहरण पेश किए जाने लगे। ऐसा लग रहा था की हिन्दुस्तान की सारी फिजूलखर्ची रूक गई है। मगर एक साहब को यह सब पसन्द नही आया। भला वो भी कब तक नाटक करते कह दिया इकोनामी क्लास कैटल क्लास है। फिर नाम आ गया आइपीएल में। आगे क्या हुआ आप जानते है। सनद रहे की महंगाई से जनता को कोई राहत नही मिल पा रही थी। इस मोर्चे पर जनता के पास वाकई कुछ था तो भविष्यवाणियां। किसी तरह 100 दिन खत्म हुए। लम्बे चैड़े वादों का कुछ नही हो पाया। खैर इसमें किसी को हैरानी नही हुई। पब्लिक है यह सब जानती है। कांग्रेस के लिए सबसे दुखी समाचार आंध्रप्रदेश से आया वह कि राजशेखर रेडडी नही रहे। इसके बाद यहां लगभग मृत हो चुके तेलांगाना मुददे ने जो जोर पकड़ा उसने सरकार की जडें हिला दी। इस बीच मीडिया राष्टमंडल खेलों की तैयारी के पीछे हाथ धोकर  पड़ गया। भ्रष्टाचार के कई सीन सामने आए। बहरहाल जांच चल रही है। सरकार की न सिर्फ देश में भी किरकिरी हो गई बल्कि उसकी विदेशी साख पर मानो रोडरोलर चल गया। वो तो भला हो खिलाड़ियों का जिन्होने लाज बचा दी। इधर रेल हादसों की संख्या में तेजी से बढोत्तरी हुई। सरकार को अपनी नक्सल नीति के चलते भी विरोध का सामना करना पड़ा। खासकर कुछ बड़े हादसों के चलते। बिहार में एकला चलो का नारा फ्लाप शो साबित हुआ। इसके बाद तो मानो पहाड़ ही टूट गया। राजा के खेल में सरकार ऐसी फंसी की आगे कुआ पीछे खाई की नौबत आ गई। इस खेल ने मिस्टर क्लिन को भी मुश्किल में डाल दिया। बची खुसी कसर सुप्रीम कार्ट की सख्त टिप्पणीयों ने पूरी कर दी। चाहे वह सड़ते राशन मुफ्त में बांटने को लेकर हो या मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर। बहरहाल साल खत्म होने को है मगर कांगे्रस की मुष्किल कम होने काम नाम नही ले रही है। डीएमके डरा रहा है ममता धमका रही है। सुप्रीम कोर्ट रूला रहा है और विपक्ष चिड़ा रहा है। आंध्रप्रदेष का हाल क्या होगा। किसी को पता नही। बहरहाल हम तो यही दुआ करेंगे की 2011 का सूरज इस पार्टी के लिए नया सवेरा लेकर आए।

महा - भारत

अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन। दुनिया के सबसे ताकतवर देश। 2010 का साल इन पांचों महाशक्तियों के भारत आगमन के लिए जाना जाएगा। इनका भारत प्रेम से स्पष्ट है कि भारत विश्व मंच में अपनी एक अलग पैठ बना चुका है। खासकर हमार अर्थव्यवस्था ने मंदी से बाहर निकलते हुए जिस तरह की विकास दर हासिल की है उसने सबको मजबूर कर दिया है कि वर्तमान में भारतीय बाजार में निवेष की बड़ी गुंजाइश है। भारत को भी अपने कई क्षेत्रों में विदेशी निवेश की जरूरत है। खासकर ढांचागत विकास की गति को बनाए रखने के लिए।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार 
चीन को छोड़कर बाकी चारों देशों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार के साथ भारत की उसमें अहम भागीदारी की पुरजोर वकालत की हमें खुश कर दिया। पहली बार अमेरिका ने न सिर्फ भारत की दावेदारी का खुलकर समर्थन किया बल्कि अफगानिस्तान में हमारे काम की जमकर सराहना भी की। इधर चीन के रवैये में कुछ खास बदलाव देखने को नही मिला। मगर सवाल उठता है कि उसका यह विरोध अकेले क्या गुल खिलाएगा। वह कहते है न कि अकेला चना क्या भाड़ फोड़े। मतलब चीन को भी देर सबेर भारत का समर्थन करना ही पड़ेगा। बहरहाल संयुक्त राष्ट्र में सुधार की प्रक्रिया काफी जटिल है। फिलहाल इसी झुनझुने से दिवाली मनानी चाहिए।
आतंकवाद और पाकिस्तान 
सिक्के के दो पहलू। दोनों के बीच के इस अटूट रिश्ते को चीन को छोड़कर सभी ने जमकर खरी खोटी सुनाई। पाकिस्तान को 26/11 के हमलावरों को कानून के दायरे में लाने और आतंकी ढांचा नष्ट करने की चेतावनी दी गई है। आज की भारतीय विदेश नीति में यह बात बड़ी मायने रखती है कि किसी देश का प्रमुख का भारत दौर बिना पाकिस्तान को सुनाए खत्म नही होना चाहिए। वरना सीधे तौर पर इसे रणनीतिकारों की असफलता माना जाता है।
व्यापार
 मेरे ख्याल से पांचों महाशक्तियों की भारत प्रेम की यह सबसे बड़ी वजह रही है। आज भारत के बाजार में भारी क्षमता है। 450 बिलियन के खुदरा बाजार और 150 बिलियन के परमाणु बाजार पर ज्यादातर देश अपनी लार टपका रहे हैं। साथ ही हमें हमारी ढांचागत सुविधाओं के बेहतर बनाने के लिए भारी निवेश की जरूरत है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविट कैमरून जून में अपनी भारत यात्रा के दौरान 40 अद्योगपतियों का प्रतिनिधिमंडल लेकर आए। दोनों देशों के बीच वर्तमान व्यापार जो 11.5 बिलियन अमेरिकी डालर है, उसे बड़ाकर 2014 तक 24 बिलियन अमेरिकी डालर करने का लक्ष्य रखा गया। बराका ओबामा तो अपने साथ 215 आर्थिक दिग्गजों को लेकर आये थे। क्योंकि वह अपने घर में बढ़ती बरोजगारी दर जो 10 प्रतिशत के आसपास थी, से निपटना चाहते थे। वह सफल भी हुए तकरीबन 54 हजार नौकारियां जो ले गए। साथ ही दोनों देशों के बीच व्यापार वर्तमान 37 से बड़ाकर 2015 तक 75 बिलियन अमेरिकी डालर करने का लक्ष्य तय किया गया। फ्रांस और रूस के साथ भी व्यापार बड़ाने को लेकर सहमति बनी। फ्रांस के साथ 2016 में हमारा व्यपार 16 बिलियन अमेरिकी डालर तक पहुंचेगा जो फिलहाल 8 बिलियन अमेरिकी डालर के आसपास है। जबकि रूस के साथ व्यापार बड़ाकर 2015 तक 20 बिलियन अमेरिकी डालर करने का लक्ष्य है। साथ ही रूस के साथ अब तक 30 बिलियन अमेरिकी डालर की सबसे बड़ा रक्षा समझौता हुआ है। आखिर में चीन जो 400 उद्योगपतियों का प्रतिनिधि मंडल लेकर भारत पहुंचा था। दोनों देशों बीच का व्यापार इस वर्ष 60 बिलियन अमेरिकी डालर को पार कर जायेगा। इसे भी बड़ाकर 2015 तक 100 बिलियन अमेरिकी डालर करने पर समझौता हुआ है।
चीन की यात्रा से नाउम्मीदी 
वेन जियाबाओं की यात्रा से किसी को ज्यादा उम्मीद नही थी। मगर जानकारों की माने तो इस बार भारत ने चीन को एक संदेश देने की जरूर कोशिश की। खासकर स्टेपल वीजा को लेकर। विगत है की चीन लम्बे समय से भारत की घेरेबंदी में जुटा हुआ है। खासकर हमारे पड़ोसी मुल्कों में उसके द्धारा किया जा रहा ढांचागत विकास संदेह के घेरे में है।
कुल मिलाकर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत एक तेजी से उभरती हुई आर्थिक शक्ति है बल्कि ओबामा के शब्दों में उभर गया है। अब बस जरूरत है इस बड़ती विकास दर को सर्वसमावेशी बनाने की।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

लोकपाल विधेयक कब आयेगा

पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। अभी और कितना इंतजार करना पड़ेगा किसी को मालूम नही। बहरहाल प्रधानमंत्री ने भी लोकपाल के तहत आने की अपनी मंशा साफ कर दी है। देश को पीएम, सीएम और डीएम चलाते हैं। इसलिए इनके स्तर से ही जवाबदेही और पारदर्शिता की शुरूआत होनी चाहिए। सवाल यह उठता है कि अगर लोकपाल विधयेक कानून की शक्ल ले भी लेता है तो क्या सबकुछ ठीक हो जाएगा। आज तकरीबन 18 राज्यों में लोकायुक्त मौजूद है। ये मौजूद जरूर है मगर मौजूदगी का अहसास ना के बराबर है। कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने जब व्यवस्था से लड़ने का जज्बा दिखाया क्या हुआ। नौबत इस्तीफा देने तक की आ गई। क्योंकि जहां मुखिया ही भ्रष्ट हो तो जांच क्या खाक होगी। आज देष में भ्रष्टचार से लड़ने के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई है। सीबीआई राजनीतिक इस्तेमाल के लिए बदनाम है और सीवीसी एक सिफारिशी संस्थान है। संयुक्त सचिव के स्तर के उपर के अधिकारियों की जांच तक के लिए उसे सरकार का मुंह ताकना पड़ता है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह एजेंसियां कितनी न्याय कर पाती होगीं। हाल ही में मुख्य सतर्कता आयुक्त पी जे थामस की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने इस संस्थान की विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया। मेरा मानना है कि अगर इन्हें ही स्वतंत्र तरीके से काम करने दिया जाए तो बड़े पैमाने पर भ्रष्टचार पर अंकुष लगाया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकपाल की दषा भी कहीं ऐसी ही न हो जाए। इसलिए जरूरी है कि न सिर्फ इस संस्थान को पूरी स्वतंत्रता दी जाए बल्कि इसे राजनीतिक हस्तक्षेप से भी दूर रखा जाए। क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेन्स की बात कहने वाले नेता इसे मूर्त रूप दे पायेंगे। अगर हां तो हालात में सुधार आयेगा और अगर नही तो हमें प्रिवेन्सन और करप्शन एक्ट 1988 की जगह प्रमोषन आफ करप्षन एक्ट 2011 में बना देना चाहिए। ताकी सबको जेब गरम करने का मौका मिले। अगर हालात नही बलने तो रोजनगार का अधिकार सूचना का अधिकार शिक्षा का अधिकार और भोजन के अधिकार पर इतराने वाली यूपीए सरकार से जनता कहीं यह न कहे कि राइट टू करप्षन एक्ट भी लाओ। ताकि खेल सबके सामने हो।





  

महंगाई डायन खाए जात है

महंगाई डायन से जनता परेशान और सरकार हैरान है। जनता इसलिए की बजट गड़बड़ा गया है और सरकार इसलिए की राजनीति कही गड़बड़ा न जाए। महंगाई रोकने का सरकारी खेल भी एकदम निराला है। यह न जनता के समझ में आता है और न ही महंगाई डायन को डराता है। महंगाई बड़ती है। प्रधानमंत्री चिन्ता प्रकट करते हैं। कृषि मंत्री जल्द ही दाम घटने की बात कहते हैं। इतना ही नही ज्यादा कुरेदने पर वह आगबबूला हो जाते हैं। अरे भाई। कोई ज्योतिषी थोड़ी न हैं, जो यह बता देंगे की दाम कब कम थमेंगे। विपक्ष सरकार को कोसता है। अर्थशास्त्री मांग और आपूर्ति के खेल में मामले को उलझाकर अपनी विद्धवता का परिचय देते हैं। सरकारी प्रवक्ता राज्यों को जमाखोरों पर नकेल कसने की नसीहत देते फिरते रहते हैं। और विपक्षी प्रवक्ता पानी पी पी कर सरकार को कोसते है। इन सबके के बीच इस नाटक में जनता और परेशान नजर आती है। पहले बड़ते दामों से और बाद में नेताओं के इस नाटक से। वह ना थोक मूल्य सूचकांक को समझती है और न ही उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का मतलब जानती है। उसे तो यह भी नही पता कि बार बार ऐसा क्यों कहा जाता है कि पहले जुलाई फिर नवंबर और बाद में मार्च तक खाद्य आधारित महंगाई 5.5 तक आ जाएगी। दुर्भाग्य से उसे असली सवालों का जवाब कभी नही मिलता। दरअसल सरकार के पास महंगाई रोकने के लिए व्यापक तंत्र है। साथ ही जमाखोरों को ठिकाने लगाने के लिए कानून भी। मगर महंगाई डायन है कि न तंत्र से डरती है न कानून से। वह तो बस सरकार की नीतिगत खमियों का फायदा उठाकर बिचैलियों और जमाखारों पर धन बरसा कर जनता को रूलाती रहती है। जनता जिसे न तंत्र का पता न कानून का। मगर कहानी बिना इसके अधूरी सी लगती है।
पहला तंत्र यह है कि उपभोक्ता मामले मंत्रालय के तहत एक दाम नियंत्रक सेल है। यह देशभर में 17 आवश्यक वस्तुओं के थोक और खुदरा मूल्य पर रोजना और साप्ताहिक नजर रखता है। मोटे तौर पर इसका काम  मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन साधना है। ताकि जनता को उचित दामों पर जरूरी साजो समान मिला जाए
प्रश्न नं 1- क्या यह विभाग अपनी जिम्मेदारी को निभा पा रहा है। अगर नही तो बिना देरी किए इसमें बदलाव लाया जाए नही तो ताला डाल दिया जाए।

दूसरा वित्त मंत्रालय के आर्थिक विभाग के तहत भी एक दाम नियंत्रक सेल काम करता है। इसका भी कामों दामों को नियंत्रित करना है। मगर नतीजा सिफर।
प्रश्न नं 2- क्या यह विभाग मात्र आंकड़े एकत्रित करने का तंत्र है।

तीसरा मंत्रीयों का समूह- सीधी भाषा में इसे ऐसे समझ सकते है कि दो मंत्रालय की जब किसी मुददे पर ठन जाती है तो मामला मंत्रीयों के समूह को भेज दिया जाता है। बहरहाल  महंगाई पर इसकी भी पैनी नजर होती है।
प्रश्न संख्या 3- इस समूह ने महंगाई रोकने के लिए कोई रामबाण तैयार किया।

चैंथा सचिवों की समिति- इसकी अध्यक्षता कैबीनेट सचिव करते है। महंगाई बड़ने के बाद यह प्रधानमंत्री के इशारे पर यह मैराथन बैठकें करता है। मानों की इनकी बैठकें महंगाई डायन की बढ़ते कदम थाम देगी।
प्रश्न संख्या 4- क्या इसके पास महंगाई रोकने के लिए कोई दीर्घकालिक योजना है।

पांचवा कैबीनेट कमिटि आन प्राइसेस- यह सबसे मजबूत समूह है। मतलब जब हालत काबू से बाहर हो जाए तो यह समूह हरकत में आता है। घंटों की माथापच्ची के बाद बैठक खत्म होती है। महंगाई कम करने के दर्जन भर सरकारी उपायों का ढोल पीटकर अपने कर्मों की इतिश्री कर ली जाती है। यह तो रहा सरकारी कारनामों का लेखा जोखा। मगर मामला इतने में ही नही थमता। मसला महंगाई का हो और  विपक्ष का गुस्सा सातवें आसमान पर न हो, भला यह कैसे हो सकता है। यह बात दीगर है कि आटा, चावल, दूध सब्जी, तेल और अन्य वस्तुओं के दाम उन्हें मालूम भी है या नहीं। खैर छोड़िये। मामला संसद में उठाऐंगे कहकर वह मामले के प्रति अपनी गंभीरता को प्रकट करते हैं। संसद सत्र शुरू होता है। सत्र के पहले कुछ दिन इस बात पर बर्बाद हो जाते हैं कि महंगाई पर चर्चा आखिर कौन से नियम के तहत हो। नियम 193 या 184 के तहत। यहां यह बताते चले की नियम एक 184 के तहत वोटिंग का प्रावधान है। लिहाजा ज्यादातर सरकारें इस नियम के तहत चर्चा कराने से दूर ही रहती हंै। इसी मुददे पर कई दिन तक हंगामा चलता है। बहरहाल सहमति बन जाती है। सदन में चर्चा शुरू होती है। आंकड़ों का महायुद्ध चलता है। विपक्ष के नेताओं की तीखे प्रहारों के बीच वित्तमंत्री चर्चा में हस्तक्षेप करते हैं। हस्तक्षेप का मुख्य जोर महंगाई रोकने से ज्यादा विपक्षियों को जलील करने पर रहता है कि हमसे ज्यादा महंगाई तो आपके कार्यकाल में थी। यानि इशारों को अगर समझो, राज़ को राज़ रहने दो। कृषि मंत्री के जवाब से असंतुष्ट विपक्ष वाक आअट करता है। खबर बनती है। और जयरामजी की। ऐसा लगता है कि कोई फिल्म चल रही है। जिसका कोई क्लाइमेक्स नही है। बेशर्म महंगाई डायन नेताओं की इतनी मेहनत के बाद भी कम होना का नाम नही लेती है। इसके बाद बारी आती है कानून की। डायन को डराने के लिए भी कानून है। दो कानून है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955। प्रिवेंशन आफ ब्लैक माकेर्टिक एक्ट 1988। कायदे से इसका इस्तेमाल राज्य सराकरों को जमाखोरों पर नकेल कसने के लिए करना चाहिए। मगर होता कुछ और है। इसका सही इस्तेमाल केन्द्र सरकार करती है। यह कहकर  कि राज्यों को इस कानून के तहत पूरी ताकत दी गई है। मगर राज्य इसका इस्तेमाल नही कर रहे हैं। क्योंकि महंगाई को रोकने की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य दोनों की है। अब मामला ठंडा पड़ने लगता है। इधर जनता महंगाई से ज्यादा इस नाटक से परेशान है। कुछ दिनों की शांति के बाद अचानक विपक्ष की ओर से बयान आता है। अगर महंगाई डायन को थामने की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्यों की संयुक्त है तो केन्द्र राज्यों के मुख्यमंत्री को बुलाकर बैठक करे। विज्ञान भवन में जलसा लगता है। प्रधानमंत्री लिखा हुआ भाषण पड़ते हैं। कुछ छोटी मोटी दिखावटी नोंकझोंक के साथ ममाला शांति से निपट जाता है। अब मुसीबत यह कि बाहर जाकर मीडिया को क्या कहें। जवाब तैयार हेाता है। मीडिया को कहा जाता है कि तीन है समिति बना दी गई है। पहली महंगाई को रोकने को लेकर, दूसरी वितरण प्रणाली को कैसे दुरूस्त किया जाए और तीसरी कृषि उत्पादन कैसे बड़ाया जाए। इन सब के बावजूद मगर महंगाई जारी है।
 इतिश्री महंगाई पुराणों प्रथमों सोपानः समाप्तः

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

लोकतंत्र से भ्रष्टतंत्र तक

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र या लूटतंत्र आप फैसला करिए। विधायिका कार्यपालिका न्यायपालिका और मीडिया कोई भी ऐसा पक्ष नही जिस पर जनता आंख बंद कर विश्वास कर सके। सब देष को लूटने में लगे हैं। सार्वजनिक जीवन में सदाचार की बातें करने वाले नेताओं की तिजोरियां लबाबलब भरी रहती हैं। और हो भी क्यों न राजनीति में आने का और क्या मकसद है। बेवकूफ तो हम इन्हें अपना जनप्रतिनिधि कहते है। नाम बदलों मित्रों यह धनप्रतिनिधि है। करोड़ों खर्च कर चुनाव जीतकर आने का मतलब यह कतई नही इन्हें समाज सेवा का चश्का है। दरअसल इन्हें नोट कमाने का चश्का है। और यही हो रहा है। जरा सोचिए जब उच्च पद पर बैठा मंत्री भ्रष्ट है तो उसके नीचे के हालात क्या होंगे। राज्य का मुख्यमंत्री अगर भ्रष्ट है तो राज्य का क्या हाल होगा। हालात इतने खराब हो चुके है कि विश्वसनियता का संकट शुरू हो चुका है। किसपर भरोसा करें समझ में नही आता। भ्रष्टाचार आज षिष्टाचार का रूप ले चुका है। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि जायज काम कराने के लिए भी घूस देनी पड़ रही है। दैनिका जीवन में यह कैंसर घुलमिल गया है। अगर हालात से निपटना है तो कुछ कड़े फैसले लेने होंगे। शुरूआत नेताओं से की जानी चाहिए। जिन नेताओं ने अनापशनाप पैस कमा रखा है उनपर नकेल कसी चाहिए। एक शिक्षा और स्वस्थ्य सुधार नामक कोष बनाकर इनकी अवैध कमाई की सारी राशि उसमें डाली जाए। चुनाव में होने वाले बेताहाशा खर्च पर रोक लगाई जाए। अकेले 15वी लोकसभा चुनाव में 10 हजार करोड़ रूपये खर्च हुए। जरा खर्चो के ब्यौरे पर एक नजर डालिए।
चुनाव आयोग     1300 करोड़
केन्द्र और राज्य   700 करोड़
राजनीतिक दल   8000 करोड़
पहला सवाल इतना पैसा आता कहां से है और दूसरा खर्चीले चुनाव के पीछे का मकसद। जाहिर है पैसा कारपोरेट जगत से आता है। सवाल यह कि इस चंदे के बदले वह कितना चंदा वसूलते होंगे। आज इस देश के पास एक मौका है भ्रष्टाचारियों के खिलाफ एक निर्णायक जंग छेड़ने का। शुरूआत राजा और कलमाड़ी से की जाए। मगर इस देष में ऐसे करोड़ों राजा और कलमाड़ी हैं। बदलना है तो इस व्यवस्था को बदलों जिसका फायदा यह लोग उठाते है।

रविवार, 19 दिसंबर 2010

उच्च शिक्षा के लिए बड़े निवेश की जरूरत

करीब चार साल के लंबे इंतजार के बाद विदेशी शैक्षणिक संस्थान विधेयक 2010 लोकसभा में पेश हो चुका है। इस विधेयक के कानून बनने के बाद विदेशी शैक्षणिक संस्थाओं को भारत में प्रवेश की इजाजत मिल जायेगी। मतलब अब भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालय में पढाई करने का सपना भारत में ही रहकर पूरा कर सकेंगे। एसोचैम की मानें तो इससे भारत को करीब 34500 करोड़ रूपए की सालाना बचत हो सकेगी। अनुमान है कि इतनी रकम भारतीय छात्र विदेश में पढ़ाई पर हर साल खर्च करते हैं। जानकार सरकार के इस कदम को एक अच्छी पहल मान रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालय भारत में खुलेंगे तो भारतीय प्रतिभाओं को शिक्षा का बेहतर मंच मिलेगा। ब्रेन डेन की कथित समस्या से काफी हद तक राहत मिलेगी। शिक्षा के क्षेत्र में बुनियादी ढांचा मजबूत होगा। लेकिन कुछ सवाल अभी बाकी हैं। मसलन अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के छात्रों को क्या आरक्षण की राहत मिलेगी। प्रवेश प्रकिया किस तरह की होगी। साथ ही प्रवेश शुल्क पर क्या कोई सरकारी नियंत्रण होगा। एक सवाल प्रशिक्षित शिक्षकों की वर्तमान कमी का भी है। वैसे सवाल कुछ और भी हैं। लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को इस विधेयक से काफी उम्मीदें हैं। बीते 6 दशकों से देष में उच्च शिक्षा की तस्वीर बेहतर नहीं है। हर 100 छात्रों में से महज 12 ही उच्च षिक्षा ग्रहण कर पाते हैं। नैक के मुताबिक देशभर के सिर्फ 10 फीसदी कालेज ही ए श्रेणी में जगह बना पाए हैं। विष्वविद्यालयों में अध्यापकों के 25 फीसदी पद खाली पड़े हैं। शिक्षा की गुणवत्ता आज भी बड़ी समस्या है। देश के 58 फीसदी स्नातक महीने का 6 हजार रूपए ही कमा पाते हैं। जिस तरह की शिक्षा मुहैया कराई जाती है क्या बदलते वक्त में बाजार में उस शिक्षा की मांग है या नहीं। ऐसे में कपिल सिब्बल को उच्च शिक्षा से जुड़े इन आंकड़ों को भी बदलना होगा। जिसके लिए भारी निवेश और बेहतर निगरानी तंत्र की दरकार है।

किसान का सरकारी सुख

देश में खेती को लेकर मंथन जारी है। वैसे इस वर्ष खद्यान्न का रिकार्ड तोड़ उत्पादन होने की संभावना है। खरीफ की फसल अच्छी हुई है। अब माना जा रहा है कि रबी फसल में भी अच्छा उत्पादन होगा। मगर कुछ चिंताऐं अब भी कायम है। दुनिया में सबसे ज्यादा सिंचित भूमि हमारे देश में है। मगर तमाम प्रयासों को बावजूद इसमें कमी आ रही है। 1980-81 में जहां 185.9 मिलियन हेक्टेयर जमीन सिंचित थी वह 2005-06 में यह गिरकर 182.57 मिलियन हेक्टेयर पर आ गई है। इसमें 50 फीसदी जमनी पर एक से ज्यादा फसल उगाई जाती है, वही बाकी 50 में सिर्फ एक ही फसल से संतोष करना पड़ता है। उत्पादकता के लिहाज से अभी भी ठहराव ही है। हमारे देश में उत्पादकता विकसित देशों के मुकाबले एक तिहाई है खासकर चावल के मामले में। साथ की उर्वरकों के इस्तेमाल से होने वाला उत्पादन का औसत भी लगातार गिर रहा है। इसका मुख्य कारण असंतुलित तरीके से उर्वरकों का इस्तेमाल जिसकी वजह से मिटटी की उर्वरा शक्ति में कमी आई है। बहरहाल सरकार इसके लिए सौइल हेत्थ कार्ड जारी कर रही है। इसके अलावा पिछले कुछ सालों में कई बड़े कदम उत्पादन बड़ाने व किसानों के हितों के ध्यान में रखते हुए उठाए गए हंै।
सरकार ने 2006 में 4 राज्यों के 31 जिलों में 16978.69 करोड़ का पुर्नवास पैकेज दिया। इन जिलों में किसानों ने सबसे ज्यादा आत्महत्या की थी। अब किसान इस पुर्नवास पैकेज का फायदा 30 सितंबर 2011 तक ले सकते हैं। सरकार ने इसकी अवधि 2 साल के लिए और बड़ा दी है। किसान ऋण माफी योजना जो 2008 में शुुरू की गई से तकरीबन 3.69 करोड़ किसानों को फायदा पहुंचा। इस योजना में 65318.33 करोड़ खर्च किया गया।
इतना ही नही जो किसान अपने तीन लाख तक का ऋण समय से जमा कर देंगे उसे 2 फीसदी ब्याज पर सब्सिडी दी जायेगी। यानि किसान को अब 3 लाख तक के लोन पर 5 फीसदी का ही ब्याज देना होगा बस उसे अपना ऋण समय पर चुकाना होगा। यह पहल किसान आयोग की उस सिफारिश पर की जा रही है जिसमें किसानों को 4 फीसदी की ब्याज पर लोन देने की सिफारिश की गई है। इसके अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी पिछले कुछ सालों में भारी बढोत्तरी की गई है। अच्छी खबर यह है कि इस साल दालों का रिकार्ड उत्पादन होने का अनुमान है। यह अनुमान 16.5 मिलियन टन के आसपास रखा गया है। यह एक अच्छी खबर है। हमारे देश में दालों की खपत 17 मिलियन टन के आसपास है। जबकि हम 14 मिलियन टन के आसपास उत्पादन कर पाते हंै। बाकी के लिए हमें आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। बहरहाल बड़े हुए उत्पादन से आयात में कमी आएगी। वर्तमान में देश भर में दालों का रकबा 23 लाख हेक्टेयर के आसपास है। साथ ही 2010-11 के बजट में प्रथम हरित क्रांति का विस्तार पूर्वी क्षेत्रों में बिहार झारखंड पूर्वी उत्तर प्रदेष, छत्तीसगढ़, ओडिसा और पश्चिम बंगाल तक ले जाने की घोषणा की गई थी। इसके अलावा दलहन और तिलहन के उत्पादन के लिए 60 हजार गांवों को चिन्हित किया जाएगा। इन दोनों योजनाओं के लिए बकायदा बजट में 450 और 300 करोड़ का आवंटन किया गया है। ऐसा लगता है इन दोनों मदों में इस बार अच्छी बढ़ोत्तरी देखने को मिलेगी।

उर्जावाणी

उर्जा खपत के हिसाब से भारत दुनिया का पांचवा देश है। यानि दुनिया की कुल खपत का 3.4 फीसदी भारत करता है। कहा तो यह भी जा रहा है कि 2030 तक भारत जापान और रूस को पीछे छोड़कर तीसरे स्थान पर काबिज हो जायेगा।
अमेरिका, चीन जापान रूस और भारत। एक तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए उर्जा की बड़ी जरूरत है। यही कारण ही की प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहाकार परिषद ने देश की तेजी से बड़ती विकास दर में सबसे बड़ा रोड़ा उर्जा की कमी को बताया था। भारत आने वालें सालों में अपनी विकास दर 10 फीसदी से उपर रखना चाहता है। मगर इसके लिए जरूरी है कि बिजली उत्पादन तेजी से हो। मौजूदा समय में इस देश में सबसे ज्यादा बिजली कोयले से पैदा होती है।
भारत में उर्जा उत्पादन
ताप उर्जा                            75 फीसदी
जलविद्युत उर्जा    21 फीसदी
परमाणु उर्जा                           4 फीसदी
मंाग और आपूर्ति में अंतर
10 फीसदी समान्य
12.7 फीसदी पीक आवर में 5 से रात ग्यारह बजे
कोयला
2012 तक 15 फीसदी की कमी मतलब 8 करोड़ टन से ज्यादा।
उर्जा क्षेत्र की विकास दर 10 प्रतिशत से बड़ रही है जबकि कोयले का उत्पादन 5 से 6 फीसदी की दर से बड़ रहा है।
2016-17 में यह अंतर बढ़कर 86.50 मिलियन टन हो जायेगा।
पवन उर्जा में दुनिया में पांचवा स्थान
अप्रेल 2010 तक 11807 मेगावाट इन्सटाल्ड कर ली गई है।
कुल क्षमता 48500 मेगावाट
10वीं योजना में 2200 मेगावाट टारगेट
प्राप्त किया 5426 मेगावाट
2022 तक 40000 मेगावाट करने का लक्ष्य
एक रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले 8 सालों में उर्जा के क्षेत्र में 1250000 हजार करोड़ की आवष्यकता होगी। सरकार इसके लिए सार्वजनिक निजि भागिदारी पर जोर दे रही है।
परमाणु उर्जा
फिलहाल कुल उर्जा खपत का 4 फीसदी हिस्सा परमाणु उर्जा से आता है। 2020 तक हमने 20 हजार मेगावाट उत्पादन का लक्ष्य रख है। जबकि 2050 में हमारा लक्ष्य यह है कि कुल खपत का 25 फीसदी इस क्षेत्र से आयेगा। इस समय देश में 19 परमाणु पावर प्लांट काम कर रहे है जिनकी उत्पादन क्षमता 4560 मेगावाट है।
सौर उर्जा
जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय उर्जा मिशन की शुरूआत नवंबर 2009 से हुई है। इसे तीन चरणों में विभाजित किया गया है। मार्च 2013 तक 4337 करोड़ के बजट से 11000 मेगावट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इसी क्रम को आगे बड़ाते हुए 2022 तक 20 हजार मेगावाट का लक्ष्य रखा गया है।
जल विद्युत परियोजना
देश में बिजली उत्पादन का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है। आज कुल खपत का 21 फीसदी इसी क्षेत्र से आता है। भारत में इसकी कुल क्षमता 150000 मेगावाट है मगर अभी तक हम इसका 25 फीसदी ही उपयोग में लाये है। विशेषज्ञों की माने तो बिजली उत्पादन की इस क्षेत्र में अपार संभावनाऐं है।

ढांचागत विकास जरूरी

ढांचागत विकास में तेजी लाने का आज सख्त दरकार है। दूरसंचार क्षेत्र को छोडकर सभी क्षेत्र मसलन सड़क रेलवे सड़क बिजली उत्पादन हवाई अड्डों के आधुनिकीकरण और बंदरगाहों की क्षमता बढ़ाने जैसे क्षेत्रों में काम काफी धीमा चल रहा है।
सड़क निर्माण -2010-11 में जहां 2500 किलोमीटर सड़कों का निर्माण होना था वही पहले 6 महिने में सिर्फ 691 किलोमीटर सड़कों का निर्माण हो पाया है। इसके लिए बकायदा 36524 करोड़ का आवंटन किया गया था मगर सितंबर तक केवल 7389.91 करोड़ रूपये ही खर्च हो पाए हैं। सड़क व परिवहन मंत्रालय ने 20 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा था।
बिजली उत्पादन -  यह क्षेत्र भी बढ़ती विकास दर के साथ कदमताल नही मिला पा रहा है। पहली छमाही में केवल 3.83 फीसदी की ही वृद्धि हुई है जो पिछले साल के इसी अवधि के 6.3 फीसदी के मुकाबले बहुत कम है।
रेलवे - रेलवे भी अपने सालान लक्ष्य से कोसों दूर है। इस मंत्रालय का निजाम जरूर बदल गया मगर परियोजनाओं में भारी देरी इस क्षेत्र के लिए आम बात हो गई है। 2010-11 के लिए 1000 रेलवे लाइन की विद्युतिकरण का लक्ष्य रखा गया था मगर पहुंच पाये सिर्फ 203 किलोमीटर तक। गेज परिवर्तन दोहरीकरण और नई लाइनों को बिछाने के मामले में निर्धारित लक्ष्य के मुकाबले 20 फीसदी भी कार्य नही हो पाया है। सवाल यह है कि शेष बचे 6 महिनों में 80 फीसदी कार्य पूरा हो पायेगा। उदाहरण के तौर पर इस साल 1000 किलोमीटर नई रेल लाइनें बिछाने का लक्ष्य रखा गया था मगर अब तक सिर्फ 59 किलोमीटर तक ही लाइन बिछाई जा चुकी है। अगर बुनियादी क्षेत्र का यही हाल रहा तो विकास दर दोहरे अंक में नही पहुंच पायेगी। फिलहाल उघोग और वाणिज्य संगठन सीआईआई ने ढांचागत विकास के लिए सरकार को दस सूत्रीय कार्यक्रम लागू करने की सिफारिश की है।
1-अहम परियोजनाओं के लिए नियुक्त हो विशेष दूत जो केन्द्र और राज्य सरकार के समक्ष बेहतर तालमेल स्थापित कर सके।
2-सार्वजनिक निजि भागीदारी को मजबूत किया जाए।
3-योजना आयोग के योजना के मुताबिक 11वीं पंचवार्षिय योजना में होगा 500 अरब रूपये का निवेश।
4-राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाओं को जल्द से जल्द शुरू किया जाए।
5-नए बंदरगाहों का तेजी से निर्माण हो।
6-बिजली वितरण की व्यवस्था को दुरूस्त किया जाए। साथ ही देश में बिजली की एक समान दरें लागू हो।
7-परमाणु उर्जा में निजि क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता साफ हो और निजि क्षेत्र की कंपनियों को परमाणु उर्जा संयंत्रो के निर्माण की छूट मिलें।
8-शहरीकरण पर विशेष ध्यान दिया जाए। 2005 में शुरू हुई इस योजना की समीक्षा की जाए।
9-नागरिक उडड्यन क्षेत्र में रेगुलेटर नियुक्त हेा।
10-हवाई अडडों के आधुनिकीकरण का काम तेजी से हो।

सड़क बनाने के लक्ष्य से काफी पीछे हम

यूपीए के दूसरे कार्यकाल में सड़क एवं परिवहन मंत्रालय का जिम्मा सभालने के बाद कमलनाथ ने प्रतिदिन 20 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा। यह वह समय था जब यूपीए सरकार सडकों को बनाने के धीमी प्रगति के चलते विपक्ष का निषाना बना रही थी। यही कारण था की जानकारों और खुद योजना आयोग इस लक्ष्य को महत्वकांक्षी मान रहा था। बहरहाल जो तस्वीर समाने है उसमें 12.3 किलोमीटर प्रतिदिन सड़को का निर्माण कराया जा रहा है। राष्ट्रीय राजमार्ग विकास प्राधिकरण के मुताबिक जमीन अधिकरण में देरी, भारी बारिश, समय से पर्यायवरण अनाप्प्ति प्रमाण पत्र का न मिलना, कानून व्यवस्था और कुशल मानव संसाधन की कमी सड़क बनाने की धीमी प्रगति का मख्य कारण है। अक्टूबर 2009 से सितंबर 2010 तक कुल 201 परियोजनाओं का ठेका दिया गया है। इन परियोजनाओं की कुल लम्बाई 9923 किलोमीटर है। कुल मिलाकर इस समय 14704 किलोमीटर सड़क कार्य का काम प्रगति में है। इस समय राष्ट्रीय राजमार्ग का चार चरणों में काम कराया जा रहा है और चारों ही चरणों
में काम की प्रगति काफी धीमी है। अकेले 2010-11 में 25000 मिलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा गया था मगर सितंबर महिने तक यानि पहले 6 महिने में 691 किलोमीटर ही सड़कों का निर्माण हो पाया है। इस मद में इस साल 36524 करोड़ का आवंटन किया गया है मगर पहले 6 महिने में सिर्फ 7389.91 करोड़ की खर्च हो पाये हैं। अब सवाल यह उठता है की मंत्रालय निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति क्या बचे हुए 6 महिनों में कर पायेगा।
आज भारत सड़कों के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है। देष भर में फैली सड़कों  की कुल लम्बाई 33.4 लाख किलोमीटर है।
विष्व का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क
कुल लम्बाई 33.4 किलोमीटर के आसपास 
राष्ट्रीय राजमार्ग 66590
राज्य राजमार्ग  128000
प्रमुख जिला सड़कें 470000
ग्रामीण व अन्य सड़कें 2650000
राष्ट्रीय राजमार्ग का नेटवर्क 2 प्रतिशत से कम है परन्तु यह कुल यातायात का 40 प्रतिशत भार वहन करता है। आज 65 फीसदी माल की ढुलाई और 80 फीसदी यात्री यातायात इन्ही सडको पर होता है। जहां सड़को पर यातायात 7 से 10 फीसदी सालाना आधार पर बढ़ रहा है। वही वाहनों की संख्या में तेजी 12 फीसदी के आसपास रही है। यही कारण है की अर्थव्यवस्था की गति को तेजी से बड़ाने के लिए सडकों का तेजी से निर्माण जरूरी है।

रविवार, 12 दिसंबर 2010

ढांचागत विकास में तेजी लाने का आज सख्त दरकार है। दूरसंचार क्षेत्र को छोडकर सभी क्षेत्र मसलन सड़क रेलवे सड़क बिजली उत्पादन हवाई अड्डों के आधिुनकीकरण और बन्दरगाहों की क्षमता बढ़ाने जैसे क्षेत्रों में काम काफी धीमा चल रहा है। 

सड़क-2010-11 में जहां 2500 किलोमीटर सड़कों का निर्माण होना था वही पहले 6 महिने में सिर्फ 691 किलोमीटर सड़कों का निर्माण हो पाया है। इसके लिए बकायदा 36524 करोड़ का आवंटन किया गया था मगर सितम्बर तक केवल 7389.91 करोड़ रूपये ही खर्च हो पाए हैं। सड़क व परिवहन मन्त्रालय ने 20 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा था। 
बिजली उत्पादन-  यह क्षेत्र भी बढ़ती विकास दर के साथ कदमताल नही मिला पा रहा है। पहली छमाही में केवल 3.83 फीसदी की ही वृद्धि हुई है जो पिछले साल के इसी अवधि के 6.3 फीसदी के मुकाबले बहुत कम है। 

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

उवर्रक क्षेत्र में निवेश

4 सितम्बर 2008 को सरकार ने उवर्रक क्षेत्र के लिए एक नई निवेश नीति की घोशणा की । इसका मकसद उवर्रक क्षेत्र में निवेश को आकिशZत करना था। यह नीति समता मूल्य बैंच अंकन पर आधारित है। इसके अलावा सरकार बन्द पडी  उर्वरक इकाइयों को खोलने पर भी विचार कर रही है। इसके लिए सचिवों के अधिकार प्राप्त समूह का गठन किया गया। जिसकी सिफारिशें सरकार के पास मौजूद है। मौजूदा समय में एचएफसीएल यानि हिन्दुस्तान फर्टीलाइजर कार्पोरेशन लिमिटेड और एफसीआइएल यानि फर्टीलाइजर कार्पोरेशन आफ इण्डिया लिमिटेड की 8 इकाइयां बन्द पड़ी है। इसके लिए विशेष अधिकार प्राप्त समूह ने बनाओं, मालिक बनो तथा चलाओं प्रणाली की सिफारिश की है। देश के सभी भागों में उर्वरकों की उपलब्धता कराने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। मौजूदा समय में उवर्रक की 56 इकाइयां है। इनमें से सार्वजनिक क्षेत्र की 8 और निजि क्षेत्र की 2 इकाइयां बन्द है। अगर इन्हे दोबारा खोला जाता है तो यूरिया की मांग और आपूर्ति में बड़ते अन्तर को यह काफी हद तक कम कर देगी। भारत में उवर्रकों की खपत में भारी बढोत्तरी हुई है। जहां 1951-52 में .49 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उवर्रकों का इस्तेमाल होता था वही आज प्रति हेक्टेयर 117.07 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल होता है वही चीन में 289.1. किलोग्राम प्रतिइहेक्टेयर, इजिप्ट में 555.10 और बग्लादेश में 197.6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल होता है।  इससे भी बड़ी बात कि बड़ती खपत के चलते उवर्रकों की सिब्सडी में 6 फीसदी की बढोत्तरी हुई है। 94 फीसदी की बढ़त का कारण अन्तराष्ट्रीय बाजार में उवर्रकों की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी है। जहां 2001 से 2008 के बीच में खाद्यान्न उत्पादन में 8.37 फीसदी की बढोत्तरी हुई उत्पादकता के मामले में 6.92 प्रतिशत की वृद्धि हुई वहीं सिब्सडी का बिल 214 प्रतिशत तक पहुंच गया। अकेले 2007-09 के दरमियान सिब्सडी बिल 146.56 फीसदी तक बड़ गया। इतना ही नही इस क्षेत्र में 2002 के बाद कोई निवेश नहीं हुआ। नाइट्रोजन के क्षेत्र में 1999 से कोई निवेश नही तो फौस्फेट के क्षेत्र में 2002 कोई नया निवेश नही किया गया। साथ ही खेतों की उर्वरा शक्ति लगातार कम होती जा रही है। वैज्ञानिक इसकी वजह उवर्रकों के असन्तुलित इस्तेमाल को मानते हैं। एनपीके का आदशZ अनुपात 4:2:1 है मगर भारत में यह 6:2:1 के के अनुपात में इस्तेमाल होता हैं। खेती में उवर्रको से उत्पादन होने वाले आनाज की मात्रा में भी बदलाव देखने को मिला है। 1960-61 में 13.45 से 2008 में घटकर 3.92 प्रतिशत पर आ गया है। रंगराजन समिति ने अपनी एक सिफारिश में कहा है कि 117 किलो उवर्रक सिब्सडी में दिया जाए बाकी किसान बाजार से खरीदे। इसके पिछे का तर्क है कि 81 फीसदी किसान छोटा और मझोला है।

क्रिकेटवाणी- 2011 का विश्वकप जीतने का सुनहरा मौका

न्यूजीलैण्ड की साथ एक एकदिवसीय श्रंखला को 5-0 से जीतकर भारत ने इतिहास रच दिया। यह पहला मौका होगा कि जब भारतीय टीम ने किसी भी टीम को किसी श्रंखला में क्लीन स्विप कर दिया। गौतम गम्भीर के नेतृत्व वाली इस टीम में भारत के कई होनहार प्रतिभावान और दिग्गज बल्लेबाज न होने के बावजूद हमारी टीम ने जबरदस्त खेल दिखाया। इस श्रंखला को देखकर यह विश्वास हो रहा है कि भारत विश्वकप का प्रबल दावेदार है। दरअसल यह जीत पिछली जीतों से अलग हैं। सबसे बड़ा फर्क यह है कि पहले की जीत मेहमान टीम के खराब प्रदशZन पर टिकी होती थी। इस बार भारत ने हर क्षेत्र में जबरदस्त खेल दिखाया। रनों का पीछा करते हुए भारतीय टीम ने यह संकेत दे दिया है कि उनके भीतर जीतने का जज़्बा है। यह पहला मौका है कि शुरूआती बड़े झटकों के बावजूद भारत ने 300 से ज्यादा रनों का पीछा कर जीत हासिल की। वरना अमूमन भारतीय टीम को शुरू के झटकों के बाद उभरते हुए कम ही देखा गया है वह भी तब जब आप तीन सौ से ज्यादा रन का पीछा कर रहें हों। इस श्रंखला में कई बातें समाने निकलकर आई हैं जिन्हें अगर गौर से देखें तो विश्वकप के लिए एक सन्तुलित टीम बनाने में मदद मिलेगी। गौतम गम्भीर ने इस सीरिज में जो प्रर्दशन किया है वह वाकई काबिले तारीफ है। खासकर विश्व कप से ऐन पहले उनका फार्म में आना और ‘ातक ठोकना भारतीय टीम के लिए अच्छी खबर है। उनकी सबसे बड़ी ताकत है वह बड़ी पारी खेल सकते हैं। विराट कोहली ने फस्ट डाउन में जिस तरह से खेल दिखाया उससे लगा की उनके खिलाने के लिए यह बेहतरीन जगह है। सबसे अच्छी बात जो इस युवा में दिखाई देती है कि वह फील्ड के चारो और शार्ट लगा सकता है। साथ ही गेन्दबाजी और फििल्डंग में भी कामयाब है। युवराज सिंह जो छक्के मारने के विशेषज्ञ माने जाते हैं उनकी फार्म वापस लौटी है। हमें याद रखना चाहिए के पहले 20-20 विश्व कप में इंग्लैण्ड के खिलाफ लगाए के 6 छक्कों की उस विश्व कप को जिताने में अहम योगादान था। चौन्था नाम आर अिश्वन। आर अिश्वन एक अ़च्छे स्पीनर साबित हो सकते है। खासकर जिसे तरह का खेल इस सीरिज में उन्होंने दिखाया है वह बाकी स्पीनरों मसलन प्रज्ञान ओझा और अमित मिश्रा के मुकाबले बेहतर है। यह सच है कि अनुभव के लिहाज से वह इन खिलाड़ियों से पीछे हैं। मगर वह अच्छे शार्ट भी खेलने के लिए जाना जाता है। पांचवा यूसूफ पठान। इस खिलाड़ी के 7 चौक्के और 7 छक्कों को शायद ही कोई भूल पायेगा। अगर युसूफ पठान यह फार्म बरकरार रखते हैं तो विश्वकप में वह किसी भी आक्रमण की कमर तोड़ सकता हैं। छठां धोनी का विकल्प कौन। मेरे हिसाब से पार्थिव पटेल। इस खिलाड़ी में गजब आग है। रिद्धिमान साहा और दिनेश कार्तिक के मुकाबले पार्थिव पटेल ज्यादा अच्छा खेलते है। खासकर उन्की बल्लेबाजी को में आईपीएल में एक ओपनर के तौर पर देख चुका हूं। आठवां सौरव तिवारी। यह खिलाड़ी लम्बी रेस का घोड़ा है। बेहतरीन फुटवर्क, बॉल पर गिद्ध की तरह नज़र और बड़े शार्ट लगाने की क्षमता। यह कछ ऐसे गुण जो उन्हे स्पेशल बनाते है। इसके अलावा गेन्दबाजी में जहीर खान और प्रवीण कुमार भारत को अच्छी शुरूआत दे सकते है। जहीर के पास अनुभव है तो प्रवीण कुमार के पास दोनों तरफ गेन्द को घुमाने की क्षमता। बहरहाल अगर विश्व कप में मुझे टीम चुनने का मौका दिया जाता तो मेरी टीम इस प्रकार होगी। विरेन्द्र सहवाग, गौतम गम्भीर, सचिन तेन्दुलकर, युवराज सिंह, सुरेश रैना, महेन्द्र सिंह धोनी, यसूफ पठान, हरभजन सिंह, प्रवीण कुमार, जहीर खान और आशीश नेहरा। यह क्रम बैटिंग लाइनअप के हिसाब से है। वही विराट कोहली, सौरभ तिवारी, प्रवीण कुमार और रोहित शर्मा को भी जरूरत पड़ने पर खिलाया जा सकता है। गेन्दबाजी को ज्यादा धारधार बनाने के लिए इशान्त शर्मा और एस श्रीशन्त को विकल्प के तौर पर खिला सकते है। 1983 के बाद भारतीय टीम आज सबसे मजबूत दिखाई दे रही है। बस जरूरत है एकजुट होकर खेलने की। अगर ऐसा हो गया तो हम इतिहास रच देंगे।

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

बदलते गांव

भारत और इण्डिया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के यह दो रूप हैं।। दोनों में अन्तर है। अन्तर है विकास का, सुविधओं का । बहरहाल सरकार इस फर्क को मिटाना चाहती है। कही ग्रामीण भारत बुनियादी जरूरतों से वंचित न रह जाए इसके लिए केन्द्रीय कार्यक्रमों की एक लम्बी फेहरिस्त है। जहां गांव में भारत निर्माण किया जा रहा है। वही शहरों की बुनियादी सुविधाओं के लिए जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण की शुरूआत की गई है। ग्रामीण विकास के महत्वपूर्ण कार्यक्रम निम्नलिखित है।

इन्दिरा आवास योजना
1985 से शुरू हुई इस योजना का मकसद हर गरीब को छत मुहैया कराना है। इस योजना के तहत सरकार पहाड़ी इलाको में 45000 और प्लेन इलाकों में 48500 रूपये मुहैया करा रही है। 2017 तक हर गरीब परीवार को छत मुहैया कराने का लक्ष्य रख गया है।
प्रधानमन्त्री ग्राम सड़क योजना
2000 से अस्तीत्व में आई इस योजना का मकसद ग्रामीण भारत में बारहमासी सड़कों का जाल फैलाना है। बहरहाल इस योजना का मकसद हर गांव को जिसकी आबादी पहाडी क्षेत्र में 250 और सामान्य क्षेत्र में 500 हो को बारामासी सडकों से जोड़ना है।
सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान
हर घर में शौचालय के निर्माण के लिए केन्द्रीय सहायता प्रदान करना। बहरहाल इस योजना को देश में के 606 जिलों में क्रियािन्वत किया जा रहा है। प्राथमिक स्कूलों और आंगनवाड़ी को भी शामिल गया है। लगभग 40 फीसदी ग्रामीण आबादी को अभी इस योजना के दायरे में लाना है।
महात्मा गांधी नरेगा
2006 में अमल में आए इस कानून के तहत हर परिवार को साल में 100 दिन रोजगार पाने का अधिकार है। ग्रामीण विकास मन्त्रालय के बजट का सबसे बड़ा भाग इस योजना के पास है। अकेले 2010-11 के लिए इस योजना को 41100 करोड़ आवंटित किये गए है।
स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना
बेरोजगारी को समाप्त करने की दिशा में यह कार्यक्रम मील का पत्थर साबित हो रहा है। यह कार्यक्रम 1999 में सामने आया। इससे पहले यह एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के नाम से जाना जाता था। खासकार उन युवाओ के लिए जो अपने पैर पर खड़ा होना चाहते है। सरकार ऋण पर सिब्सडी देती है। व्यक्तिगत तौर पर यह सिब्सडी 30 फीसदी और अनुसूचित जाति जनजाति और विकालांगों के लिए 50 फीसदी है। स्वयं सहायता समूह को भी 50 फीसदी सिब्सडी देने का प्रावधान है। बहरहाल इस कार्यक्रम का भी नाम बदलकर अब ग्रामीण आजीविका मिशन रख दिया गया है।

राजनीति पर कौन हावी है

जाति या विकास। आज कौन राजनीति की दिशा और दशा तय कर रहा है। क्या विकास का फैक्टर आज की राजनीति का सबसे बडा मुददा है। क्या जाति और धर्म से ज्यादा लोग सुशासन को तव्वजो लगे है। यह मेरी जाति का, यह मेरी बिरादरी का, मेरे मज़हब का जैसी बातो से आज लोग तंग आ चुके है। क्या विकास की राजनीति ने मण्डल और कमण्डल की राजनीति को बौना साबित कर दिया है। जरा सोचिए जो बिहार दशकों से जातियों की बेड़ियों में जकड़ा था, उस बिहार का जनादेश क्या कहता है। जरा सोचिए, क्यों यूपीए सरकार को दोबारा जनता ने केन्द्र की गददी सौंपी।  क्यों नरेन्द्र मोदी, नीतिश कुमार, शीला दिक्षित, रमन सिंह, राजशेखर रेडडी जो आज नही रहे, नवीन पटनायक और शिवराज सिंह चौहान को जनता ने दोबरा सरकार बनाने की बागडौर सौंपी। यह कुछ ऐसे यक्ष प्रश्न जिनका जवाब राजनीति के धुरंधर तलाशने में जुटे हुए हैं। जवाब इसका भी तलाशा जाने लगा है कि उन दलों का क्या होगा जिनका राजनीतिक भविश्य जाति और धर्म के नाम पर टिका है। बदलाव दिख रहा है मगर क्या यह जारी रहेगा। क्या मतदाता इस सिलसिले को बरकरार रखेंगे। बहराहाल कहानी कुछ भी हो जानकर इसे लोकतन्त्र के लिए एक शुभ संकेत मान रहे हैं।

रविवार, 28 नवंबर 2010

यह आर्थिक आतंकवाद है

क्या भ्रष्टाचार एक तरह का अर्थिक आतंकवाद नही है। ऐसा आतंकवाद जो देश की तरक्की में सबसे बड़ा बाधक है। जिसे देश में गरीबी का यह आलम है कि 77 फीसदी आबादी एक दिन में 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की हैसियत नही रखती वहां अरबों खरबों की लूट का लाइसेंस किसी को कैसे दिया जा सकता है। जहां तन ढकने के लिए कपड़ा, सर छुपाने के लिए छत और पेट भरने के लिए रोटी के लिए करोड़ों लोग रोजाना जददोजेहद कर रहे हों वहां कलमाड़ी या ए राजा जैसे लोगों का बोझ कैसे उठाया जा सकता है। दुर्भाग्य इस देश का यह है कि आज यहां आवाज उठाने वाला कोई नही है। मानो सबने भ्रष्टाचार  को सच्चाई मानकर स्वीकार कर लिया हो। किसी भी ने प्रतिरोध करने की जहमत नही उठाई। जो कर रहे है उनके दामन खुद दागदार है। बड़ी पीडा़ होती है तब जब भूख से अकुलाते बालक को देखता हूं। दुख होता है जब विश्व भुखमरी सूचकांक के आंकड़ों की ओट में भारत का स्थान देखता हूं। गुस्सा आता है जब बड़ी मछलियां अपने रसूक के चलते कानून को ढेंगा दिखाकर बच निकलते हैं। खून खौलने लगता है जब नेता अपने फायदे या नुकसान को ध्यान में रखकर इन मुददों को उठाते है और भूल जाते हैं। भले ही नेताओं को यह मुददा वोट पाने का औजार लगता हो, मगर हमारे जैसे नौजवानों के लिए यह जीवन मरण का प्रश्न है। जिसे देश में किसान आत्महत्या कर रहें हों, बच्चों की एक बड़ी आबादी कुपोशण का शिकार हो, महिलाओं में खून की कमी हो, अवसंरचना विकास के लिए धन की कमी एक बड़ा रोड़ा हो, पुलिस जज और शिक्षकों के लाखों पद खाली पड़े हों, गांव में पीने का पानी, स्वच्छता और बिजली का अभाव हो वहां भ्रष्टाचार को एक साधारण घटना मान लेना या भ्रष्टाचारियों को प्रसय देना आत्मघाती साबित होगा। आज यह बात पूरा देश जानता है कि स्विस बैंकों में सबसे ज्यादा काला धन भारतीयों का है। यह  इतना है कि  भारत का कर्ज और गरीबी दोनों मिट सकती है। मगर इस आग में हाथ डालने की हिम्मत किसी की भी नही। उनकी भी नही जो आम आदमी के साथ अपना हाथ होने का पाखण्ड करते है या वो जो पार्टी विद द डिफरेन्स होने का स्वांग रचते हैं। सच तो यह है कि यह उस भूखे भेड़िये की तरह हैं जो मौका मिलने पर मांस को लोथड़ों को  नोचने के लिए तैयार रहते है। आजाद भारत को सपना जो बलिदानियों ने देखा था वह टूटता प्रतीत हो रहा है। आज जरूरत है इस सपने को टूटने से बचाने की, मिलकर एक आवाज उठाने की जो इस भ्रष्टतन्त्र की नीव को हिला सके। मगर इसके लिए जरूरी है कि समय रहते कुछ बड़े कदम उठाने की। पहला भ्रष्टाचार एक तरह का आतंकवाद है जिसकी सजा भी वही होनी चाहिए जो आतंक के खिलाफ बनाये गए काननू में लिखी है। दूसरा भ्रष्टाचार के मामलों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन हो जिसकी समय सीमा प्रति मुकदमा 6 महिना हो। तीसरा लोगों को इस मुददे को गम्भीरता से लेते हुए सोचना होगा की कौन सा ऐसा राजनीतिक दल है जो इस कैंसर से निपटने में अपनी कथनी और करनी में फर्क न करे जो मैं मानता हूं की मुश्किल काम है।
मैं चाहूं तो निजा में कूहून बदल डालूं , फ्रफकत यह बात मेरे बस में नहीं, 
उठो आगे बड़ो नौजवानों, यह लड़ाई हम सब की है, दो चार दस की नहीं 
दो चार दस की नहीं। 

शनिवार, 27 नवंबर 2010

नया बिहार क्या कहता है

बिहार का जनादेश क्या कहता है। सबके जेहन में यही बात है। क्या बिहारी अवाम ने जातिवाद को नकारकर सिर्फ और सिर्फ विकास के नाम पर वोट दिया है। या बिहार की जनता के पास एनडीए गठबंधन के अलावा कोई विकल्प नही था। या फिर लोगों को नीतीश में वह क्षमता दिखाई दी जो बिहार में विकास की नई कहानी लिखने का माददा रखता है। इस चुनाव में जो प्रचण्ड जनादेश एनडीए गठबंधन के पक्ष में आया उसने यह साफ कर दिया की भारतीय मतदाता के लिए विकास अब सबसे बड़ा मुददा है। यही कारण है कि लालू पासवान की जोड़ी को जनता ने आइना दिखा दिया। इस चुनाव ने एक बार फिर परिवारवाद को भी तमाचा मारा है। इसका जीता जागता उदाहरण राबड़ी देवी का दोनों विधानसभाओं राघोपुर और सोनपुर ने बुरी तरह आ गई। यह दोनों इलाके यादव बहुल और लालू के गड़ माने जाते हैं। मगर वोट को अपनी जागीर समझने वाले नेताओं को कौन समझाये कि जनता को ज्यादा दिन तक अंधेरे में नही रखा जा सकता। यह दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण है। इससे पहले मुलायम सिंह की बहू को फिरोजाबाद से जनता नकार चुकी है। यह इलाका भी मुलायम सिंह का गड़ माना जाता है। सवाल यह कि क्या यह उन नेताओं के लिए सन्देश है जो परिवारवाद को बड़ावा दे रहे है। सबसे बुरी दशा कांग्रेस की हुई है। वह कांग्रेस जो केन्द्र में है जिसके पास सोनिया और राहुल है। दरअसल कांग्रेसी हमेशा इस गलत फहमी में रहते है की यह दोनों नेता उनकी जीत को हार में बदल देंगे। नतीजा यह रहा कि राहुल गांधी ने जिन 17 जगहों पर बिहार में प्रचार किया वहां एक दो जगह छोड़कर पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। आजादी के इन 6 दशकों में बिहार में कांग्रेस राजद और एनडीए गठबंधन ने राज किया। इनमें लालू राज में बिहार की हालत बद से बदतर हो गई। कानून व्यवस्था को लेकर बिहार सुर्खियों में रहने लगा। नीतीश ने इसी नब्ज को दबाया और 50 हजार से ज्यादा अपराधियों को जेल में डाल दिया। नतीजा लोग अब देर सबेर कहीं भी आ जा सकते है। दूसरा काम सड़कों के निर्माण का। तीसरा दलितों और अकलियतों में अति दलितों का पहचान कर उनके विकास के लिए कार्यक्रम चलाना। महिलाओं को पंचायत और शहरी निकाय में 50 फीसदी आरक्षण प्रदान करना। आज बिहार में लोग प्राथमिक चिकित्सालय में इलाज के लिए आ रहे हैं। लोगों में विकास की एक नयी ललक जगी है। जरूरत है इस ललक को बनाये रखना। नीतीश कुमार 2015 में बिहार को विकसीत राज्या बनाने की बात कर रहें है। मगर इसके लिए उन्हें निवेश के लिए उद्योगपतियों को बिहार में बुलाना पड़ेगा। अपने वादे के मुताबिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बेहतर बनाना होगा। पलायन रोकने के लिए कुछ बड़े कदम उठाने होंगे।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

कितनी बदली दिल्ली

एक बड़ा आयोजन किसी शहर की दशा और दिशा बदल सकता है। जब में कामनवेल्थ गेम्स के आयोजन के बारे में सोचना हूं तो कई बातें जेहन में उभरने लगती है। मीडिया में भ्रष्टाचार की खबरें। खेलों के आयोजन को लेकर पसोपेश। इन सबके बीच मेडल के लिए इन्तजार में खेलों का आयोजन भव्य हुआ मगर इसके बाद उन लोगों के खिलाफ अभियान छेड़ने की जरूरत थी जिसने देश की जनता के खून पसीने की गाड़ी कमाई पर अपने हाथ साफ किए।
जबरदस्त आगाज
सात साल का लम्बा इन्तजार, कई उतार चढ़ाव अलोचनाओं और आशंकाओं के बीच शुरू हुआ राष्टमण्डल खेल।दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में हुए 19वें राष्ट्रमण्डल खेलों के उदघाटन समारोह ने ऐसा समां बांधा ही हर कोई मन्त्रमुग्ध हो गया। पूरा स्टेडियम दूधिया रोशनी से नहाया था। नेहरू स्टेडियम 1982 एशियाड के बाद दूसरे मेगा इवेंट के उद्घाटन का गवाह बना। 71 देशों के खिलाड़ियों ने अलग अलग पहनावे से पूरे माहौल को रंगीन कर दिया। भारत की विविधता और सांस्कृतिक छठा का यहां अद्भुत नजारा देखने को मिला। ढोलों की थाप ने ऐसा सुर बिखेरा की हर कोई छूमने को मजबूर हो गया। भव्य समारोह की शुरूआत भारतीय परंपरा के अनुसार स्वागत गीत से हुई जिसे मशहूर गायक हरिहरन ने गाया। क्लासिकल डांस, ढोल और सितार जैसे परंपरागत वादय यन्त्रों ने सबका ध्यान खिंचा। सबसे ज्यादा दर्शकों के लिए आनन्द का पल बना आस्कर विजेता एआर रहमान का राष्ट्रमण्डल के लिए बनाया गया थीम सांग। इस समारोह में कई अदभुत नजारे देखने को मिले। उदघाटन समारोह में पहले सवालों से घिरा एरोस्टेट पैसा वसूल साबित हुआ। इसका नजारा इतना भव्य था कि सांस्कृति कार्यक्रमों के दौरान लोगों को समझ में नही आ रहा था कि एक साथा क्या क्या देंखे। एरोस्टेट से ही लटकती मटकती कठपुतलियों ने सबका दिल जीत लिया। छोटी कठपुतलियों तो आप और हम सभी ने देखी होंगी लेकिन राजा रजवाड़ों की पोशाक में सजी कई फुट उंंची कठपुतलियों ने समंा बांध दिया। इतना ही नही सूर्यनमस्कार समेत योग की कई मुद्राए दिखाई गई। मानव शरीर के सात चक्रों को जिसे खूबसूरती से दिखाया गया वह अद्भुत था। सेण्ड आर्ट के कलाकारों ने महात्मा गांधी की डाण्डी यात्रा को रेत पर उकेरकर सबको दातों तले अंगुली दबाने पर मजबूर कर दिया। अमिताभ, शाहररूख और आमिर के पोस्टर से सजी ट्रेन जब छुक छुक करती हुई ग्राउण्ड में आई तो दर्शक खुशी से झूम उठे। खास बात यह थी कि इसमें पूजा करते साधु भी दिखायी दिए तो हाथ जोड़कर वोट मांगते नेता भी। इस कार्यक्रम ने दुनिया को दिखा दिया कि भारत विश्व में वाकई अतुल्य है।
विश्वस्तरीय सुविधाऐं
खेलों के लिए इस बार बुनियादी सुविधाओं को खास तवज्जों दी गई है। 17 खेलों के आयोजनों के लिए 10 स्टेडियमों निर्माण किया गया है। यह सभी स्टेडियम विश्वस्तरीय सुविधाओ से लैस बनाया गया है। व्यस्त सड़कों में यातायात व्यवस्था के सफल संचालन के लिए दर्जनों फलाइओवर बनाये गए है। दिल्ली में बने  फुट ओवर ब्रिजों ने लोग के लिए के लिए सड़क पर करना आसान कर दिया है। पहले इन सड़को को पार करने में न सिर्फ समय बबाZद होता था। बल्कि जान जोखिम में डालनी पड़ती थी । इनमें खास बात यह है कि  इसमें एस्कलेटर के साथ साथ  लिफ्ट की भी सुविधा मुहैया कराई गई है। सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करने की दिशा की ओर कदम बड़ाते हुए कई लो फलोर बसें सडकों पर उतारी गई है। मेट्रो आज दिल्ली का परिवहन व्यवस्था की लाइफ लाइन बन चुकी है। न सिर्फ दिल्ली तक बल्कि एनसीआर इलाके तक भी मेट्रो का जाल बिछाया जा चुका है।  खेलों की तैयारी के साथ साथ पर्यायवरण संरक्षण एक बडी चुनौति था।
पर्यायवरण को प्राथमिकता
विभिन्न निमार्ण कार्यो के दौरान इस बात का खास ख्याल रखा गया कि दिल्ली को हरा भरा बनाने मे कोई कोर कसर बाकी न रह जाये। डिपार्टमेंट आफ फोरेस्ट एण्ड वाइल्ड लाइफ ने 17 ग्रीन एजेंसियों के साथ मिलकर 12.06 लाख पौधे लगाने का लक्ष्य रखा है। साथ की ग्रीन दिल्ली कैम्पेन के चलते दिल्ली में हरियाली बड़े पैमोने में बड़ी है। मगर पार्ययवरण विद मानते है कि असली चुनौति इन खेलों के बाद शुरू होगी। यानि पेड़ को बचाये रखना अब सबसे बड़ी जिम्मेदारी होगी।
दिल्ली हुई किले में तब्दील
खेलों के मददेनज़र दिल्ली के किले में तब्दील किया गया है। जहां नज़र दौड़ती है हर तरफ सुरक्षा कर्मी मुस्तैद दिखाई देंगे। सुरक्षा में 1 लाख से ज्यादा अद्धसैनिक बल और दिल्ली पुलिस के जवान मौजूद है। सुरक्षा एजेंसियों ने हर स्थिति से निपटने के लिए पुख्ता इन्तजाम किए है। सुरक्षा बल स्टेडियमें में अत्याधुनिक हथियार और उपकरणों के साथ तैनात किए गए है। खिलाडियों की आवाजाही के लिए एक एक डैडीकेटेड लेन रिसर्च की गई है। विशेष सुरक्षा दस्ते की देखरेख में  खिलाडियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा रहा है। जगह जगह तलाशी अभियान भी चलाया गया है। दिल्ली पुलिस का भी मानना है कि सुरक्षा के इन्तजाम बेहतर है।
क्या सीखा हमने
 यह आयोजन भारत के लिए बडे गौरव का विषय था। मगर इसने हमें एक सीख भी दी कि भारत में लालच इतना बड़ चुका है कि किसी भी व्यक्ति के लिए पैसे से बड़कर कुछ नही। आज जरूरत है ऐसे लोगों के जेल भेजने की। ताकि फिर कोई व्यक्ति ऐसे कर्म करने से पहले सौ बार सोचे।

बुधवार, 17 नवंबर 2010

खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में बड़े सुधार की जरूरत

भारत विश्व में प्रमुख खाद्य उत्पादक देश है। दूध दालों और चाय का विश्व में सबसे ज्यादा उत्पादन भारत में होता है। जबकि फलों और सब्जियों के मामले में हमारा स्थान दूसरा है। मगर दुनिया के खाद्य बाजार में हमारी हिस्सेदारी 2 प्रतिशत से भी कम है। हमारे देश में खाद्य प्रसंस्करण का स्तर 6 फीसदी से नीचे है। वही विकसित दशों में यह स्तर 60 से 80 फीसदी तक है। यहां तक की एशियाई और लातिन अमेरिकी दशों में यह 30 प्रतिशत से ज्यादा है। हालांकि सरकार अब इस उघोग की दशा और दिशा  सुधारने में जुट गई है। इसी को ध्यान में रखकर 2005 में विजन 2015 नामक एक दस्तावेज तैयार किया गया है। इसके तहत जल्द खराब होने वाले खाद्य पदार्थो के प्रसंस्करण का स्तर 6 से 20 फीसदी करने और मूल्य संवर्धन को 20 से 35 फीसदी तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। जानकार मानते है कि अगर ऐसा करने में हम सफल होते है तो विश्व खाद्य बाजार में भारत की हिस्सेदारी 2 से बढकर तीन प्रतिशत हो जायेगी। बहरहाल 11 वीं पंचवषीZय योजना में सरकार ने कुछ बड़े कदम उठाये हैं। इनमें मेगा फूड पार्क, शीत नियन्त्रण श्रंखला, मूल्य संवर्धन तथा बूचड़खानों के आुधनिकीकरण जैसे कदम अहम है। मगर एक आंकड़े के मुताबिक वर्तमान में 50 हजार करोड़ की फल और सब्जियां सालाना बबाZद हो जाती है। बहरहाल खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की ध्यान में रखकर मन्त्रालय ने एक विज़न 2015 नामक दस्तावेज तैयार किया है। इस दस्तावेज के तहत 2015 तक इस क्षेत्र में 1 लाख करोड़ के निवेश की बात कही कई है। इसमें 45 हजार करोड़ रूपये निजि क्षेत्र से आने की बात कही है। साथ ही 50 हजार करोड़ का निवेश 2012 के अन्त तक आयेगा। इस क्षेत्र में रोजगार की भी अभूतपूर्व संभावनाऐं हैं। जानकारों के मुताबिक अगर इस क्षेत्र में 1 करोड़ का निवेश होता है तो 18 लोंगों को प्रत्यक्ष रोजगार और 36 लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा । बहरहाल सरकार सरकार सामान्य क्षेत्र के लिए 50 लाख तक के उद्योग के लिए 25 फीसदी सिब्सडी और दुर्लभ क्षेत्रों के लिए 33 फीसदी सिब्सडी दे रही है। जानकार कि मानें तो इससे किसान की आय में भी बढोत्तरी होगी।

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

संयुक्त राष्ट्र में भारत

19 साल के अन्तराल के बाद भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य बनने में कामयाब रहा। 192 देशों में 187 देशों ने भारत की दावेदारी का समर्थन किया। भारत 1992 से पहले यूएन का 6 बार अस्थाई सदस्य रह चुका है। 1996 में वह जापान से 100 मतों से मात खा गया। वैसे कजाकिस्तान के इस साल के शुरूआत में ही पीछे हटने के बाद भारत की जीत में निश्चित माना जा रहा था। मगर भारतीय रणनीतिकार कोई कोर कसर बाकी नही छोड़ना चाहते थे। इसी के मददेनज़र विदेश मन्त्री एसएम कुष्णा ने कई देशों के विदेश मन्त्रियों से खुद मुलाकात कर निश्चित किया की इस बार माहौल बनाने में कोई कमी नही रह जाए। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिशद में कुल 15 सदस्य है जिसमें 5 स्थाई और 10 अस्थाई सदस्य है। विदेश नीति के जानकार भी मानते है कि 187 देशों का समर्थन अपने आप यह बयां करता है कि विश्व पटल में भारत की हैसियत क्या है। मगर इस मुल्क की असली परीक्षा संयुक्त राष्ट्र में सुधार की कवायद को अंजाम तक पहुंचाना है। आज भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिशद की स्थाई सदस्यता का प्रबल दावेदार है। बकायदा पी 5 देशों में से रूस, फ्रांस और ब्रिटेन उसकी दावेदारी के समर्थन का भरोसा दिला चुके है। बचा अमेरिका और चीन। अमेरिकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा की नवंबर में भारत यात्रा के दौरान भारतीय रणनीतिकार उनका मन टटोलने का प्रयास जरूर करेंगे। और रही बात चीन की तो बदलते परिवेश में लम्बे समय तक भारत का विरोध वह कितने समय तक कर पायेगा।

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

कुछ किये बिना जयजयकार नही होती कभी

क्वालालामपुर में 25 पदक। मेनचेस्टर में 30 स्वर्ण सहित 69 पदक, मेल्बर्न में 22 स्वर्ण सहित 50 पदक और राष्ट्रमण्डल खेलों में इस बार 38 गोल्ड, 27 सिल्वर और 36 ब्रोन्ज सहित कुल 101 मेडल। क्या हम शतक लगाऐंगे। यह सवाल हर आमोखास के दिमाग में कौन्द रहा था। लोकसभा टीवी के कार्यक्रम लोकमंच में में भी हमारा अनुमान यही था की इस बार हमारी तैयारी को देखते हुए लगता है कि हमें सैकड़ा जमाने से कोई नही रोक सकता। हालांकि यह किसी करिश्मे से कम नही था की एथलेटिक्स में भी हमें मेडल प्राप्त हुए। मगर इस मेजबानी ने देश में विभिन्न खेलों के लिए हमारे दिल में एक अहसास जगाया। मैं नही जानता था की तीरन्दाजी में स्वर्ण पदक जीतने वाली दीपिका कुमारी एक साधारण परिवार से आती है। दीपिका ने जब गोल्ड पर निशाना लगाया तो पूरे देश ने जाना की इस खिलाड़ी ने इस मुकाम को पाने के लिए कितनी साधना की होगी। हमेशा की ही तरह यहां भी निशानेबाजों में सबसे ज्यादा पदक जीते। निशानेबाजी ने हमारे खाते में 14 गोल्ड, 11 सिल्वर और 5 ब्रोन्ज मेडल आये। इसके बाद कुश्ती में 10 स्वर्ण, 5 सिल्वर और 4 ब्रोन्ज मेडल जीते। कुश्ती में 6 गोल्ड मेडल फ्री स्टाइल कुश्ती में और 4 ग्रीमोरोमन में हासिल किये। एथलेटिक्स जिसमें हमारी आशा न के बराबर थी वहां भारतीय खिलाडियों ने हमें गलत साबित किया। कुल मिलाकर इस इस खेल में हमें 2 स्वर्ण प्राप्त हुए। डिस्कस थ्रो में कृष्णा पुनिया ने गोल्ड जीतकर सबको चौंका दिया। इस खेल में सिल्वर और ब्रोन्ज भी हमारे खाते में आया। मुक्केबाजी में हालांकि आशा के अनुरूप मेडल नही मिले लेकिन हमारे मुक्केबाजों के मुक्के जमकर विपक्षियों पर बरसे। जिमनास्टिक जिसके बारे में आशा न के बराबर थी वहां आशीष कुमार ने गलत साबित करके दिखा दिया। टेनिस खिलाड़ी भी उतना नही कर पाये जितनी हम उनसे उम्मीद लगाये बैठे थे। महज सोमदेव देव वर्मन ने भारत की एक गोल्ड जीतकर लाज बचाई। हाकी में शरूआत में झटका खाकर हमने पाकिस्तान और इंग्लैण्ड को धूल चटा दी। यह बात दिगर है कि फाइनल में हमें आस्ट्रेलिया ने 8-0 से धो डाला। बैडमिंटन में साइना नेहवाल ने उलटफेर भरे मैच में भारत की जीत दिलाई। यही वह मेडल है, जिसने हमें दूसरे स्थान में लाकर खड़ा कर दिया। दिल्ली में हुए इन खेलों ने क्रिकेट के दबदबे वाले इस देश में दूसरें खलों के प्रति भी दशZको को दिवाना होते हुए देखा है। अगर यह रफतार कायम रही तो वह दिन दूर नही जब विश्व में हमारा रूतवा होगा। ऐसा नही होगा की 1 अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश को ओलम्पिक में 1 स्वर्ण पदक से सन्तोष करना पड़ेगा।

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

महात्मा गांधी


ऐसे अदुभुत सेनानी थे,
        जो रण में खुद लड़ पड़ते थे। 
देते थे उपदेश जो हमको, 
        उसमें  आगे बड़ते थे।
दिया स्वराज अहिंसा से,  
        इतिहास बदलते चले गए।
उड़ा आजादी का झण्डा, 
            बाबू बड़ते चले गए।









हैं तैयार हम

17 खेल, 72 देश, 829 तमगे दांव पर। 3 से 14 अक्टूबर को होने वाले 19 वें राष्ट्रमण्डल खेलों की रणभेरी बच चुकी है। हर खिलाड़ी जीतना चाहता है। हर कोई तमगे से कम कुछ नही चाहता। ऐसे में मुकाबला कितना रोचक होगा इसका अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है। भारत 495 खिलाड़ियों के साथ 17 विभिन्न खेलों में जीतने के इरादे से उतरेगा। 2006 मेलबर्न में भेजे गए 180 खिलाड़ियों के मुकाबले यह आंकड़ा 3 गुना ज्यादा है। इन खेलों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत पदकों का सैकड़़ा जड़ने में कामयाब हो पायेगा। ऐसा इसलिए भी कि बाकी सालों के मुकाबले इस बार खिलड़ियों की ट्रेनिंग में खास ध्यान दिया गया है। खेल मन्त्रालय को सबसे ज्यादा भरोसा निशानेबाजों पर है जिससे 30 से 35 मेडल आने की उम्मीद है। इसके अलावा 21 कुश्ती से 10 से 12 भारोत्तोलन से, 6 से 8 मुक्केबाजी से और 8 से 10 मेडल एथलेटिक्स से आ सकते है। मगर इसके लिए हर खिलाड़ी को अपनी ऐड़ी चोटी का जोर लगाना होगा। भारत ने मेनचेस्टर खेलों में अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदशZन किया है। इसमें भारत ने 30 गोल्ड, 22 कांस्य  और 17 रजत पदक सहित कुल 69 मेडल जीते। खास उपलब्धि महिला हॉकी टीम का गोल्ड मेडल जीतना था। निशानेबाजी में अंजलीभागवत ने मेनचेस्टर में निशानेबाजी में 4 गोल्ड मेडल जीते। जसपाल राणा भी 4 गोल्ड मेडल पर निशाना लगाने में कामयाब रहे। इस बार भारत रग्बी, लॉन बोल्स और नेटबॉल्स जैसे खेलों में भी पहली बार हाथ आजमायेगा। साथ ही नज़र इस बात पर भी होगी क्या पदक तालिका में भारत पहले से सुधार कर चौन्थे से तीसरे स्थान पर कब्जा जमा पायेगा। कुल मिलाकर उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। दिल की धड़कनें तेज है। हर किसी  की निगाहें इसी पर है कि क्या भारत घरेलू माहौल का फायदा उठाते हुए हिन्दुस्तानियों की उम्मीदों पर खरा उतर पायेगा।

हैं तैयार हम

17 खेल, 72 देश, 829 तमगे दांव पर। 3 से 14 अक्टूबर को होने वाले 19 वें राष्ट्रमण्डल खेलों की रणभेरी बच चुकी है। हर खिलाड़ी जीतना चाहता है। हर कोई तमगे से कम कुछ नही चाहता। ऐसे में मुकाबला कितना रोचक होगा इसका अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है। भारत 495 खिलाड़ियों के साथ 17 विभिन्न खेलों में जीतने के इरादे से उतरेगा। 2006 मेलबर्न में भेजे गए 180 खिलाड़ियों के मुकाबले यह आंकड़ा 3 गुना ज्यादा है। इन खेलों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत पदकों का सैकड़़ा जड़ने में कामयाब हो पायेगा। ऐसा इसलिए भी कि बाकी सालों के मुकाबले इस बार खिलड़ियों की ट्रेनिंग में खास ध्यान दिया गया है। खेल मन्त्रालय को सबसे ज्यादा भरोसा निशानेबाजों पर है जिससे 30 से 35 मेडल आने की उम्मीद है। इसके अलावा 21 कुश्ती से 10 से 12 भारोत्तोलन से, 6 से 8 मुक्केबाजी से और 8 से 10 मेडल एथलेटिक्स से आ सकते है। मगर इसके लिए हर खिलाड़ी को अपनी ऐड़ी चोटी का जोर लगाना होगा। भारत ने मेनचेस्टर खेलों में अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदशZन किया है। इसमें भारत ने 30 गोल्ड, 22 कांस्य  और 17 रजत पदक सहित कुल 69 मेडल जीते। खास उपलब्धि महिला हॉकी टीम का गोल्ड मेडल जीतना था। निशानेबाजी में अंजलीभागवत ने मेनचेस्टर में निशानेबाजी में 4 गोल्ड मेडल जीते। जसपाल राणा भी 4 गोल्ड मेडल पर निशाना लगाने में कामयाब रहे। इस बार भारत रग्बी, लॉन बोल्स और नेटबॉल्स जैसे खेलों में भी पहली बार हाथ आजमायेगा। साथ ही नज़र इस बात पर भी होगी क्या पदक तालिका में भारत पहले से सुधार कर चौन्थे से तीसरे स्थान पर कब्जा जमा पायेगा। कुल मिलाकर उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। दिल की धड़कनें तेज है। हर किसी  की निगाहें इसी पर है कि क्या भारत घरेलू माहौल का फायदा उठाते हुए हिन्दुस्तानियों की उम्मीदों पर खरा उतर पायेगा।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

एशियाड से राष्ट्रमण्डल तक

एशियाड से राष्ट्रमण्डल तक के 28 साल के इस सफरनामे में भारत या कहें दिल्ली काफी बदल चुकी है। देश की राजधानी अब 19वें राष्ट्रमण्डल खेलों की मेजबानी के लिए तैयार है। इन खेलों की मेजबानी 2003 में मिली जब एनडीए सरकार केन्द्र में थी। 2004 में केन्द्र में यूपीए सरकार काबिज हुई जो अपनी दूसरी पारी खेल रही है। 3 से 14 तारीख के बीच होने वाले इन खेलों में भारत खासकर हम सभी को अपने खिलाड़ियों से खासा उम्मीद है। 71 देश के 7000 से ज्यादा खिलाडी इसमें भाग लेंगे जिसमें 17 खेल स्पर्धाऐं होनी है। पर्यटन के लिहाज से 20 लाख से ज्यादा पर्यटकों के आने की संभावनाऐं हैं। इन खेलों के लिए 3 नए स्टेडियम तैयार किये गए है बाकियों में सुधार किया गया है। समय से काम नही किए जाने और कथित भष्टाचार के चलते खेलो की तैयारियां पर कई सवाल उठे। जबकि एशियाड मेजबानी भारत को 1977 में मिली मगर उस समय प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह ने इन खेलों के आयोजन के लिए मना कर दिया। मगर बाद में इन्दिरा गांधी के वापस सत्ता में लौटने के महज 16 महिनों में खेल से जुडे़ सारे निर्माण कार्य कराये गए। कुल 18 स्टेडियमों में 8 नए थे और बाकी में सुधार किया गया था। 33 देशों ने इस आयोजन में भाग लिया था। 4500 से ज्यादा एथलिटों ने इसमें भाग लिया। अगर अब तक के 18 राष्ट्रमण्डल की बात की जाए तो यह सबसे महंगा आयोजन होना जा रहा है। हालांकि दिल्ली सरकार ने ढांचागत विकास में भी अच्छा खासा खर्च किया है।
राष्ट्रमण्डल खेल का खर्च
भारत            71000 करोड़ रूपये
मेलबर्न           5200 करोड़ रूपये
मेंचेस्टर          2400 करोड़ रूपये
2014 में ग्लास्गो में होन वाले राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन का बजट भी 2400 करोड़ के आसपास ही रखा गया है। भारत में इस खेल के महंगे होने के पीछे काम  के शुरूआत में होने वाली देरी और भ्रष्टाचार है। बहरहाल इस समय हर भारतवासी इस खेल के सफल आयोजन की कामना कर रहा है। मगर खेल खत्म होने के बाद सरकार की असली अग्नि परीक्षा होगी। अगर सरकार कथित भ्रष्टाचार में लिप्त लोंगो को जेल में नही डालेगी तो यह हम सब के मुंह पर तमाचा होगा।

रविवार, 12 सितंबर 2010

मनरेगा लाइव

बरांबकी उन 200 जिलों में से एक था जिसे साल 2006 में महात्मा गांधी नरेगा के तहत चुना गया। यहां योजना को लागू हुए चार साल से ज्यादा बीत चुके हैं। इस दौरान यहां कई कार्य कराये गए है। योजना का जमीन में हाल जानने के लिए सबसे पहले हम पहुंचे नन्दकला गांव में। इस गांव की कुल आबादी 1241 है। जिसमें 15 फीसदी लोग अनुसूचित जाति के हैं। गांव पहुंचते ही हमारी मुलाकात यहां के प्रधान सूर्यप्रकाश सिंह वर्मा से हुई। प्रधान जी से जब हमने मनरेगा के तहत कराये गए निर्माण कार्यो से जुड़ा सवाल पूछा तो बिना रूके पिछले चार सालों में करोये गए सभी कामों को बयां कर दिया । कराये गए कामों की फेहरिस्त भी बड़ी लम्बी मसलन 4 तालाब, ढाई किलोमीटर सम्पर्क मार्ग, 2200 मीटर खड़ंजे का निर्माण, वृक्षारोपण और दलितों के खेत का समतलीकरण। प्रधान जी नरेगा की सान में एक के बाद एक कसीदे पढ़ते चले गए। मगर जैसे ही बात 60 और 40 के अनुपात की आई तो झठ से बोल दिया कि इसमें बदलाव की जरूरत है। यहां 60 और 40 के अनुपात से मतलब यह है कि येाजना के तहत कुल बजट का 40 फीसदी हिस्सा मजदूरी पर और बाकी सामग्री में खर्च करने का प्रावधान है। इसी गांव में हमारी बात हुई रेश्मावती, बालजती और ममता देवी से। वो इसी गांव में रहती है। खुश है कि इस योजना के कारण काम की तलाश में अब दर दर नही भटकना पड़ता है। आवेदन करने पर गांव में ही काम मिला जाता है। मगर जब हमने उनसे पूछा की क्या मजदूरी समय पर मिलती है। तो वह बिफर उठती हैं। ऐसा की कुछ कहना था इस गांव के ही रहने वाले सन्दीप का। उनकी मानें तो काम तो आसानी से मिला जाता है मगर मजदूरी पाने के लिए बैंकों के बार बार चक्कर लगाने पड़ते है। मजदूरी भुगतान में हो रही देरी का जिक्र जब हमने प्रधानजी से किया तो उन्होनें बिना देरी किये सारा ठीकरा बैंक के सर फोड़ दिया। योजना की हकीकत जानने के लिए हमारा अगला पड़ाव था टाण्डा ग्राम पंचायत। यहां हमें मालूम चला कि पास में ही मनरेगा के तहत खड़ंजे का निर्माण किया जा रहा है। पूछते पाछते आखिरकार हम उस जगह पर पहुंच गए। रमा कान्त मौर्य पिछले 24 सालों से इस गांव के प्रधान है। प्रधान जी ने कागजी काम पक्का कर रखा था। बकायदा वह यह भी कहते है कि पारदर्शिता के लिए हर ग्राम प्रधान केा इसी तरह अपनी फाइल तैयार करती चाहिए। सबूत के तौर पर हर काम की कई फोटों । अपने ग्रामसभा में कराये का सारे कामों की उन्होने एक एक कर सारी फोटो हमें दिखाई। योजना के तहत उन्होने गांव में सीवर लाइन भी डलवाई है। महात्मा गांधी नरेगा में  सबसे  ज्यादा तालाबों का निर्माण कराया गया है। जब हमने जानना चाहा की इतने सारे तालाब खुदवाने के पीछे क्या वहज है। जो सारे प्रधानों के जवाब अलग अलग थे। अब सवाल था कि मजदूरी भुगतान में देरी की क्या वजह है। इसका पता लगाने के लिए हमारी टीम पहुंची मोहम्दपुर खाला शाखा में। मालूम चला का मर्ज बडा़ गहरा है। कहानी एक अनार सौ बीमार वाली है। 53 गांवों का यह इकलौता बैंक अपनी कहानी खुद बयां कर रहा था। बैंक में काम करने वाले कर्मचारियों गिनती के चार। वुद्धास्था पेंशन योजना, स्कालरशिप के तहत मिलने वाली राशि, किसान क्रेडिट कार्ड और रोजाना के लेने देन से बैंक में पहले की बहुत काम था। ऊपर से मनरेगा येाजना के बाद हालात और खराब हो गए हैं। मनरेगा के तहत नए निर्माण कार्य के लिए योजना तैयार करने का जिम्मा पंचायत का होता है। इसके बाद ब्लॉक से इस काम की मंजूरी लेनी पड़ती है। इस दौरान योजना की लागत का आंकलन किया जाता है। इसके लिए बकायदा तकनीकी सहायक की जरूरत होती है। मगर ब्लाक स्तर पर तकनीकि सहायकों की भारी कमी है। यही कारण है कि कार्य की शुारूआत से मजदूरी मिलने तक भारी देरी हो रही है। अकेले बाराबंकी के फतेहपुर ब्लॉक के तहत 86 गांव आते है। बीते अप्रैल तक यहां केवल दो जेई और दो तकनीकी सहायक थे। लिहाजा कानून के मुताबिक न 15 दिन में रोजगार मिला पा रहा है और न ही समय से मजदूरी। मगर आज यहां हालात सुधरे है। अकेले फतेहपुर ब्लॉक में 17 तकनीकी सहायकों की नई नियुक्ति की गई है। एक दिलचस्प बात और जानने को मिली कि मनरेगा के तहत मिलने वाले पैसों से ज्यादातर लोगों ने मोबाइल खरीदे है। एक परिवार से मिलने पर मालूम चला की गरीबी के बावजूद घर में तीन मोबाइल है। महात्मा गांधी नरेगा देश की पहली ऐसी योजना है जिसमें सोशल आडिट का प्रावधान है। जिला स्तर पर योजना की पारदर्शिता की देखरेख के लिए स्थानीय सांसदों के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया गया है। साल में राज्य और जिला स्तर में कितनी बैठकें होनी चाहिए इसके लिए केन्द्र ने बकायदा निर्देश जारी किए गए है। एक बात तय है अगर सांसद इस योजना के क्रियान्वयन में रूची ले तो येाजना में हो रहे भष्टाचार पर काफी हद तक रोक लगाई जा सकती हैं।

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

मानसून सत्र का लेखाजोखा



लगभग 26 दिन चला मानसून सत्र मंगलवार को अनिश्चित काल तक के लिए स्थगित कर दिया गया। यह 15वीं लोकसभा का पांचवा सत्र था। मानसून सत्र में कुल अवधि 136 घंटे 10 मिनट की रही, जिसमें से 45 घंटे हंगामें की भेंट चढ़ गए। हंगामें के चलते 11 दिन प्रश्नकाल नही चला। इस दौरान 18 विधेयक सभा पटल पर रखे गए। 20 विधेयकों को लोकसभा ने पारित किया जिनमें परमाणु दायित्व विधेयक 2010 और सांसदों के वेतन और भत्तों से जुड़े विधेयक भी शामिल है। सदन में कुल 460 तारांकित सवाल पूछे गए जिनमें से केवल 46 प्रश्नों का मौखिक जवाब मिला यानि प्रतिदिन 1.91 फीसदी। इसके अलावा 5283 अतारांकित प्रश्नों के जवाब सदन पटल पर रखे गए। मौजूदा वित्त वर्ष के लिए अनुदानों की अनुपूरक मांगों पर सामान्य रेलवे और झारखण्ड पर चर्चा हुई और ध्वनिमत से इसे पारित कर दिया। देश भर में उर्वरकों की उपलब्धता पर आधे घंटे की चर्चा हुई। लोकमहत्व के 314 मुददे सांसदों ने उठाये। 276 मामलों को नियम 377 के तहत सासन्दों ने उठाया। विभिन्न मन्त्रालयों से सम्बन्धित स्थाई समितियों की 45 प्रतिवेदन सभा पटल पर रखे गए। इसके अलावा निम्नलिखित लोकमहत्व से जुड़े मुददों पर नियम 193 के तहत चर्चा हुई।
राष्मण्डल खेलों के निर्माण में हो रही देरी।
भोपाल गैस त्रासदी।
देश भर में बाढ़ से उत्पन्न स्थिति।
अनूसूचित जाति और जनजाति पर अत्याचार।

अल्पावधी चर्चा के दौरान गैर कानूनी खनन और जम्मू और कश्मीर की स्थिति पर चर्चा हुई। इसके अलावा पहली बार संसदीय इतिहास में नियम 342 के तहत अर्थव्यवस्था पर मुद्रािस्फति का दबाव व इसका आम आदमी पर पड़ने वाले प्रभाव पर चर्चा हुई। इसके अलावा जनसंख्या को स्थिर रखने जैसे महत्वपूर्ण मददे पर जोरदार बहस देखने को मिली। ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के नीचे दिये गए मुददों पर माननीयों ने सरकार का ध्यान खींचा।
ऑनर किलिंग।
मणीपुर में नगा संगठनों द्धारा किए गए बन्द से उत्पन्न स्थिति।
श्रीलंका में तमिल विस्थापितों का पुर्नवास।
भोजपुरी और राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने।
भारतीय मछवारों पर श्रीलंका के नौसेना के बढ़ते हमले।
पीएयू-201 किस्म के 40 लाख टन चावल को खाद्य सुरक्षा मानक अधिनियम 2006 के चलते अस्वीकार किये जाने।
इतना ही नही मानसून सत्र में मन्त्रीयों से 57 वक्तव्य दिये। लोकसभा की कार्यवाही कई दिन देर रात तक चली। निजि विधेयकों की अगर बात की जाए तो इस सत्र में 25 निजि विधेयक सदन में लाए गए। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने माननीयों से दो टूक कहा कि लाखों बलिदान के बाद ही आज हम यहां बैठे है। लगातार संसद की कार्यवाही में गतिरोध पैदा करना खतरनाक है और भविष्य में इसके गम्भीर परिणाम होंगें। मगर लगता नही कि इसका असर सासन्दों पड़ पड़ेगा। दरअसल माननीयों को इस तरह के भाषणों को सुनने की आदद पड़ गई है। डर इस बात का है कि उनकी यह आदत लोकतन्त्र के लिए वाकई घातक है। क्योंक यह सबसे बड़ी पंचायत से लोगों की भारी अपेक्षाऐं जुड़ी होती हैं और जनप्रतिनिधयों को चाहिए वह इसका सम्मान करें।

रविवार, 29 अगस्त 2010

क्रिकेट के कलंक

क्रिकेट एक बार फिर शर्मशार है। एक स्थानिय अखबार न्यूज ऑफ द वल्र्ड के खुलासे में पाकिस्तानी क्रिकेटरों पर फििक्ंसग का अरोप लगा है। पाकिस्तान को लॉड्र्स में इंग्लैण्ड के खिलाफ करारी हार का सामना करना पड़ा। पाकिस्तान यह मैच एक पारी और 235 रन से हार गया जो उसकी अब तक की सबसे बडी हार है। स्कॉटलैण्ड पुलिस ने जिस सटोरिये को गिरफतार किया है उसका नाम मजहर माजिद है। यह पाकिस्तान का रहने वाला है। स्थानिय अखबार के संवादाता द्धारा किये गए स्टिंग आपरेशन में माजिद मैच फििक्ंसग के बारे में बात कर रहा है। यानि मैच से पहले स्पाट फििक्ंसग हुई कि कौन सी गेन्द नो बॉल फेंकनी है। बहरहाल इस पूरे प्रकरण में जांच चल रही है। माजिद के बारे में कहा गया है कि पाकिस्तान मूल का लन्दन निवासी यह व्यक्ति कई पाकिस्तानी खिलाड़ियों का गहरा दोस्त है। बहरहाल क्रिकेट को कलंकित करने वाले इन क्रिकेटरों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने से कुछ नही होगा। आइसीसी को कोई कठोर कदम उठाना होंगें। यह पहला मौका नही जब किसी खिलाड़ी पर मैच फििक्ंसग का अरोप लगा है। 1993 में वसीम अकरम पर आरोप लगा कि उन्होनें तेंज गेन्दबाज अताउर रहमान को लचर प्रदशZन करने के लिए एक लाख रूपये की पेशकश की। बाद में उन्हें इस घटनाक्रम के चलते अपनी कप्तानी गंवानी पड़ी थी। 1994 में कप्तान सलीम मलिक पर भी मैच फििक्ंसग के चलते आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया। साल 2000 कमसे से कम भारतीयों के लिए एक सदमा था। दक्षिण अफि्रका के पूर्व कप्तान हैंसी क्रोनिए के खुलासे ने पूरी दुनिया में हड़कंप मचा दिया। इस घटनाक्रम में अजय जडेजा और मोहम्मद अजरूदीन के भी नाम सामने आए। इतना ही नही पाकिस्तान के लेग स्पीनर दानिश कनेरिया और कामरान अकमल पर भी यह आरोप लगे। इससे बता चलता है कि सटोरिया की खिलाड़ियों के बीच जबरदस्त घुसपैठ है। खासकर पाकिस्तानी टीम पर आए दिन किसी न किसी विवाद में छाई रहती है। आखिर कब तक आइसीसी पाकिस्तान की टीम पर चुप्पी साधे बैठा रहेगा। उसके खिलड़ियों पर आए दिन आरोप लगते रहते है। पाकिस्तान के पूर्व कोच बॉब वूल्मर की हत्या का क्या राज था। श्रीलंकाई टीम पर जानलेवा हमला किसकी साजिश का नतीजा था। पाकिस्तानी गेन्दबाज आए दिन खेल के दौरान गेन्द से खिलवाड़ करते है। कहते है की शरीर का अगर कोई अंग खराब हो जाए तो उसे काट दिया जाता है। आज क्रिकेट कुछ लोंगों की वजह से कलंकित है खासकर पाकिस्तान। लिहाज क्रिकेट की गरिमा के बनाए रखने के लिए पाकिस्तानी क्रिकेटरों पर प्रतिबंध लगाना न सिर्फ  आवश्यक है बल्कि इस टीम को वल्र्डकप से भी बहार का रास्ता दिखा देना चाहिए।

रविवार, 22 अगस्त 2010

इस देश में करोड़ों नत्था हैं

एक नही, दो नही, इस देश में करोड़ों नत्था है। क्या हुआ जो पीपली लाइव का नत्था नही मरा। इस देश में 1997-2007 यानि 10 सालों में 187000 नत्था अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुके है। यह तो सरकारी रिकार्ड में दर्ज नत्थाओं के आंकड़े है। ऐसे न जाने कितने नत्था होंगे जिनका नाम सरकारी फाइलों में नही होगा। दरअसल राजनीति और मीडिया के लिए नत्था जैसा मसाला संजीवनी की तरह होता है। एक पक्ष अपने वोट बढ़ने की आस को लेकर आनन्दित होता है तो दूसरा अपनी टीआरपी के खेल में मशगूल। नत्था की कहानी उन करोड़ों किसानों की कहानी है जो हर पल अपनी जिन्दगी को लेकर संघषर्रत है। यही कारण है कि पीपली लाइव फिल्म इन दिनों हर आमोखास के बीच चर्चा का विषय बन गई है। खासकर इससे जुड़े पात्र इसकी कहानी, बेहतर परिकल्पना ठेठ ग्रामीण परिवेश और इन सबसे उपर दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र में राजनीति का खेल वाकई देखने लायक है। इन सबके बीच वह किसान जो अपनी खेती से अजीज आकर विकल्प की तलाश में भटक रहा है।   किसानों की दुर्दशा पर फिल्माई गई यह फिल्म इस संवेदनशील मुददे पर सरकारी रूख की पोल खोलती है। किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं ने सरकारों की नीन्द जरूर खुली मगर किसानों की आत्महत्या अब भी हो रही है। फिल्म से पहले यह जान लेना जरूरी है कि हमारी सरकार इस क्षेत्र में बदलाव लाने के लिए कितनी गम्भीर हैं। किसानों की आत्महत्या के मामले में कुख्यात राज्यों में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल आगे रहे। इन सबके पीछे का कारण किसानों पर कर्ज का बड़ता बोझ था। आज भी हमारे देश में केवल 27 प्रतिशत किसानों की पहुंच बैंकों तक है। इससे साफ है कि किसानों की एक बड़ी आबादी आज भी साहूकारों से कर्ज लेती है। सरकार की 71 हजार करोड़ की कर्ज माफी योजना पर सबसे बड़ी आशंका इसी मुददे को लेकर थी। बहरहाल सरकार ने एक समिति गठित की है जो पता लगाएगी कि देश भर में कितने किसानों ने साहूकारों से कर्ज ले रखा है। बजट 2010-11 में कृषि ऋण बांटने का लक्ष्य 3.25 करोड़ से बढ़ाकर 3.75 करोड़ कर दिया है। साथ ही जो किसान समय से अपने ऋण बैंकों में चुकायेंगे उन्हें 2 प्रतिशत ब्याज दर की छूठ दी जायेगी। यह ऋण 7 प्रतिशत की ब्याज दर में 3 लाख तक लिया जा सकता है। यहां पर यह भी बताना जरूरी है कि खेती में सुधार पर बैठाये गए राष्ट्रीय  किसान आयोग ने कृषि ऋण 4 प्रतिशत की दर पर देने की सिफारिश की थी।  पीपली लाइव में कर्ज के बोझ तले दबे नत्था को अपनी जमीन खो जाने की चिन्ता में वह दरदर भटक रहा होता है। वह जमीन जिससे उसके परिवार की रोजी रोटी चलती है। घर में बूढ़ी मां बीमार है। उसके इलाज में पहले ही बहुत खर्च हो चुका है। उस पर जमीन का चले जाने का मतलब जीवन में हर तरफ अंधेरा आ जाना। फिल्म मे जो काबिलेगौर बात इस मुश्किल घड़ी में मद्यपान करना वह नही भूलता। जाहिर है यह सामाजिक  बुराई भी कोढ़ में खाज का काम करती है। किसान देश की राजनीति में अहम स्थान रखते है। एक आम आदमी की नज़र में वह अन्नदाता है। नेताओं की नज़र में वह वोट काटने की मशीन है। मगर सच मानिए उसकी खुद की नज़र में वह हाण्ड मांस का एक ऐसा इंसान है जो दिन रात खून पसीना एक करके भी परिवार की जरूरतों को पूरा नही कर पाता। मीडिया के लिए नत्था की खबर एक मसाला है जो हाथों हाथ बिकेगा। बस उसे सनसनी की तरह पेश करो और टीआरपी की सीढ़ी चड़ो। किसान वह भी कहकर आत्हत्या करे राजनेताओं के लिए इससे बड़ा कोई मुददा नही। यह मुददा जीत को हार में और हार को जीत में बदल सकता है। यानि जीत और हार के बीच एक महीन रेखा जो नत्था जैसे किसान के जीने या मरने पर निर्भर करती है। इस फिल्म का सन्देश यही है कि मीडिया को जिम्मेदार और नेताओं को वफादार बनना होगा। यह देश किसानों का है। खाद्य सुरक्षा का जिम्मा उनके कंधों पर है। लिहाजा उनके कल्याण के बिना देश के कल्याण के बारे में सोचना बेमानी होगी।

शनिवार, 21 अगस्त 2010

बाल मजदूरी का दंश

बाल मजदूरी के खिलाफ 1986 में कानून पारित होने के बाद भी आज भी बाल श्रमिक बडे पैमाने पर मौजूद है। सरकार आंकडों के मुताबिक आज इनकी संख्या 90 लाख 75 हजार के आसपास है। जिसमें से उत्तर प्रदेश 2074000 और आंध्रप्रदेश में 1201000 बच्चे आज भी बालमजदूर हैं। अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा बाल मजदूर कृषि क्षेत्र में काम करते है। इसके अलावा 60 हजार बच्चे ग्लास और चूड़ी उद्योग में, 2 लाख माचिस बनाने के कारोबार में, 4.20 लाख कारपेट उद्योग और 50 हजार ताले बनाने के काम में जुड़े हुए है। एक बड़ी तादाद घरेलू नौकरों के तौर पर भी बच्चों की है। बालश्रम का अर्थशास्त्र बिलकुल सीधा है। कानून बनने के बाद भी लोग इनका शोषण करते है तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण इनका सस्ते में मिलना है। दूसरा आप जितना मर्जी इनसे काम करवा सकते है। परिवार गरीब है लिहाजा रोजी रोटी का इन्ताजाम करने की जिम्मेदारी इनके कोमल जीवन को कठोर बना रही है। आज सरकार शिक्षा का कानून अमल में ला चुकी है, मगर जब तक भारत का भविष्य रोटी की तलाश में इस तरह काम का बोझ उठायेगा तक तक विकसित भारत का सपना देखना बेमानी है। बाल श्रम से इस देश को मुक्ति दिलाने में हर एक आदमी बड़चड़कर हिस्सेदार बन सकता है। केवल सरकार के भरोसे सबकुछ छोड़ने से कुछ नही होने वाला। सरकार का प्रर्दशन क्या रहा है। 2001 की जनगणना के मुताबिक बाल श्रमिकों की देश में तादाद 1.26 करोड़ थी। भारत सरकार आज 22 राज्यों के 266 जिलों में राष्ट्रीय बाल श्रमिक परियोजना चला रही है। मगर इसका कोई खास असर जमीन पर देखने को नही मिल रहा है। आज जरूरत है ऐसे लोगों के खिलाफ कठोर कारवाई करने की जिसने मासूमियत के धन की महत्वकांक्षा के चलते जमीन के तले दबा दिया है। लिहाजा हर नागरिक का यह कर्तव्य है कि इन बच्चों को हरसम्भव तैयार करें ताकि राष्ट्र निर्माण में इनका योगदान भी मिल सके।

बढ़ती युवा पीढ़ी और रोजगार

श्रम और रोजगार मन्त्रालय भारत की एक बड़ी आबादी को ध्यान में रखकर अपनी नीतियां बनाता है। देश का असंगठित क्षेत्र मतलब 39 करोड़ से ज्यादा लोग इस मन्त्रालय के अधीन आता है। जिसके लिए सरकार 2008 में सामाजिक सुरक्षा विधेयक भी लेकर आई है। असंगठित क्षेत्र की स्थिति पर एक नज़र डालें तो मालूम चलता है कि लोग इसमें कितनी तादाद में किन कामों में लगे हुए है। मसलन 62 फीसदी खेती में, 16 फीसदी वेतन भोगी, 11 फीसदी उद्योगों से जुड़े है। एक दूसरा आंकड़ा यह कहता है कि देश में ज्यादातर आबादी यानि 53 फीसदी स्वरोजगार पर निर्भर है। असंगठित क्षेत्र में महिलाओं की तादाद पुरूषों से ज्यादा है। मन्त्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक रोजगार के लिहाज से सालाना  2.5 फीसदी रोजगार में वृद्धि होनी चाहिए। मगर इसके लिए जरूरी है सालाना 9 फीसदी की विकास दर। सरकार ने हर साल 1 करोड़ 20 लाख के रोजगार सृजन का लक्ष्य रखा है। गौरतलब है कि 2001 में 15 से 59 वर्ष की आयु के कामगारों का प्रतिशत 58 फीसदी था जो 2021 में चलकर 64 फीसदी हो जायेगा। लिहाजा मन्त्रालय के सामने एक बड़ी आबादी के लिए रोजगार पैदा करने की चुनौति होगी। इतना ही नही 2020 में हर भारतीय की औसत उम्र 29 साल होगी जबकि चीन और अमेरिका में 37 जबकि जापान की बात करें तो यह होगी 48 साल। यानि भारत कहलायेगा विश्व का सबसे युवा प्रदेश। श्रम मन्त्रालय के सामने दूसरी बड़ी चुनौति 2022 में 50 करोड़ कामगारों को दक्ष बनना, जिसके लिए सरकार राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद बनाने की घोषणा कर चुकी है। वह भी इस बात को ध्यान में रखकर की 97 फीसदी कामगारों के पास कोई तकनीकी शिक्षा उपलब्घ नही है। देखना दिलचस्प यह होगा कि क्या सरकार अपने इन लक्ष्यों को पूरा कर पाती है।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

सांसदों के वेतन में बढोत्तरी कितनी जायज


पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपने कार्यकाल की आखिरी प्रेस वार्ता में एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होनें कहा भारत कई मायनों में अलग हैं। क्योंकि यहां सांसद अपना वेतन खुद तय करते है। न्यायपालिका में जज ही जज की नियुक्ति करता है। और यहां की संसद विश्व की अकेली ऐसी संसद है जो अपना चैनल चलाती है। संयुक्त समिति ने सिफारिश की है कि सांसद के वेतन मासिक 16 हजार से बड़ाकर 80 हजार एक रूपया कर दिया जाए। यह इसलिए ताकि सासन्द को केन्द्र सरकार के सचिव से 1 रूपये बड़कर मिल सके। यानि पूरी 5000 फीसदी की बढ़ोत्तरी। मगर कैबिनेट में मौजूद कई मन्त्रीयों के यह सिफारिश गले नही उतरी जिसके बाद इसे 50 हजार मासिक करने को हरि झण्डी दे दी गई। बस यही बात सांसदों को नागवार गुजरी और संसद में हंगामा शुरू हो गया। सांसद संसद की संयुक्त समिति की सिफारिश को लागू करने पर अड़े है। वही सरकार इस पसोपेश में है कि महंगाई और प्राकृतिक आपदा के इस माहौल में इस तरह का कदम जनता में एक गलत सन्देश भेजेगा। मगर अब लगता नही की सांसद सरकार की सुनेंगे। आखिरकार महंगाई डायन ने उनको भी तो परेशान कर रखा है। सांसदों को  वेतन बढोत्तरी के साथ साथ कार्यालय खर्च 20 से 40हजार कर दिया गया है। संसदीय भत्ते को भी दुगुना कर दिया गया है यानि पहले के 20 से 40 हजार। सांसद बिना ब्याज के निजि गाड़ी खरीदने के लिए 4 लाख तक का लोन ले सकेंगे जिसकी राशि पहले 1 लाख थी। पेंशन राशि भी 8 से बड़ाकर 20 हजार कर दी है। सदन चलने के दौरान  सांसदों को 2 हजार रूपये मिलेंगे। पहले यह राशि 1 हजार थी। इसके अलावा सासन्द महोदय की पित्न ट्रेन की प्रथम श्रेणी और हवाई सफर में एक्जक्यूटिव श्रेणी में सफर कर सकती हैं। इन सब बातों केा अमल में में लाने के लिए सरकार को सांसदों के वेतन और भत्ते सम्बन्धी संसदीय कानून 1954 में संशोधन करना पड़ेगा। इसके अलावा सांसदों को टेलीफोन, अवास, सस्ता भोजन और क्लब सदस्यता जैसी सुविधाऐं भी प्राप्त है। इस पूरी कवायद से सरकार के खजाने में तकरीबन 142 करोड़ का सालाना बोझ पडे़गा।  वेतन बढोत्तरी की जरूरत पर बल देते हुए एक सांसद मजाक में कहते है कि जितना मासिक वेतन मिलता है उससे ज्यादा तो संसदीय क्षेत्र के लोगों की चाय पानी में खर्च हो जाता है। इन सब के बीच वामदलों का कहना है कि सांसदों को खुद के वेतन बढ़ोत्तरी पर इस तरह का रूख अिख्तयार नही करना चाहिए। इसके लिए एक वेतन आयोग की तर्ज पर आयोग बने जो इन सब मुददों पर विचार करे। सवाल उठता है कि वह कौन से कारण है जिसके मददेनज़र बढोत्तर जरूरी हो गई है। पहला, सांसदों के वेतन को आखिरी बार 2006 में बड़ाया गया था। इस बीच 6ठें वेतन आयोग की सिफारिश लागू हुई। दूसरा हिन्दुस्तान के सांसदों को दुनिया में सबसे कम वेतन दिया जाता है। जबकि अमेरिका का एक सांसद सालाना 174000 डालर अपने घर ले जाता है। तीसरा वर्तमान में राष्ट्रपति का वेतन 150000, उपराष्ट्रपति 125000, राज्यपाल 110000, सुप्रीम कोर्ट के जजों को 90000, हाइकोर्ट के जजों को 80000, कैबिनेट सचिव को 90000 और केन्द्र सरकार के सचिव को 80000 रूपये वेतन मिलता है। इस लिहाज से सांसदों का वेतन कुछ भी नही। चौथा सांसदों के भत्ते कई राज्यों के विधायकों से भी कम है। पांचवा कम वेतन के चलते भ्रष्टाचार को बड़ावा मिलता है। मसलन सवाल पूछने के एवज में पैसे लेने के मामला पहले ही इस देश के सामने आ चुका है। इन सब पहलुओं पर अगर विचार करें तो सांसदों की वेतन बढोत्तरी की मॉंग जायज लगती है।
मगर इसका दूसरा पहलु भी समझना जरूरी है। हमारी लोकसभा धनकुबेरों से भरी है। वही इनके राज्यों में गरीबों की भी संख्या कम नही। जहां 543 सांसदों में से 14वीं लोकसभा में 154 सांसद करोड़पति थे आज 15वीं लोकसभा में उनकी तादाद 315 है। अकेले कांग्रेस पार्टी में 137, बीजेपी में 58, सपा में 14 और बसपा में 13 सांसद करोड़पति है। करोड़पतियों की तादाद 58 है। एक नज़र राज्यवार धनकुबेरों पर और राज्यों की गरीबी पर जहां का ये सांसद प्रतिनिधित्व करते हैं। गौर करने की बात है गरीबी मापने का पैमाना गांव में 356 और शहरों में 538 रूपये प्रति व्यक्ति खर्च करने की क्षमता पर आधारित है।
राज्य      करोड़पति सांसद    गरीब जनता ( करोड़ों में )

उत्तरप्रदेश    52               32.5
आंध्रप्रदेश     37               28
कर्नाटक        51               25
बिहार          25               41.4
तमिलनाडू      17                22.5
मध्यप्रदेश       15                38.3  
गुजरात        12                16.8  
तीसरा और सबसे अहम पहलू यह है कि संसद में आए दिन होने वाले हंगामें से जनता परेशान हो चुकी है। गौर करने लायक बात यह है कि सदन को चलाने का एक दिन का खर्च 7.65 करोड़ रूपये है। मगर इस ओर किसी का ध्यान नही। मानसून सत्र में ही ज्यादातर समय हंगामें की भेंट चड़ चुका है। प्रश्नकाल आए दिन नही चल पाता। जबकि लोकसभा अध्यक्ष लगातार सदन को सुचारू रूप से चलाने की अपील करती रहती है। 1952-1961 के बीच लोकसभा 124 दिन चलती थी जिसका अंकड़ा 1992-2001 में 81 हो गया। सबसे ज्यादा खराब हालात तो 2008 में हुए जब लोकसभा महज 46 दिन चली। जबकि ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका में आज भी सदन 140 से 150 दिन चलता है। आज देश की जनता देश की इस सबसे बडी पंचायत के प्रतिनिधियों से यह आशा करती है कि सदन का कामकाज सुचारू रूप से चले। सांसद संसदीय कार्यवाही को लेकर गम्भीर हो। कानून बिना चर्चा के पारित न हो पाये। प्रश्नकाल को हर कीमत पर चलने दिया जाए। पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में सालाना संसद और विधानसभाओ को 100 दिन चलाने का जो सहमति बनी है, उस पर अमल किया जाए।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

रोजगार गारंटी का सच



आज से लगभग 4 साल पहले देश भर में रोजगार यात्राऐं निकाली जा रही थी। गीत गाया जा रहा था। हमारे लिए काम नही, हमें काम चाहिए। इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए 2006 में महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की शुरूआत हुई। यह विश्व की अकेली ऐसी योजना है जो मांगने पर जरूरतमन्दों को रोजगार की गारंटी देती है। योजना का मकसद लोगों को गांव में ही काम मुहैया कराना है। गांव में न सिर्फ स्थाई परिसंपत्तियों का निर्माण हो बल्कि महिला और पुरूषों को समान मजदूरी मिल सके। बीते चार सालों में केन्द्र सरकार इस योजना पर भारी भरकम खर्चा कर रही है। काम का आवेदन करने पर 15 दिन में रोजगार देना अनिवार्य है। काम पूरा होने की तिथि से 15 दिन के भीतर मजदूरी देने का प्रावधान है। अगर मजदूरी समय पर नही मिलती तो मजदूरी मुआवजा अधिनियम 1936 के तहत मुआवजा देना होगा। मनरेगा योजना 16000 करोड़ के बजट के साथ शुरू हुई । आज यानि 2010-11 में इस योजना को 41100 करोड़ रूपये आवंटित किये है। यह मांग आधारित कार्यक्रम है लिहाजा सरकार को जरूरत पड़ने पर धन की उपलब्धता करवानी होगी। बीते तीन साल के औसत रोजगार के आंकड़ों पर अगर नज़र डाली जाए तो
साल                 औसत काम दिनों में 
2007-08               42
2008-09               48
2009-10               52    
इससे एक बात तो स्पष्ट है कानून बनने के चार साल के बाद में 100 दिन का रोजगार उपल्ब्ध कराने में आज भी हम नकामयाब रहे हैं। 11वीं पंचवषीZय योजना के अर्धवाषिZक समीक्षा में मनरेगा कार्यक्रम में क्रियान्यवयन में पिश्चम बंगाल का रिपोर्ट कार्ड सबसे खराब रहा है। पिश्चम बंगाल 28 दिन का ही औसल रोजगार उपलब्ध करा पाया है। जबकि काम मुहैया कराने का राष्ट्रीय औसत 48 दिन है। मगर 15 राज्य मसलन हिमांचल, महाराष्ट्र, हरियाणा, असम, मेघालय, तमिलनाडू जम्मू और कश्मीर, उत्तराखण्ड, उड़ीसा, कर्नाटक, पंजाब, पिश्चम बंगाल, बिहार, गुजरात और केरल जैसे राज्य सालाना 48 दिन का औसत रोजगार मुहैया कराने में नकामयाब रहे हैं। सालाना आधार में देश भर में कितने परिवारों को रोजगार मिला इन आंकड़ों पर अगर गौर करें तो
साल                कितने परिवारों को रोजगार मिला  करोड़ों में
2006-07             2.10
2007-08             3.39  
2008-09             4.51 
2009-10             5.06  
नरेगा के तहत 60 फीसदी न्यूनतम राशि मजदूरी के लिए खर्च करनी आवश्यक है। राज्यों ने इस बात का ध्यान रखा है कि योजना के मुताबिक  60 फीसदी न्यूनतम हिस्सा मजदूरी के तौर पर प्रदान करना है। एक नज़र राज्यवार मजदूरी के औसत आंकड़ों पर
साल                आवंटित राशि का मजदूरी पर खर्च
2006-07             66
2007-08             68  
2008-09             67 
2009-10             68
नरेगा के तहत कानून के मुताबिक 100 दिन का रोजगार मुहैया कराना जरूरी है। मगर इस कार्य में ज्यादातर राज्यों का रिपोर्ट कार्ड निराश करने वाला है। 100 दिन रोजगार पाने वाले परिवारों की अगर बात की जाए को रोजगार गारंटी का सच खुद पर खुद सामने आ जायेगा। 2006-07 में 10.29 फीसदी, 2007-08 में 10.62 फीसदी, 2008-09 में 14.48 फीसदी और 2009-10 में 13.24 फीसदी परिवारों को 100 दिन का रोजगार मिला पाया। अरूणांचल प्रदेश, नागालैण्ड, मणीपुर और मिजोरम जैसे राज्यों में किसी भी परिवार को 100 दिन का रोजगार नही मिल पाया। फरवरी 2006 से सितम्बर 2009 के बीच 79 लाख कार्य चलाए गए जिनमे केवल 31 लाख ही पूरे हो पाये जो पूरे काम का 39 फीसदी है। 2009-10 में 40.98 लाख काम चलाए गए जिनमें 67 फीसदी काम जल संरक्षण से जुड़े है।

महात्मा गांधी नरेगा में शिकायतों का अंबार है। यह बात दिगर है कि हमारी सरकारों के कानों तक कितनी शिकायतें पहुंच पाती है। जो शिकायतें आम है उनमें प्रमुख है जागरूकता का अभाव, समय से काम का न मिलना, मजदूरी का समय पर और पर्याप्त राशि का न मिलना, मस्टर रोल जैसे उचित रिकार्ड का ना रखा जाना, बैंक और पोस्ट आफिसों के बार बार चक्कर लगाना और योजना के तहज तैयार का की गुणवत्ता। सरकारी आंकड़़ों के लिहाज से बीते तीन सालों में 1331 शिकायतें सरकार के संज्ञान में आई जिसमें सबसे ज्यादा 419 उत्तर प्रदेश से 235 मध्य प्रदेश 180 राजस्थान 125 बिहार और 87 झारखण्ड से है।

महात्मा गंाधी नरेगा में महिलाओं की हिस्सेदारी में तमिलनाडू राज्य अव्वल रहा है। इस राज्य में मनरेगा में महिलाओं की हिस्सेदारी 79 फीसदी है जबकि 2008-09 साल में बिहार में 30 फीसदी झारखण्ड में 28 फीसदी और उत्तरप्रदेश में 18 फीसदी रही जो की कानून के प्रावधन जिसमें महिलाओं की न्यूनतम 33 फीसदी हिस्सेदारी होनी चाहिए से काफी नीचे है। नरेगा के तहत जारी किये जार्ब कार्ड की वैधानिकता 5 साल की होती है। पिछले साल सरकार के मजदूरी राशि को 100 रूपये तो कर दिया है मगर रोजगार की अवधि 100 दिन से ज्यादा करने पर हाथ खड़े कर दिये हैं। इसके पीछे सीधा सा तर्क है जब हम 100 दिन का रोजगार ही मुहैया नही कर पर रहे है तो काम के दिन बड़ाने से क्या फायदा। मनरेगा के काम का विस्तार किया गया है। इसके तहत सिंचाई सुविधा, बागवानी, पौंधा रोपण और वनीकरण जैसे कामों को लिया गया है। साथ ही इस बात पर जोर दिया गया है कि रोजगार देने में गरीब, अनुसूचित जाति, जनजाति को प्राथमिकता दी जाए। सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का फायदा नरेगा कामगारों को देने का रास्ता साफ कर दिया है

महात्मा गांधी रोजगार में सरकार हर स्तर पर निगरानी व्यवस्था को मजबूत करना चाहती है। इसके लिए हर जिले पर एक लोकपाल नियुक्त करने के दिशानिर्देश जानी किये गए मगर पंजाब को छोड़कर अब तक किसी राज्य ने इस पर अमल नही किया। समाज के जागरूक लोगों का एक पैनल गठित करने की बात कही गई है। सोशल आडिट को आवश्यक कर दिया गया है। पंचायतों को अपनी भूमिका प्रमुखता से निभानी है। इस योजना को सफल बनाने में सांसदों का भी योगदान अहम हो सकता है। दरअसल जिला स्तर में निगरानी समिति का अध्यक्ष सासन्दों को बनाया गया है। बकायदा सालाना कितनी बैठकें राज्य वार होनी है या जिले वार होनी है इसके दिश निर्देश केन्द्र ने जानी कर रखें हैं। मसलन सालान आधार में 28 राज्यों में 112 बैठकें होनी चाहिए मगर 2006-07 में 35, 2007-08 में 36 और 2008-09 में 35 बैठकें भी हो पायी। हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, मिजोरम ,दादर और नागर हवेली में पिछले 2 सालों में एक भी बैठक नही हुई। वही 619 जिलों में कुल 2476 बैठकें होनी चाहिए। मगर 2006-07 में 619, 2007-08 में 912 और 2008-09 में 579 बैठकें ही हुई। इन बैठको की अध्यक्षता हमारे सासन्द महोदयों को करनी थी। इससे पता चलता है कि निगरानी व्यवस्था की स्तर क्या है। यहां सांसदों का यह भी कहना है कि महज अध्यक्ष बना दिया गया है उनके पास किसी तरह की कोई ताकत नही है।
महात्मा गांधी नरेगा एक ऐतिहासिक योजना है। इसके लिए ग्रामीण विकास का एक बड़ा हिस्सा खर्च किया जा रहा है। मगर जरूरतमन्दों तक अभी भी योजना का सम्पूर्ण लाभ नही पहुंच पा रहा है। इसके लिए राज्य सरकारों को गम्भीरता से काम करना होगा। साथ ही केन्द्र सरकार को अच्छा प्रदशZन करने वाले राज्यों को प्रोत्साहित करना चाहिए साथ ही खराब प्रदशZन करने वाले राज्यों पर जुर्माना लगाना चाहिए। सिर्फ पैसा बहाने से कुछ नही होगा । मनरेगा के तहत कराये जा रहे कार्यो की समीक्षा करनी होगी। योजना जरूरत ऐतिहासिक है मगर इसे बेहतर बनाने के लिए हम सभी को मिलकर प्रयास करना पड़ेगा।

रविवार, 15 अगस्त 2010

ममता का मिशन लालगढ़



ममता बनर्जी का लालगढ़ दौरा विवादों से भरा रहा। नक्सली कमाण्डर आजाद पर दिया उनका बयान दूसरे दलों के नेताओं में बदहजमी पैदा कर गया और उसका असर संसद में दिखाया दिया। लगे हाथों बीजेपी ने सरकार खासकर प्रधानमन्त्री से स्पश्टीकरण की मांग कर डाली। किसी तरह यूपीए के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी बयान देकर मामले की आग को ठण्डा किया। ऐसा लग रहा है कि दूर सबेर ममता कांग्रेस के लिए ऐसी मुिश्कलें खड़ी करती रहेंगी। वह भी तब तक जबतक उनका मिशन बंगाल पूरा नही हो जाता। दरअसल ममता लालगढ़ को अपने कब्जे में करना चाहती है जो वामपन्थियों का मजबूत गड़ है। यहां बड़े पैमाने पर अनुसूचित जाति और जनजाती की जनसंख्या है जिसपर पूरी तरह वामपन्थियों का कब्जा है। मौजूदा समय में वामपन्थी नीतियों के खिलाफ चल रही हवा को वह और आग देना चाहती है ताकि इसकी तपिस कामरेडो के 33 साल के राज के अन्त में आखिरी कील साबित हो। पिश्चम बंगाल में कुल 292 विधानसभा सीटें है। जादुई आंकड़ा 147 का है यानि ममता के अपने मिशन को हकीकत में बदलना है तो 147 सीट तक पहुंचना होगा। इसमें से अकेले लालगढ़ में 41 और 6 लोकसभा सीटें है। 2009 के लोकसभा चुनाव में सीपीएम इसमें पांच लोकसभा सीटें पुरूलिया, बांकुरा, झारग्राम, घाटल और मिदनापुर जीतेने में कामयाब रही। टीएमसी में खाते में केवल बीशनपुर सीट आई। जबकि 2004 के लोकसभा चुनाव में सभी 6 सीटें सीपीएम के पक्ष में थी। 2001 में जब टीएमसी और कांग्रेस ने गठबंधन में साथ मिलकर चुनाव लड़ा था तो उन्हें 41 में से महज़ 4 सीटों पर सन्तोश करना पड़ा। 2006 के विधानसभा चुनाव में दोनों साथ नही थे मगर कांग्रेस के खाते में 3 सीटें आई जबकि ममता के हाथ कुछ नही लगा। राजनीतिक जानकार ममता की लालगढ़ रैली के पीछे यही एक वजह मानते है।  लोकसभा चुनाव के हिसाब से ममता के पास इस समय 130 विधानसभा सीटें है। यानि पूर्ण बहुमत से 17 सीटें दूर। इन 17 सीटों की कसक ममता लालगढ़ से पूरी करना चाहती है।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

मिशन 2020

क्या 2020 में भारत विकसित राष्ट्र बन पायेगा। 2020 तक का सफर तय करने में अब 10 साल से भी कम का फासला बचा है। आज भारत विश्व की तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था में से एक है। मगर चुनौतियां हर क्षेत्र में है। इन 10 सालों में भारत को विकास की एक नई इबारत लिखनी है। जिसका सपना हर भारतीय की ऑखों में है। आज भारत की बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। कृषि क्षेत्र को हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है, मगर विकल्प मिलने पर इसी खेती से किसान छुटकारा पाना चाहते है। देश खाघ सुरक्षा कानून पन चर्चा कर रहा है। मगर इसके लिए खेती को किसान के लिए फायदेमन्द बनाना जरूरी है। शिक्षा के अधिकार के कानून तो अमल में आ गया, मगर साक्षर भारत का सपना अभी कोसों दूर है। 80 फीसदी स्वास्थ्य क्षेत्र में निजि क्षेत्र का दबदबा है। खासकर गावों में डाक्टरों नसेZस और परामेडिकल स्टाफ का भारी कमी है। बुनियादी ढांचे को दुरूस्त करने मे तेजी लाने के साथ एक निश्चित समय सीमा तक सभी निर्माण कार्यो के लक्ष्य प्राप्त करने की जरूरत है। आतंरिक सुरक्षा के मददेनज़र आतंकवाद नक्सलवाद और उग्रवाद जैसी चुनौतिया आज मुंह बायें खड़ी है। भारत को न सिर्फ अपनी बड़ती आबादी के लिए रोटी का इन्तजाम करना है बल्कि जल संसाधन को बचाने के लिए भी कुछ नए प्रयास करने होंगे। सुधारों की राह में अब भी हम पीछे है। पुलिस, प्रशासनिक, चुनाव और न्यायिक सुधार में तेजी से आगे बड़ने की आवश्यकता है। सरकार समाजिक कल्याण को ध्यान में रखकर सैकडों योजनाऐं चला रही है मगर जरूरतमन्दों तक इनकी पहुंच उस पैमाने तक नही है जितनी होनी चाहिए। लिहाजा केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर इन मिश्कलों का समाधान ढूंढना होगा।

बुधवार, 4 अगस्त 2010

असंगठित क्षेत्र का फलसफा

2001 की जनगणना के मुताबिक देश में श्रमिकों की संख्या अनुमानित तौर पर 40.2 करोड़ हैं। इनमें 31.3 करोड मुख्य श्रमिक है और 8.9 करोड़ सीमान्त श्रमिक है।  राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों में श्रमिकों की संख्या 39.49 करोड़ है जिसमें 36.9 करोड़ अर्थात कुल रोजगार का 93 फीसदी असंगठित क्षेत्र से आता है। असंगठित क्षेत्र से मतलब वे श्रमिक जो अस्थायी कार्य में संलग्न है। खेतिहर मजदूर रिक्शा चालक, निर्माण मजदूर, छोटे किसान, मछुआरे, घरेलू नौकर आदि। महत्वता इसी से समझी जा सकती है देश के सकल घरेलू उत्पादों के लगभग साठ प्रतिशत में असंगठित क्षेत्र का हाथ है। सिंचाई, बिजली परियोजनाऐं या विशाल भवनों का निर्माण शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां असंगठित श्रमिकों का श्रम न लगा हो। देर आये दुरूस्त आए की तर्ज पर भारत सरकार ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए असंगठित सेक्टर कामगार सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 को लोकसभा में पारित कर दिया। इस विधेयक से सरकार सबसे पहले 23 करोंड़ भूमिहीन मजदूरों को लाभ देगी। सरकार की योजना असंगठित क्षेत्र के जुड़े लोगों के राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत 30 हजार प्रति परिवार तक का बीमा कवर देना है। श्रम मन्त्रालय के आंकड़ो के अनुसार कृशि क्षेत्र में स्त्री और पुरूषों को मिलने वाली मजदूरी में 27.6 प्रतिशत का अन्तर है। मगर महात्मा गांधी नरेगा के आने के बाद इसमें जबरदस्त सुधार आया है। बीड़ी मजदूरों के कल्याण के लिए आवंटन 21 हजार करोड़ से बढ़ाकर 43 हजार करोड़ करने की सिफारिश की है। असंगठित क्षेत्र से जुड़े विधेयक के तहत प्रत्येक राज्य और जिले में गैर संगठित श्रमिक कल्याण संघ का गठन किये जाने का प्रावधान है।

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मिशन उत्तरप्रदेश-भाग 2

बीते लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश में कांग्रेस ने लोकसभा की 22 सीटें जीतकर सबकों चौंका दिया। शायद खुद कांग्रेस के लोगों के लिए यह जीत किसी अचम्भे से कम नही थी। मगर जीत तो जीत है चाहे उसके लिए कोई भी कारण गिनाए जाए। कांग्रेसियों के इसके पीछे राहुल फैक्टर काम करता दिखाई दिया। पिछले कुछ सालों में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने उत्तरप्रदेश को अपनी राजनीतिक प्रयोगशाला बनाया है। देश को सबसे ज्यादा प्रधानमन्त्री देने वाले इस राज्य में कांग्रेस का ग्राफ 1989 के बाद लगातार गिरता चला गया। एक समय जो मुस्लिम समुदाय कांग्रेस का प्रबल समर्थक था, बाबरी विध्वंस के बाद वह उससे दूर होता चला गया। मगर 2009 के लोकसभा चुनाव में वह वापस कांग्रेस की तरफ आता दिखाई दिया। यही कारण है कि कांग्रेस को न सिर्फ वोट फीसदी बल्कि सीट का भी फायदा मिला। उपर से मुलायम कल्याण मैत्री अध्याय का लाभांस सीधे-सीधे कांग्रेस के खाते में गया। बहरहाल कारण जो भी हो कांग्रेसी 2012 में यूपी के दुर्ग में झण्डा गाड़ने का सपना अकेले दम पर देखने लगे है। अब सवाल यह कि क्या यह ख्याली पुलाव है या वाकई इस बात पर दम है। दरअसल पिछले कुछ महिनों में यूपी में हुए 16 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के छोली में 2 सीटें ही गई। जबकि सबसे अहम मुददा यह रहा कि फिरोजाबाद सीट पर 1800 वोट लाने वाली कांग्रेस मात्र 6 महिने में 350000 वोट के साथ सपा के गड़ में सेंध लगा गई। इस चुनाव ने मुलायम को एक सबक भी दिया की जनता ज्यादा दिन तक परिवारवाद और मनमाने फैसले के बोझ तले नही दबी रह सकती। कांग्रेस पार्टी ने इस समय युद्ध स्तर पर सदस्यता अभियान चला रखा है। हाल के आंकड़ों से यह पता लगता है कि यह अभियान के तहत कांग्रेस से जुड़ने वाले लोगों की संख्या 20 लाख से बड़कर 60 लाख के आसपास पहुंच गई है। इस साल यूपी में पंचायत चुनाव तय है। 2011 में शहरी निकाय के चुनाव और 2012 में विधानसभा चुनाव है। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव। बहरहाल सबसे पहले राहुल गांधी यूपी में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में नए जोश का संचार कर रहे है। दलितों के घर भोजन कर रहे है ताकि माया की दलित जमीन को दरका सके। इधर मायावती की सामाजिक संरचना को तोड़ना किसी भी पाट्री के लिए नामुमकिन दिख रहा है। मुलायम सिंह मुसलमानों से कल्याण को गले लगाने के लिए माफी मांग चुके है। देखना दिलचस्प यह होगा कि यह माफीनामा वापस मुस्लिमों को उनकी ओर खींच पायेगा या नही। इधर अजीत सिंह की पार्टी का कांग्रेसीकरण होना मुश्किल लग रहा है। इस काम में सबसे बडी चुनौति उनके खुद के बेटे है जो मथुरा लोकसभा सीट से सांसद हैं। बहरहाल देश को सबसे बड़े राज्य जहां से 404 विधायक चुने जाते है। 80 सांसदों दिल्ली चुन कर आते है। वह राजनीतिक लिहाज से कितना महत्वपूर्ण है आप और हम समझ सकते है।