मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

इस देश में कितने गरीब है?

गरीबी हटाओं का नारा इस देश में नया नही है। बहस इस बात पर हो सकती है कि राजनीति में इस मुददे की वैलीडीटि रह गयी है या नही। इतना ही नही गरीबी हटाओं योजनाओं का तो अंबार है। मगर इतने सालों में न तो गरीबी हटी न ही गरीब कम हुए। हां एक वर्ग की कमाई में खास इजाफा हुआ। आजादी के 62 सालों बाद इस सवाल का ही जवाब नही ढूंढ पाये। कि सही मायने में इस देश में कितने गरीब है। कभी कभी तो मेरा भी माथा ठनक जाता है। । दरअसल दिन रात हमारा पाला इन्ही योजनाओं से पड़ता है। कितना पैसा मिला, कितना खर्च हुआ। क्या कमियां है। इन सब के अंकगणित में हमारा ज्यादा समय बितता है। मगर यह समझ से परे है कि इतनी योजनाओ के बाद भी आज बडी आबादी दो जून की रोटी के लिए संघशZ क्यों करती नजर आ रही है। अर्जुन सेना गुप्ता की रिपोर्ट कहती है कि 77 फीसदी आबादी की हैसियत प्रतिदिन 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की नही है। एन सी सक्सेना कमिटि कहती है 50 फीसदी लोग गरीबी के दायरे के नीचे आते है। एनएसएसओ का सर्वे कहता है कि 27 करोड 50 लाख लोग ही गरीब है। तेंदुलकर कमिटि का अध्यन है कि 38 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रही है। सबसे विचित्र बात यह है कि यह सारी कमेटियां सरकार की ही है। मगर सबके सुर अलग अलग है। मगर इतनी तो समझ आप हम भी रखते है कि गरीबों की तादाद 27 करोड़ से उपर है। इतना ही नही वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने बजट भाशण के दौरान जोर शोर से ऐलान कर दिया कि 2014 तक हमारे देश में गरीबों का संख्या मौजूदा संख्या से आधी यानी 14 करोड से भी नीचे आ जायेगी। मगर गप्रणव बाबू को क्या मालूम था कि यह कमेटिया उनकी सरकार के इनक्लूसिव ग्रोथ की हवा निकाल देंगी। अब हो यह रहा है हर कोई सरकार से एक ही सवाल पूछ रहा है कि श्रीमान यह तो बताइये कि इस देश में गरीब कितने है। यह सब भी तब हो रहा है, जब सरकार घर बनाने से लेकर पीने का पानी मुहैया कराने, बिजली पहुंचाने से लेकर सस्ता राशन उपलब्ध कराने के लिए, पैस पानी की तरह बहा रही है। योजना आयोग के मुताबिक एक रूपया गरीब तक पहुंचाने के लिए सरकार को 3 रूपये 65 पैसे खर्च करने पड़ते है। इन सब के बावजूद हालात इस तरह है क्यों है तो जवाब केन्द्र के पास रटा रटाया ही रहता है। हमारा काम है योजना बनाकर राज्यों को आार्थक सहायता उपलब्ध कराना। राज्य कामयाब नही तो हम क्या करें। दुर्भाग्य देखिए की 62 साल बात बहस इस बात पर चल रही है कि गरीब कौन है कौन नही । दरअसल गरीबी तय करने का फार्मूला योजना आयेगा ने बनाया था। जो 1993 94 को अधार पर तय किया गया थ। इसका आज के हालात से लेना देना नही है। अब कहा जा रहा है कि इस पर विचार चल रहा है की नया फार्मूला क्या हो। इधर राज्य सरकारों की बेचैनी का क्या हो। उनके मुताबिक केन्द्र सरकार हमारे गरीब को गरीब नही मान रही है। उदाहरण के तौर पर बिहार सरकार कहती है कि उनके राज्य में गरीब 1.5 करोड़ है, मगर केन्द्र सरकार महज 65 लाख का गरीब मानती है। तमिलनाडू सरकार ने तो सबको बीपीएल कार्ड जारी कर रखे है। इससे उन्हें कोई मतलब नही की केन्द्र किनको गरीब मानता है। ऐसा ही कहना ता कुछ और राज्य सरकारों का भी है। मगर इस बहस में कोई नही पड़ता चाहता कि इस देश में जो गरीब नही है उन्हे गरीबी रेखा के नीचे दिखाने के अपराध के लिए कौन जिम्मेदार है। 1.5 करोड़ फर्जी बीपीएल कार्ड निरस्त किये गए उसके लिए कौन जिम्मेदार है। दिल्ली में अकेली एक महिला के नाम पर 900 से ज्यादा राशन कार्ड जारी किये गए थे इसका जिम्मेदार कौन है। कब वो दिन आयेगा जब हमारे देश में जिम्मेदारी तय होगी। क्या इन दोशियों को कानून के तहत सजा नही मिलनी थी। इतना ही नही अभी तो हमें यह भी नही मालूम कि कितने और करोड़ की तादाद में फर्जी राशन कार्ड इस व्यवस्था में मौजूद है। उनकी तो बात करना छोडिये जो जरूरत मंद है मगर उनके पास यह साबित करने का सर्टीफिकेट नही है कि वो गरीब है। अगर अब भी आंख नही खुली यह सिलसिला निरन्तर चलते रहेगा और हम संसद से सड़क तक एक ऐसी बहस पर पडे होगे जिसमें तकोZ का तो अंबार होगा मगर बीमारी की सही इलाज नही। बीमारी भी ऐसा जिसका का कारण और निवारण दोनो से हम भली भांति परिचित है। मगर इस ओर कोई ध्यान नही दे रहा है। शायद कोई इस व्यवस्था में मौजूद कैंसर का इलाज करना नही चाहता। अखिर बदलेंगे कैसे। हमाम में सभी जो नंगे है। विदेशी बैंको में हमारा खरबों का धन रखा पडा है। मगर उसे लाने को लेकर जुबानी बहस के अलावा क्या हुआ। प्रधानमंत्री बडी मछलीयों को पकडने की बात कहते है। मगर जब उनके अपने मंत्री पर भ्रश्टाचार के आरोप लगते है तो वह उसे तथ्यहीन कह देते है। आज मधु कोडा का चर्चा हर आमो खास में है। मगर यह कोई नही सोच रहा है कि इस कोडा के पीछे कितने राजनीतिक कोडाओं का हाथ होगा, क्या इसपर से पर्दा उठ पायेगा। दरअसल इस देश में इतने कोड़ा है जिन्हे पकडने की फिक्र आज किसी को नही है। राजनेताओं में पोलिटिकल विल की कमी इसका सबसे बडा कारण है। कोई बदलना नही चाहता। वरना ऐसा नही कि यहां बदला नही जा सकता। सब कुछ संभव है, मगर राजनीतिक लोक कुछ करना चाहते ही नही। डरते है, कही किसी मोड पर आकर उनका भी पर्दाफाश न हो जाये।

शनिवार, 14 नवंबर 2009

झारखंड। ए पेनफुल जर्नी

झारखंड राज्य 15 नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया। लम्बे समय के संघर्ष के बाद लोगों ने चैन की संास ली। लेकिन 9 साल की उम्र में इस राज्य का हाल ऐसा होगा किसी को नही मालूम था। नेताओं और अफसरों की मिलीभगत ने राज्य को ऐसे दोराहे पर लाकर खडा कर दिया है जहां से सिर्फ अंधेरा ही नजर आता है। राज्य की सकल घरेलू उत्पाद में जंगल और कृषि का 24 फीसदी, उघोग का 42 फीसदी और 34 फीसदी सेवा क्षेत्र का योगदान है। मगर इसकी पहुंच एक सीमित वर्ग तक है। जहां देश का 40 फीसदी खनिज मौजूद ह,ै वह गरीबी सबसे ज्यादा है। जहां 52 फीसदी जनता गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। वहां नेताओं की संपत्ती चंद सालों में करोडो तक पहुंच चुकी है। मुख्यमंत्री से लेकर चपरासी और अफसर से लेकर ठेकदार, वहां सब मालामाल है। 59 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार है जबकि 80 के दशक से हम इसका उपचार कर रहे है। आज इसे आप एकीकृत बाल विकास योजना के रूप में जानते है। 64 फीसदी गांवों में अब भी मौसमी सडकें नही है। जबकि प्रधानमंत्री ग्राम सडक योजना को आज 9 साल पूरे होने को है। 89 फीसदी ग्रामीण घरों में बिजली की कोई व्यवस्था नही है जबकि केन्द्र सरकार का नारा है ´बिजली टू आल ´ 2012 तक। मुझे मालूम है कि इस चुनाव में नेता एक दूसरे के कपडे उतारने में कोई कोर कसर बाकी नही छोडेंगे । हर राजनीतिक दल में, हम अच्छ,े तुम गंदे का खेल होगा। मगर फैसला तो जनता को देना है। बस इतना जान लेना जरूरी है कि यह राज्य अब एक ओर मधु कोडा या उसके जैसों का भार नही सहन कर सकता। पहले ही काफी देर हो चुकी है। इस बार जनता के पास एक मौका है एक स्थिर सरकार देने का। निर्दलियो और भ्रष्ट नेताओं की भ्रष्टाचार की फिल्म का ´दि एण्ड´ करने का। इससे बडा दुर्भाग्य और क्या होगा कि अपने 9 साल की उम्र में यह राज्य 6 मख्यमंत्री देख चुका है। बाबू लाल मरांडी, शिबू सोरेन, अर्जुन मुंडा और मधु कोड़ा सब मुख्यमंत्री बने, मगर 2 साल से ज्यादा कोई नही टिक पाया। क्योंकि राजनीति के इस बाजार में डील परमानेन्ट नही हो पाई। मतलब साफ है नोट कमाने में नो रूकावट। क्या आप समझे नही। महत्वकांक्षाओं की आंधी में गुरूजी यानि शिबू सोरेन ने क्या कुछ नही किया, पूरे तीन एटम्ट। आखिरकार जनता को ही उनकी हवा निकालनी पडी। तमाड़ में ऐसा तमाचा पडा कि राश्ट्रपति शासन के अलावा और कोई चारा ही नही बचा। अच्छा ही हुआ वरना आगे और कितनी बबाZदी होती इसका एस्टीमेट लगा लिजिए। वैसे भी राजनीति में अगेन ट्राई के नैतिक सिद्धान्त की पूजा हर नेता करता है। भ्रष्टाचार का जो गंदा खेल इस राज्य ने देखा वो कोई और न देखे। मगर राजनीति का वो घिनौना खेल जनता के सामने आ गया जिसकी चर्चा अक्सर होती है। आज नेता फिर जनता के दरबार में हैं। झारखंड राज्य एक सबक है राजनीति के उस बदनाम चरीत्र का जिसको सुधारने की चर्चा होने लगे तो नेता चीख चीख कर अपना गला फाड लेंगे। मगर वो कितने पाक साफ है यह तो उनकी आत्मा ही जाने। भ्रष्टाचार इस देश के सामने सबसे बडी चुनौती है। जब तक समाज के इन दुश्मनों को सजा नही मिलेगी, तब तक भारत नही बदल सकता। फिर चाहे आप मनरेगा का रोना पीटे या इन्क्लूसिव ग्रोथ का। सवाल मधु कोडा या उसके सहयोगियों का नही है। सच्चाई तो यह है इस देश में कई मधुकोड़ा है जो अपने रसूक के चलते भारत के संविधान और उसके दण्ड विधान का बार बार बलात्कार करते है मगर उनको सजा देना तो दूर हम उन्हे अपने पलको मे बैठाये रखते है। हमें जागना होगा। इस देश के नागरिकों का यह कर्तव्य है कि वो इसके खिलाफ एक जुट हो। तभी इस देश के शक्ति बोध और सौन्दर्य बोध को बचाया जा सकेगा। आज यह लेख लिखते हुए मुझे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की वह पंक्तियां याद आ रही है।
कौन कौरव, पांडव कौन, टूटा सवाल है,
क्योंकि दोनो ओर शकुनि का कूट जाल है।
धर्मराज ने छोडी नही जुए की लत,
हर पंचायत में पांचाली अपमानित है।
आज बिना श्रीकृष्ण के महाभारत होना है,
कोई राजा बने, रंक को तो रोना ह,ै रंक को तो रोना है।

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

मिशन यूपी

कांग्रेस के लिए मिशन यूपी मुंगेरी लाल के हसीन सपने से कम नही। पहले लोकसभा में जबरदस्त कामयाबी और फिर फिरोजाबाद का उपचुनाव 85000 से ज्यादा वोटों से जीतना इस बात की गारंटी नही कि यह कांग्रेस की वापसी की शुरूआत है। यूपी के संगठन के स्तर में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। फिरोजाबाद सीट तो मुलायम के गलत फैसले के चलते सपा ने गवांई। जनता ने उनके परिवार से पांच लोगों को तो झेल लिया मगर जब 6वें यानि उनकी बहू की बात आई तो जनता ने उन्हें दरवाजा दिखाना ही था। यह उन नेताओं के लिए भी एक सबक है जो राजनीति में परिवारवाद को जमकर बड़वा दे रहे है। कांग्रेस के राजबब्बर के मुकाबले डिंपल यादव कही नही टिकती थी। बस यही बात कांग्रेस के पक्ष में गई। फिर कैसे पूरी तरह इसे राहुल का करिश्मा कह सकते है। दरअसल मुलायम सिंह इस मुगालते में थे कि जनता उनके नाम पर वोट डालती है। इससे कोई फर्क नही पडता कि चुनाव में उम्मीदवार कौन है। बस यह निर्णय आत्मघाती हुआ। कांग्रेसी चाटुकारों को तो बस मौका चाहिए राहुल गांधी या फिर सोनिया गांधी की तारीफ करने का। मौका मिल गया सो हो गई चाटुकारिता शुरू। अच्छी बात यह है राहुल गांधी राजनीति के इस रंग को बखूबी पहचानते है।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

आजादी के 63 साल





जलाओं दिये पर रहे ध्यान इतना,
अन्धेरा घना कही रह नही जाए।

गर्व हो रहा है। मै खुशी से फूला नही समा रहा हूं। आज 15 अगस्त की पावन बेला पर देशवासियों को शुभकामनाऐं देना चाहता हूं। मगर कुछ सवाल मन में बिजली की तरह कौंध रहे है। जिसका जवाब कही मिलता नजर नही आ रहा है। लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देश को सम्बोधित करते सुना। देशवासियों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखकर अच्छा लगा। उन्होने कुछ सपने दिखाये। आने वाले पॉच सालों में जनता के वोट का हिसाब किताब जो करना है। बस एक सवाल नीति निर्माताओं से । आजादी के 63 सालों में क्यों आबादी का एक बडा हिस्सा आज भी गरीब है। भूखा है, मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, सडक और आवास से क्यों वंचित है। जवाब है उनके पास। फिर कैसा आजादी का जश्न। ये क्या उन महान देशभक्त सेनानियों का अपमान नही। क्या इसी दिन के लिए उन्होने कुबाZनी दी थी। आजाद भारत की परिकल्पना थी उनकी। जहां 30 करोड जनता आज भी गरीब है । 40 करोड लोग असंगठित क्षेत्र से आते है। 77 फीसदी आबादी की औकात एक दिन में 20 रूपये से अधिक खर्च करने की नही है। 40 फीसदी किसान विकल्प मिलने पर किसानी छोडना चाहते है। लाखों की तादाद में किसान हालात से हार मानकर आत्महत्या कर चुके है। महिलाऐं और बच्चे कुपोश्ण का शिकार है। 1 करोड 12 लाख बाल मजदूर है। बेरोजगारी चरम पर है। आधी से ज्याद आबादी खुले में शौच जाती है। आबादी के बडे हिस्से के पास पीने का साफ पानी नही है। भ्रश्टाचार ने पूरे देश को अपनी गिरफत में ले रखा है। महंगाई आम आदमी के हाथ वे निवाला झीन रहे है। आतंकवाद, नक्सलवाद और उग्रवाद ने हमें डरा के रखा है।फिर भी जश्ने आजादी। झूठे आश्वासन। देश की तकदीर और तस्वीर बदलने का सब्जबाग। विकास का फायदा हर व्यक्ति तक पहुचाने की झूठा वायदा। मगर हालत खशियां मनाने वाले नही। सोचने को विवश करने वाले है। सोचिए आप भी । क्यों आप नही चाहते।
खुद जियें सबको जीना सिखाऐं
अपनी खुशियां चलों बांट आये।

सोमवार, 27 जुलाई 2009

बदलेगा भारत।

साफ सुथरा रहना किसकों पसन्द नही। गंदगी से निजात हर कोई पाना चाहता है। मगर भारत में स्वच्छता ज्यादातर आवाम के लिए दूर की कौड़ी है। कारण साफ है जागरूकता और सुविधाओं का आभाव। इसी के चलते 1 से पॉच साल तक के बच्चे काल के गाल में समाते जा रहे है। 10 में से पॉच बडी जान लेवा बीमारी आस पास की गंदगी की देन है। उल्टी दस्त, पीलियॉं मलेरिया डेंगू और पेट में कीड़े की बीमारी रोजाना हजारों मासूमों की आखों को हमेंशा के लिए बन्द कर देती है। अकेले डायरिया हजारें बच्चों को मौंत की नींद सुला रहा है। इनमें से एक तिहाई अभागों को तो इलाज भी नही मिल पाता। यह उस देश की कहानी है जो अपनी आर्थिक तरक्की में इतराता नही थकता। जहॉ सेंसक्स, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को विकास का िशल्पी माना जाता है। जहॉं देश की आधी आबादी को समान अधिकार देने की गाहे बगाहे आवाज़ सुनाई देती है। वही ज्यादातर महिलाऐं खुले में शौच जाने को मजबूर है। 93 फीसदी कामगार असंगठित क्षेत्र से आते है जिनका देश की सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 60 फीसदी से ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर साफ सफाई को ही ले लिजिए। 1986 में सरकार ने केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता अभियान के सहारे इस बदनुमा दाग को धोने की कोिशश जरूर की। मगर हमेशा की ही तरह और योजनाओं की तरह यह योजना भी अधूरे में ही दम तोडती दिखाई दी। तब जाकर 1999 में सरकार ने सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान का नारा छेडा। अभियान के तहत सरकार शौचालय बनाने के लिए सिब्सडी दे रही है। मगर अब भी आधी आबादी शौच के लिए खुले में जाने को मजबूर है। जिनके लिए शौचालय बनाये भी गए वो उसमें जान के बचाये खुले में जा रहे है। इसके जिम्मेदार भी हम ही है। ऐसे कई उदाहरण है जो आज हमारे सामने है। सपने हम 2020 तक विकसित राश्ट्र बनने का देख रहे है। आज 90 करोड जनता के पास पीने के लिए साफ पानी उपलब्ध नही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट कि मुताबिक अगर सिर्फ साफ पानी हम लोगो को मयस्सर करा दें तो देश की बीमारियों को हम 15 प्रतिशत नीचे लें आयेगें। आज बहस आउटले बढाये जाने को लेकर हो रही है। मगर असली मुददा आउटकम का है। जिसपर किसी का घ्यान नही जा रहा है। हमपर आज दबाव 2012 तक मिलेनियम डेवलैपमेंट गोल के तहत तय किये गए उदेश्यो को पूरा करने का भी है।। मगर हमारे मुल्क में निर्धारित लक्ष्यों की समयप्रप्ति दूर की कौडी है। भविश्य के लिए भी सिर्फ कयास लगाए जा सकते है। आज सरकार सामाजिक जिम्मेदारियों को प्राथमिकता में लेते हुए अनेक कल्याणकारी योजनाऐं चला रही है। भारत निर्माण, नरेगा, और राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन गांवों की तस्वीर बदल रहक है, तो शहरों को मजबूत करने के लिए जवाहर लाल नेहरू राश्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन जैसे कार्यक्रम मौजूद है। मसला सिर्फ एक ही है जिसका हल भारत पिछले 62 सालों में भी नही ढूंढ पाया वह है भ्रश्ट्रचार। यही समस्या सभी उदेश्यों पर पानी फेर रही है। सबकों मालूम है कि केन्द्र का 1 रूपया गांवों तक पहुंचते पहुंचते 15 पैसे रह जाता है। मगर समाधान के प्रति क्यों गंभीरता नही। इस देश में भ्रश्ट्रचार से जुडे मामलों की सुनवाई के लिए अलग से कोर्ट गठित की जाये। क्यों इस देश में भ्रश्टाचारियों को सजा नही मिल रही है। क्यों नही उन्हे फांसी चढाया जाता। जब तक इस तबके पर डर पैदा नही होगा तबतक हर योजना का बंटाधार होता रहेगा और हम गरीबी अशिक्षा और बेरोजगारी जैसे मूलभूत मुददों पर घडियाली आंसू बहाते रहेंगे।

सोमवार, 20 जुलाई 2009

ये दिल मांगे मोर।


शिक्षा के क्षेत्र में आज व्यापक बहस चल रही है। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के 100 दिन के एजेंडे का लोग आंकलन कर रहे है। सबका अपना अपना सोचना है। मगर एक बात तो सच है कि आजादी के 62 सालों के बाद शिक्षा के क्षेत्र में हमारा देश पिछडा हुआ है। चाहे वो प्राथमिक हो माघ्यमिक हो या उच्च शिक्षा। हालात अच्छे नही है। यही कारण है कि शिक्षा के अभाव के चलते समाज में अनेक समस्याऐं पैदा हुई है। शिक्षा समवर्ती सूची में है लिहाजा केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर इस क्षेत्र के लिए काम करना होगा। मगर आज सरकार जागी है। शिक्षा के हर पडाव पर बदलाव के संकेत दिखने लगे है। बुनियादी शिक्षा को मजबूत करने के लिए 2000 में एनडीए सरकार के कार्यकाल में सर्वशिक्षा अभियान की शुरूआत हुई। आज जो नतीजे है वह निश्चित तौर पर उत्साहित करने वाले है। जहां स्कूल से बाहर रहने वालों की संख्या 3.50 करोड थी। वह आज 80 लाख के करीब है। आज इस क्षेत्र पर होन वाला खर्च भी बडा है जेा 13100 करोड है। ग्यारवीं पंचवशीZय योजना में सर्व शिक्षा अभियान को 71000 करोड दिये गए है। 10वीं पंचवशीZय योजना के मुकाबले 54000 करोड ज्यादा। उपर से मीड डे मील कार्यक्रम के तहत 15 करोड बच्चे जुडे है। अब चुनौति इस बात की है कि स्कूल से जुडे बच्चे प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल को न छोडे। साथ ही शिक्षा अच्छी हो जिसका की घोर अभाव दिखाई देता है। उदाहरण के तौर पर 5वीं कक्षा के बच्चे घडी देखना तक नही जानते । जोड घटाना नही जानते। कई स्कूलों में तो शिक्षकेा को सवाल किये गए तो वो बगले झांकने लगे। अब इस कार्यक्रम के दूसरे चरण में सरकार प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर घ्यान दे रही है। इसके बाद बारी है माघ्यमिक शिक्षा की । देश में माध्यमिक शिक्षा तक पहुंच सिर्फ 100 में से 28 बच्चों की है। यानि 72 बच्चे अब भी स्कूल से बहार। मार्च 2009 से भारत सरकार राश्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की शुरूआत कर चुकी है। इसे बजट में 1354 करोड दिये गए है। मगर इतनी धनराशि बहुत कम है। उच्च शिक्षा का हाल तो और भी बुरा है। भारत में 100 में से 12 बच्चे ही उच्च शिक्षा ले पाते है। जबकि विदेशो ंमें यह आंकडा 60 का है। ज्ञान आयोग की माने तो अगर इस आंकडे को 15 करना है तो 1500 नए विश्वविघालय बनाने होगे। ऐसा नही है कि कोई पडना नही चाहता। दिक्कत यह है कि विकल्प क्या है। संसाधन कहां है। अब जब बात इसमें व्यापक बदलाव की हो रही है तो इसमें कमियां निकालने से ज्यादा इसको अमल में लाने की होनी चाहिए। क्योंकि पहले ही 62 साल आप निकाल चुके है। युवा शक्ति भारत की ताकत है।उसकी पहचान है। उसको शिक्षित करना हमारा कर्तव्य है जिससे सरकारें मुंह नही मोड सकती। केन्द्र और राज्य सरकारों के मिलकर इस महायज्ञ में अपना योगदान देना होगा। अगर आज विदेशी विश्वविघालयों को भारत में आने दिया जाता है तो हमें घबराने की जरूरत नही है। सरकार को पहले से ही नियम कानून सक्त करनें चाहिए।। यशपाल समिति और ज्ञान आयोग की सिफारिशों पर गहनविचार होना चाहिए। सरकार आज जीडीपी का 3 से 4 फीसदी शिक्षा पर खर्च रही है जिसे बढाकर 6 से सात फीसदी करना होगा। साथ ही निजि क्षेत्र को लाना होगा क्योंकि भारी निवेश के बिना यह संभव नही। एक अनुमान के मुताबिक उच्च िश्क्षा में मौजूद खर्च का 10 गुना भी कर दिया जाए तो भी कम होगा। हमें आज शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलावों की जरूरत है। अच्छी बात यह है कि इन बदलावों का जिम्मा एक अच्छे राजनेता के कंधे पर है।

बुधवार, 17 जून 2009

सरकार कहिन, झुग्गी बोले तो न!

अगले पांच सालों में भारत झुग्गी मुक्त होगा । आप में से कितने लोग सोच रहे होंगे की मैं झूठ बोल रहा हूं। लेकिन नही, यह सौ आने सच बात है। यूपीए सरकार राजीव आवास योजना के तहत अगले पांच सालों में यह कारनामा कर दिखाएगी। अभी एलान ही हुआ है समय आते आते क्या होगा यह कोई नही जानता। बस इतना मालूम है कि भारत में गरीबी हटाओं योजनाओं का रिकार्ड खराब रहा है। अब आइये जरा जानते है कि स्लम मुक्त भारत क्या पांच साल में हो सकता है। सरकार के आंकडों के मुताबिक 2007 में मकानों की कमी को लेकर जो अघ्यन किया गया है उसके हिसाब से हमें 24.71 मिलीयन कह जरूरत है। जहां तक स्लम में रहने वालों का सवाल है उनकी तादाद पिछले तीन दशकों में तेजी से बड़ी है। 1981 में भारत में स्लम में रहने वालों की आबादी 2 करोड़ 60 लाख थी। जो 1991 में 4 करोड़ 62 लाख हो गई। 2001 तक आते आते इसकी संख्या 6 करोड़ 18 लाख पहंंच गई। अगर बात सिर्फ चार महानगरों की ही करें तो मुंबई की स्लम आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार 64,75,440 थी। यानि मंबई की आबादी का 54.1 फीसदी। यह देश की आर्थिक राजधानी का हाल है। जहांं लोग अपने सपने को हकीकत में बदलने के लिए आते है।उमगर नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर है। हिन्दुस्तान का दिल कहीं जाने वाली दिल्ली में स्लम आबादी 18.7 फीसदी है जबकि चिन्न्ई में इसकी संख्या 18.9 प्रतिशत और कोलकाता में 32.5 प्रतिशत है। इसके अलावा देश के विभिन्न शहरों में हाल और भी बुरे है। शिक्षा, स्वास्थ्य, शुद्ध पानी, साफ सफाई की यहां कोई बात नही करता। 2005 में सरकार ने जवाहर लाल नेहरू अरबन रून्यूवल मिशन के सहारे देश के 63 शहरों को मूलभूत सेवाऐं देने की शुरूआत की। जानकारों की माने मे ंतो कुछ मायने में इस योजना के नतीजे अच्छे रहे है। मगर हालात अब भी संतोषजनक नही है। राजीव आवास योजना को इसी कार्यक्रम के तहत योजना के तहत शुरू किया जायेगा। यह योजना इंदिरा आवास योजना की तरह ही होगी जो भारत निर्माण के तहत ग्रामीण इलाकों में लोगो को मकान की सुविधा प्रदान कर रही है। स्लम बस्तियों के बडने की बडी वजह पलायनवाद है। आज भी लोग बडी तादार में रोजी रोटी के लिए सडकों का रूख कर रहे है। माना यह भी जा रहा है कि जेएनएनयूआरम के इस बार आवंटन अच्छा होन वाला है। मगर हवा में तीर मारने से कोई फायदा नही।ऐसा नही है कि यह पहली बार हो रहा है। इससे पहले भी गरीबों को छत मुहैया कराने के लिए तमाम उपाय किये गए। आइये एक नजर डालते है।

1990 में इंदिरा आवास योजना।

1991 में इडब्लूएस हाउसिंग स्कीम ।

1996 में नेशनल स्लम विकास कार्यक्रम।

1998 में 2 मिलीयन आवास कार्यक्रम।

2000 में प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना।

2001 वािल्मकी अंबेडकर आवास योजना।

2005 जवाहरलाल नेहरू अरबन रूनवल मिशन।

यानि घर बनाने के लिए आधा दर्जन केन्द्रीय योजनाऐं। मगर अब भी बडी आबादी खुले आकाश के नीचे जीने के लिए मजबूर है। अब सवाल यह कि पांच सालों में स्लम मुक्त भारत पर कैसे विश्वास कर लें। 2005 से लेकर 2009 के बीच 50000 करोड़ सिर्फ जेएनएनयूआरम को ही आंवंटित किये गए। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार इस समस्या को रोकने के लिए कदम उठाये। साथ ही सरकार को उपरोक्त कार्यक्रमों से सीख लेकर राजीव आवास योजना की रूपरेखा तय करनी चाहिए।

शनिवार, 13 जून 2009

हम इतने भ्रष्ट क्यों हैं।

भ्रष्टाचार आज हमारे दैनिक जीवन का एक बडा हिस्सा बन गया है। इसी बीमारी ने हमारे देश के 62 साल के विकास के सफरनामें में बडी रूकावाट पैदा की। नीति निर्माता जानते है। सरकार जानती है यहां तक की भ्रष्टाचार को पानी पी पी के कोसने वाले हम भी कम भ्रष्ट नही है। हम अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचने के लिए दूसरों के भ्रष्ट और अपने को गंगा नहाया समझते है। सही मायने में यही इस समस्या का मुख्य कारण है। वो कहते है ना, बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलया कोई, जो मन देखा आपनों, मुझसे बुरा न कोई। हमें कोई हक नही है दूसरों को भ्रष्ट कहने का। राजीव गॉंधी ने यह बात 1985 में कही थी कि गरीबी उन्मूलन योजनाओं के लिए केन्द्र से भेजा एक रूपये में सिर्फ 15 पैसा ही जरूरत मंदों तक तक पहुंच पाता पाता है। अब उनके लाल राहुल भी यही राग अलाप रहे है। कई सर्वेक्षण भारत में भ्रष्टाचार की हालात बता रहे है। कैग तो हर बार भ्रष्टाचार का काला चिटठा लाती है। मगर होता क्या है कितने लोगों केा सजा मिल पाती है। आज सीबीआई छापे मार के लोगो की अकूत संपत्ती का पता कर रही है। मगर क्या वो इसके लिए जिम्मेदार लोगों को अंजाम तक पहुंंचा पायेगी। आज कोई कहता है कानून बनाने वाले नेता भ्रष्ट है कोई कहता है न्याय देने वाला न्यायालय भ्रष्ट है कोई कहता है कि सुरक्षा देने वाली पुलिस भ्रष्ट है । सही कहा एक न्यायाधीश ने कि, इस देश को भगवान ही बचा सकता है। मगर क्या सिर्फ रोने से इस बीमारी का हल निकल जायेगा। हमने जो भ्रष्टाचार को मौन स्वीकारोक्ती दे रखी है उससे हमें बहार आना होगा। सुविधा शुल्क लेने देने वालो की दुकानदारी को ताला लगाना होगा। विदेश में जमा काले धन केा वापस लाना होगा। साथ ही देश में छिपे काले धन को भी निकालकर गरीबों के विकास के लिए खर्चना होगा। चलिए ये तो छोटा खेल है। बडे खेल यानि तू भी खुश मैं भी खुश का खेल जो नेता और अफसर खेलते है। उसके लिए सरकार को कठोर होना होगा। एक ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इच्छा से यह सब नही होगा। सरकारी नीतियों के लिए जवाबदेही तय करनी होगी। हर सरकारी योजना में चाहे वो नरेगा हो, मीड डे मिल हो, सार्वजनिक वितरण प्रणाली हो यह कोई और सब पर गिद्ध दृष्टि रखनी होगी। नेताओं, अफसरों और ठेकेदारो की सरकारी माल को लूटने से रोकना होगा। इनके जमीर को जगाना होगा। आज हर क्षेत्र में सुधार होने है। मगर इनमें बदलाव के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव साफ दिखाई देता है। चुनाव सुधार, प्रशासनिक सुधार, पुलिस सुधार सबके सब ठंडे बस्ते में पडे है। कितनी शर्म की बात है कि आजादी केे 62 साल बाद 77 फीसदी जनता के एक दिन में खर्च करने की क्षमता 20 रूपये हैं। सरकार को समझना होगा कि भ्रष्टाचार भी एक तरह का आर्थिक आतंकवाद है, जिसके खिलाफ भी जीरो टांलरेंस की नीति अपनानी होगी। इससे जुडे मामलों की सुनावाई जल्द से जल्द निपटाने के लिए अलग से कोर्ट बनाने होंगे। सूचना के अधिकार, ई गर्वनेंस, सीटीजन चार्टर और सोशल आंडिट जैसे पारदशीZ क्रियाक्लापों के प्रति जनता को जागरूक करना होगा। मीडिया को अपनी जिम्मेदारी का विस्तार करना होगा। सरकारी नीतियों से जुडी जानकारियों को जन जन की तक ले जाना होगा। सिर्फ जुबानी खर्च करने से कुछ नही होगा। हमें हर हाल में बदलाव लाना होगा। मैं चाहूंं तो निजा में कुहून बदल डांलू, फ्रफकत, यह बात मेरे बस में नही। उठो आगे बडों नौजवानों यह लडाई हम सब की है, दो चार दस की नही।

बुधवार, 10 जून 2009

पहला सुख निरोगी काया

इससे आशय है की सेहत सही तो सब कुछ सही। मगर सेहर के मामले में हमारी हालात पतली है। हर दिन नई बीमारियॉ हमारे सामने आ रही है। अब इस नई मसीबत स्वाइन फलू को ही देख लिजिए। दुनिया के साथ साथ भारत की परेशानी भी बड गई है। स्वास्थ्य मंत्री नॉट फिकर का मंत्र दे रहे है। अब इस इंसान को कौन समझाये । कैसे विश्वास करे सरकार की चिकनी चुपडी बातों पर वो भी तब जब उसे पता लगता है कि विश्व जनसंख्या में हमारी भागीदारी भले ही 16.5 हो मगर बिमारी के मामले में 20 फीसदी है। 2005 में सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के सहारे गांव की सेहत सुधारने के लिए कार्यक्रम बनाया। इस कार्यक्रम ने कुछ आशाऐं भी जगाई। मगर नतीजे खुश होने वाले नही है। आज स्वास्थ्य क्षेत्र की 76 फीसदी कमान नीजि हाथों में है। बाकी 22 फीसदी सरकार के नियंत्रण में है। नीजि अस्पतालों की तो पूछो मत। मरीज को बकरा समझते है। सही मायने में ये अस्पताल होटल बन गए है। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का इनको अहसास नही। लिहाजा सरकार को चाहिए की इनकी मुनाफाखोरी की बीमारी का इलाज करेे। हमारे देश में स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर सरकारों ने गंभीरता नही दिखाई। आज भी हम स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का महज 1.06 प्रतिशत खर्च कर रहे है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक विकासशील देशों को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6 फीसदी हिस्सा सेहत पर खर्च करना चाहिए। 2004 में यूपीए सरकार ने इसपर जीडीपी का 2 से 3 फीसदी खर्च करने की बात कही थी। मगर लगता है यह सफर अभी लंबा है। स्वास्थ्य क्षेत्र के आंकडों पर अगर गौर किया जाए तो डर लगने लगता है। देश के 4711 उप केन्द्र राम भरेसे है। न एएनएम है, न ही स्वास्थ्य कर्मचारी। 68.6 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बिना डाक्टर के है। योजना आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 10 लाख नर्स, 6 लाख डाक्टर और 2 लाख दन्तचिकित्सकों का टोटा है। भारत में सालान 36000 डाक्टर निकलते है। लगभग 60 हजार डाक्टर विदेशों में अपनी सेवा दे रहे है। हमारे गरीब भाई सरकारी अस्पतालों में घंटों इंतजार करते है। ऐसे में कुछ नीतियों में सख्त बदलाव की जरूरत है। देश के 1188 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में बिजली नही है। 1647 बिना पानी के है। आज डाक्टरों के एक साल के लिए गॉव में भेजनेकी बात कही जा रही है। मगर उससे पहले सरकार को वहांं बुनियादी सुविधाऐं मुहैया करानी होंगी। इसकेअलावा 56 प्रतिशत बच्चों का समय से टीकाकरण नही हेा पाता। देश के 40 फीसदी बच्चो का वजन कम है। कुपोषण को दूर करने में हमारी नाकामयाबी झलक रही है। यूनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 3साल से कम उम्र के 42.8 फीसदी बच्चे कुपोषण की गिरफत में है। मध्यप्रदेश का रिकार्ड कुपोषण के मामले में बेहद खराब है। आधी आबादी केे पास अब भी शौचालय की सुविधा नही है। बावजूद इसके हम लम्बे समय से सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान चला रहे है। 55 फीसदी जनसंख्या आज भी खुले में शौच जाने के लिए मजबूर है। विकसीत सरकारो ने एक नायाब तरीका अपनाया। इन सरकारों ने पानी को साफ बनाने और पर्यायवरण की शुद्धता बानने के लिख सरकारी खर्च बडा दिया है। भारत में भी आज दूशित पानी और हवा ने लोगो की सेहत खराब कर रखी है। और यह बडता जा रहा है। स्वस्थ्य रहने के लिए साफ पानी हवा और दैनिक जीवन में व्यायाम की जरूरत है। जिससे आज हम कोसो दूर है। बडी बात आज हम सभी को अपने स्तर पर भी कुछ न कुछ रचनात्मक भूमिका निभानी होगी।

रविवार, 7 जून 2009

खबरदार ! ये जनता की अदालत है।


जनादेश 2009 ने कई राजनीतिक पंडितों को दातों तले उंगली दबाने के लिए मजबूर कर दिया। किसी को ऐसे जनादेश की आशा नही थी। खुद कांग्रेसी दिग्गज हैरान थे। पहले मालूम होता तो शायद राहुल बाबा भी टीडीपी और नीतिश कुमार का मन नही टटोलते। न ही विरप्पा मोईली से मीडीया प्रभारी का जिम्मा छिना जाता। मगर नतीजों ने सब कुछ साफ कर दिया। आखिर यह संकेत किस ओर था। किसके लिए था। किसके खिलाफ था। भारत की आवाम आखिर क्या चाह रही है। क्यों उसने एक ऐसे दल पर भरोसा किया जिसके कार्यकाल में मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ। महंगाई आसमान छूने लगी। आर्थिक मंदी के प्रभाव के चलते रोजगार पर लात पड़ रही थी। चलिए समझते है कि भारत की जनता का इसके पीछे का संदेश क्या है। भारत की जनता गठबंधन राजनीति के बेमेल जोडो से तंग आ गई है। वह तंग आ गई है कि सत्ता पाने के लिए राजनीतिक दल वह सब कुछ कर रहे है जो जनता जनार्दन को नागवार गुजर रहा है। यह यह गठबंधन से निराश जनता को दो दलीय व्यवस्था की राजनीति की तरफ बडने के लिए दिया गया जनादेश है। शायद इसिलिए टीडीपी, टीआरएस और एलजेपी से शुरूआत उन्होनें कर दी है। छोटे दलों के लिए यह संकेत भी है और चेतावनी भी। समय से नही सुधरे तो सिर्फ नाम रह जायेगा। साथ ही यह चुनाव सकारात्मक और नकारात्मक प्रचार के बीच एक लक्ष्मण रेखा भी खींचता है। बीजेपी का प्रचार इसका जीता जागता प्रमाण है। सबसे बडी बात है कि भारत की आवाम ईमानदारी को आज भी सलाम ठोकती है। इसिलिए तो बीजेपी के लाख कहने पर भी कि यह प्रधानमंत्री बहुत कमजोर है। फैसले 10 जनपथ से होते है। जनता ने भाव नही दिया। यहॉं पर एक बड़ा फर्क है। मेरा मानना है कि यह सच भी है तो कांग्रेस की सबसे बडी ताकत भी यही है। अनुशासन का सबसे बडा कारण भी यही है। इसी वजह से यह पार्टी अब तक न सिर्फ खडी है बल्कि लोगो ने इसे विश्वास पात्र भी माना है। इसमें कोई दो राय नही कि सच्चे मायने में इसका श्रेय सोनियॉं गांधी को ही जाता है और कई हद तक ईमानदार और विनम्र प्रधानमंत्री के साथ ही राहुल गांधी की युवाओं पर भरोसा करने की रणनीति पर भी। चुनाव के दौरान बीजेपी में इसका अभाव दिखाई दिया। नतीजा 2004 के 138 सीटों से गिरकर 116 पर आ गए। तीसरे मोर्चे और चौथे र्मोचे की भी जनता ने हवा निकाल दी। साथ ही यह पैगाम भी दे दिया कि अगर सुविधा के हिसाब से पाला बदलने की बाजीगरी आप लोगो ने दोबारा दिखाई तो हम माहिर लोगो आपको सबक सिखा देंगे। एक सीख कांग्रेस के लिए भी। हमने आप पर विश्वास किया है आप हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरिये। क्योंकि पॉंच साल बाद आपके तकदीर का फैसला हमें ही करना है। सही मायने में इस चुनाव ने राजनीतिक दलों को न सिर्फ आत्ममंथन का मौका दिया है बल्कि  ईमानदारी से अपनी गलतीयों को जानने और सुधारने का मौका भी। 

भारत निर्माण की कहानी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने दूसरे कार्यकाल में विकास की एक ऐसी इबारत लिखना चाहते है। जहॉं अमीर और गरीब के बीच का फासला कम हो सके। इसलिए उन्होनें अपनी नई पारी में इसका ऐलान भी कर दिया है। जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन के सहारे वो शहर का निर्माण कर रहे है तो भारत निर्माण के माध्यम से गॉंव की तस्वीर और तकदीर बदलने के प्रयास जारी है। मगर एक बात है जो इस तस्वीर को धुंधला कर रही है, वह है इसके तहत तय किये लक्ष्यों का पूरा न होना। यह खुद सरकार को भी मालूम है। भारत निर्माण का जन्म 2005 में हुआ। इसके तहत गॉंवों को 4 सालों में बिजली पानी सड़क सिंचाई टेलीफोन और घर मुहैया कराने के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित किये गये थे। इसमे 6 योजनाऐं शामिल है जो गॉव के मूलभूत ढॉंचे को मजबूत करने का काम करेंगी। इनमें से ज्यादातर काम पूरे नही हो पाये। इसके लिए सरकार ने 174000 करोड़ का आवंटन किया मगर काम के धीमेपन ने न सिर्फ सरकार को निराश किया बल्कि आम जनमानस तक को कई सुविधाओं से महरूम होना पडा। अब सरकार अपने नये कार्यकाल में कुछ नए लक्ष्य निर्धारित करने की बात कर रही है। मसलन इंदिरा आवास के तहत 2005 से 2009 के बीच 60 लाख मकान बनाये जाने थे जिन्हें समय से पूरा कर लिया गया। इससे उत्साहित सरकार अब अगले पॉंच सालों में 1 करोड़ 20 लाख मकान बनाने जा रही है। मगर बिजली पानी सडक और सिंचाई के काम का पिछला रिकार्ड बेहद खराब रहा है। बस टेलीफोन गॉवों तक तेजी से पहंचाने में सरकार सफल रही है। बिजली जिसे 125000 गॉवों में जगमगाना था वो 66000 गॉंवों तक ही जा पाई। सडकों का दायरा 350000 किलोमीटर फैलाने का था उसका काम 36 फीसदी ही हो पाया। ऐसा ही हाल सिंचाई और पानी का रहा। सिंचाई का तय लक्ष्य 10 मिलीयन हेक्टेयर का था। हो पाया आधा। पीने के पानी की कहानी भी कमोबेश यही रही। अब सरकार इसको लेकर पेरशान है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसको लेकर अपनी नाखुशी जाहिर कर चुके है। अब सवाल यह उठता है कि सिर्फ लक्ष्य निर्धारित करने से काम नही बनेगा। सभी काम अपनी तय समयसीमा से पूरे सके इसके लिए कुछ जरूरी उपाय करने होगें। मसलन योजनाओं को पूरा करने का जिम्मा राज्य सरकार की मशीनरी का है। अगर वो इसे नही कर पाते तो उनके खिलाफ कारवाई होनी चाहिए। जरूरत पड़ने पर सरकार आर्थिक दंड भी लगा सकती है। अगर इसके लिए संविधान संशोधन की जरूरत पडे तो उससे भी पीछे नही हटना चाहिए। शायद लोगों के प्रति सरकारों की जवाबदेही तभी बन पायेगी। तब न तो केन्द्र सरकार  क्रियान्वयन सही से न कर पाने का ठीकरा राज्य सरकारों के मथ्थे मड़ पायेगी। न ही राज्य सरकार बहानेबाजी कर आसानी से बच पायेगें। एक दूसरे को नीचा दिखाना समस्या का समाधान नही है। केन्द्र सरकार को राज्यों के साथ मिल बैठकर इसका कोई न कोई उपाय निकालना होगा। सिर्फ ज्यादा पैसे देने से काम नही बनेगा। जवाबदेही और पारदर्शिता तय की जानी चाहिए। 

शनिवार, 6 जून 2009

नारी का सम्मान करो।


कहते है कि अगर एक बेटी को शिक्षा दे दी जाए तो पूरा परिवार शिक्षित हो जाता है। शायद टीम मनमोहन इस बात को जानते हो। इसिलिए राश्टपति के भाशण में महिलाओं के लिए कुछ नया करने की सरकार ने चाह दिखाई है। हर महिला को शिक्षा देने के उददेश्य से सरकार राश्टीय साक्षरता मिशन को राशटीय महिला साक्षरता मिशन बनाने जा रही है। इससे यह तय हो पायेगा कि महिलाओं जिनका 2001 की जनगणना में साक्षरता प्रतिशत 54 था उसमें अब बदलाव तेजी से आयेगा। इसके अलावा चौदह साल से मजाक बना चुका महिला आरक्षण विधेयक एक बार फिर चर्चा में है। यह सरकार के 100 दिन के एजेंडे के 25 सूत्रीय कार्यक्रम में सबसे उपर है। जो महिला आरक्षण विधेयक एक मजाक बनकर रह गया था। उसके पास होने की उम्मीद इस बार ज्यादा है। इस बार सरकार के पास ना नूकूर की भी गुजायश नही दिखाई देती। सरकार के पास संसद के दोनों सदनों में इसे पास कराने के लिए जरूरी सर्मथन संसद के दोनों सदनो में प्राप्त है। साथ ही जरूरत के हिसाब से इसे 14 राज्यों का समर्थन भी आसानी से मिल जायेगा। हालांकि कुछ फेरबदल इसमें सरकार कर सकती है। फिलहाल यह विधेयक राज्यसभा में है। चूंकि यह संविधान संशोधन है इसलिए इसे पास कराने के लिए सरकार का सदन के दोनो सदनों लोकसभा और राज्यसभा में दो तिहाई समर्थन की जरूरत है। दूसरा बडा काम पंचायत में महिलाओं का आरक्षण 33 फीसदी से बड़ाकर 50 फीसदी करना है। यह भी संविधान संशोधन विधेयक होगा। इससे पहले सरकार ने संविधान के 73 व 74 वें संविधान संशोधन के जरिये यह ताकत महिलाओं को दी थी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गॉधी का यह सपना था कि लोकतंत्र में महिलाओं को भी बराबरी की भागीदारी मिले। अब लगता है कि उनके अधूरे ख्वाब को सोनिया गॉधी और राहुल गॉधी अपने अथक प्रयास से पूरा करने की कोशिश कर रहे है। इसके अलावा मातृ मृत्यु दर को कम करने के लिए विशेश प्रयास किए जा रहे है। राश्टीय ग्रागीण स्वास्थ्य मिशन के तहत जननी सुरक्षा योजना और 6 लाख आशाओं की नियुक्ति से सरकार तय किये लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश में है। महिलाओं पर अत्याचार रोकने के लिए घरेलू हिंसा निवारण कानून बनाया गया है। मगर नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकडे डराने वाले है। सरकार को चाहिए की इस पर हर कीमत पर लगाम लगाई जाए। समाज में महिलाओं को लेकर आज अपनी मानसीकता बदलने की सख्त जरूरत है। और इसके लिए हम सब को मिलकर पहल करनी होगी। सोचो न समझो लाचार है औरत, जरूरत पडे तो तलवार है औरत। मॉं है, बहन है, पत्नी है,हर जिम्मेदारी के लिए तैयार है औरत।

शुक्रवार, 5 जून 2009

नापाक पाक और दो मुहॉं अमेरिका

लाहौर हाइकोर्ट से जमात उद दावा के चीफ हाफिज मुहम्मद सईद के रिहाई का आदेश भारतीय कूटनीतिकारों के लिए एक बढा झटका है। उससे बडा झटका अमेरिका ने दिया है जो आतंकवाद को अपना सबसे बडा शत्रु मानता है। इस मामने में बोलने को तैयार नही। उलटा एक एडवाजरी जारी कर अपने नागरिकों को पाकिस्तान और भारत में सोच समझ कर जाने की चेतावनी दे दी। अमेरिका का दोहरा रवैया एक बार फिर सबके सामने आ गया। हांलाकि भारत सरकार ने इस बयान पर अपनी नाखुशि जाहिर कर दी। आखिर अमेरिका का इसके पीछे क्या आशय हो सकता है। अमेरिका आतंकवाद को अपनी तरह से परिभाशित करता आया है। अलकायदा और तालीबान उसके लिए बडा खतरा है। इन्ही को मिटाने की चाहत वो रखे हुए है। इसके लिए उसे पाकिस्तान की जरूरत है। पैसे के दम पर इसमें वो सफल भी हो रहा है। आज भारत की आतंकवाद के प्रति नीति जीरो टौलरैंस की है। कूटनीतिक प्रयासों के साथ साथ उसे सुरक्षा के व्यापक इंतजाम करने चाहिए। जमीन आसमान और समंदर में सख्त पहरा हो। खुफिया तंत्र इतान मजबूत हो कि किसी भी साजिश का भंडाफोड समय रहते हो सके। उधर पाक ने कश्मीर राग अलाप कर अपनी सोच उभार दी है। इसलिए भारत की विदेश नीति की चुनौतियां कम नही है। मगर यह झटका एक सीख भी देता है। अपने भरोसे आगे बडो।।झटका इसलिए भी क्योंकि पहली बार नानुकूर करने वाले पाकिस्तान को भारत ने मजबूर कर दिया यह मानने के लिए कसाब उनके देश का नागरिक है। 26 ग्यारह हमले को अंजाम पाकिस्तान की जमीन से दिया गया। जमात उद दावा पर प्रतिबंध लगाने से लेकर उसके चीफ हाफिज मुहम्मद सईद की गिरफतारी को भारत एक बडी कामयाबी के तौर पर देख रहा था। हाल ही में अमेरिका कांग्रेस की रिपोर्ट में यह भी खलासा हुआ कि पाक के 60 परमाणु मिसाइलों का मुंह भारत की ओर है। इतना ही नही इस रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान गुपचुप तरीके से परमाणु प्रसार में लगा है। वो पाकिस्तान जिसे अपनी माली हालत सुधारने के लिए समय समय पर अमरीका का मुहं देखना पडता है। कहानी यही खत्म नही होती लश्करे तैयब्बा से जुडा आजम चीमा और जैश ए मुहम्मद का चीफ मौलान मसूर अजहर पर पाबंदी लगाने के लिए ब्रिटेन और चीन ने और सबूत की मॉग की है। भारत ने इस मामले की अपील संयुक्त राश्ट्र में की थी। यह उस पाकिस्तान की कहानी है जिसके प्रधानमंत्री से लेकर राश्ट्रपति और आर्मी चीफ आतंकियों को निस्तोनाबूद करने की कसम खा रहे है। और इस अभियान में उनका सबसे बडा साथी अमेरिका है। इन सारे घटनाक्रमों के बाद पाकिस्तान की कथनी और करनी में एक बार फिर अंतर दिखाई देने लगा है। अब देखना यह होगा कि पाकिस्तान और अमेरिकी रवैये का जवाब भारत किस तरह से देता है।

तारीख पर तारीख


भारत में न्यायपालिका में लंबित पडे मामले आज बडी चिंता का विशय है। सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय का
सिद्धान्त आज दूर की कौडी नजर आ रहा है। न्याय पाने में लोगों को सालों इन्तजार करना पडता है। भारत में लिम्बत पडे मुकदमें के आंकडे भी दंग करने वाले है। निचली अदालतें में 3 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित है। जबकि उच्च न्यायालयों में इसकी संख्या 30 लाख से उपर है। उच्चतम न्यायालयों में हजारों की तदाद में मामले न्याय की राह बटोर रहे है। अब सवाल उठता की की यह समस्या आज इतनी विकराल क्यों बन गई। दरअसल आजादी के बाद सियासतदानों ने इस मसले केा गंभीरता से लिया ही नही। इसके पिछे कई पहलू है। मसलन न्यायालयों में जजों के रिक्त पदों की संख्या को समय से क्यों नही भरा जाता । क्यों बडती जनसंख्या के आधार पर जजों की पद नही बड़ाये जाते। ढॉंचागत सुविधाओं की कमी पर क्यों ध्यान नही दिया गया। मगर इन सब के बीच वह सब हुआ जिसने न्यायालयों में मुकदमों की संख्या बडाई। संसद और राज्य विधानसभाओं ने कई नए कानून बनाए। मगर न्यायपालिका पर इसका क्या इसर पडेगा इसकी सुध किसी ने नही ली। न ही इसके अध्यन के लिए कोई कमिटि बैठी। लॉ कमिशन ने अपनी सिफारिशों में जजों की संख्या बडाने के साथ मूलभूत सुविधाओं उपलब्ध कराने पर खास जोर दिया। ऐसा ही कुछ सिफारिश विधि मंत्रालय की स्थाई समिति ने कहा। जजेस इन्क्वारी बिल भी लटका पडा है। मगर सरकार इस बार न्यायिक सुधार के प्रति संजीदा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदशीZता लाने की बात कह चुके है। इवनिंग कोर्ट का मॉडल गुजरात में सफल रहा। अब इसे बाकी राज्यों में लागू करना बाकी है। फास्ट ट्रैक कोर्ट और मोबाइल कोर्ट जैसे विकल्प भी सामने है। इस हॉ इस दौरान इतन जरूर हुआ की न्यायपालिका में व्याप्त भ्रश्ट्राचार में नकेल लगाने की कोशिश शुरू हो गई है।
कुछ सिफारिशें सरकार के पास मौजूद है। जिसमें प्रमुख है ।
सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या 25 से बढाकर 30 करना।
लॉ कमिशन की सिफारिश 10 लाख की आबादी पर हो 50 न्यायाधीश।
मुख्य न्यायाधीश ने की भ्रश्ट्रचार से जुडे मामले को निपटाने के लिए विशेश अदालत खोलने का उपाय।
मुकदमें को निपटाने की समय सीमा तय हो।
अमेरिका मे प्रति 10 लाख जनसंख्या में 110 जज है। पश्चिमी दशों में यह अनुपात 135 से 150 है।
आज बात दरवाजे में ही न्याय देने ही कही जा रही है। अब बिना इंतजार के इन सिफरिशों को सरकार जमीन पर लागू करे।
गहरा जाता है अंधेरा, हर राज निगल जाती एक सुनहरा सवेरा।
फिर भी सृजन पर मुझे विश्वास है, एक नई सुबह की मुझे तलाश है।

बुधवार, 3 जून 2009

नापाक पाक


लाहौर हाइकोर्ट से जमात उद दावा के चीफ हाफिज मुहम्मद सईद के रिहाई का आदेश भारतीय कूटनीतिकारों के लिए एक बढा झटका है। झटका इसलिए भी क्योंकि पहली बार नानुकूर करने वाले पाकिस्तान को भारत ने मजबूर कर दिया यह मानने के लिए कसाब उनके देश का नागरिक है। 26 ग्यारह हमले को अंजाम पाकिस्तान की जमीन से दिया गया। जमात उद दावा पर प्रतिबंध लगाने से लेकर उसके चीफ हाफिज मुहम्मद सईद की गिरफतारी को भारत एक बडी कामयाबी के तौर पर देख रहा था। हाल ही में अमेरिका कांग्रेस की रिपोर्ट में यह भी खलासा हुआ कि पाक के 60 परमाणु मिसाइलों का मुंह भारत की ओर है। इतना ही नही इस रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान गुपचुप तरीके से परमाणु प्रसार में लगा है। वो पाकिस्तान जिसे अपनी माली हालत सुधारने के लिए समय समय पर अमरीका का मुहं देखना पडता है। कहानी यही खत्म नही होती लश्करे तैयब्बा से जुडा आजम चीमा और जैश ए मुहम्मद का चीफ मौलान मसूर अजहर पर पाबंदी लगाने के लिए ब्रिटेन और चीन ने और सबूत की मॉग की है। भारत ने इस मामले की अपील संयुक्त राश्ट्र में की थी। यह उस पाकिस्तान की कहानी है जिसके प्रधानमंत्री से लेकर राश्ट्रपति और आर्मी चीफ आतंकियों को निस्तोनाबूद करने की कसम खा रहे है। और इस अभियान में उनका सबसे बडा साथी अमेरिका है। इन सारे घटनाक्रमों के बाद पाकिस्तान की कथनी और करनी में एक बार फिर अंतर दिखाई देने लगा है। अब देखना यह होगा कि पाकिस्तान के इस रवैये को देखते हुए भारत का अगला कदम क्या होगा।

मंगलवार, 2 जून 2009

बंदे में है दम

उतराखंड में कपकोट सीट जीताकर भगत सिंह कोश्यारी ने अपना लोहा आखिरकार मनवा लिया। अब बारी केन्द्रीय नेतृत्व की है कि वो इस मामले को कितनी गंभीरता से लेते है। इस बार बीजेपी चूकी तो फिर संभल नही पायेगी। दरअसल विधायकों का एक बडा कुनबा मुख्यमंत्री खंडूरी को नही पसंद करता। इसकी शिकायत लेकर वो दिल्ली भी आ चुके है। मगर दिल्ली के नेताओं ने इसे तरजीह नही दी । नतीजा 1984 के बाद कांग्रेसियों ने प्रदेश की पॉचों सीट पर अपना कब्जा जमा लिया। प्रदेश अध्यक्ष बच्ची सिंह रावत तो हारे ही खंडूरी भी अपनी सीट नही जितवा पाये। इससे यह जाहिर होता है की खंडूरी की कार्यशौली से जनता कितनी खुश है। उधर कांग्रेसीयो के खुश होने के लिए कुछ ज्यादा नही है। बीजेपी के कामकाज से नाराज लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया। मगर कांग्रेसी ठहरे जीत में सब कुछ भूल जाते है। कपकोट में कांग्रेस का तीसरे पायदान में जाना क्या दिखाता है। क्या सही व्यक्ति को टिकट नही दिया गया। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष से यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए। जरूरी यह है कि इस हार की समीक्षा जरूरी है। बेजेपी में फेरबदल के संकेत मिल रहे है मगर क्या कांग्रेस में बदलाव की जरूरत नही है। आज उतराखण्ड में कांग्रेस को एक मजबूत नेतृत्व की जरूरत हैं। समय रहते कांग्रेस को यह बदलाव कर देने चाहिए। वरना अगला फैसला बीजेपी के पक्ष में जाते देर नही लगेगी। कांग्रेस के पास उत्तराखंण्ड में इंदिरा हरदेश सरीखी मजबूत नेता है। मगर कांग्रेसी खुद अन्दर खाने विधानसभा में उनकी जड़ काट चुके है। मगर फैसला केन्द्रीय नेतृत्व को लेना है। अब वो दौर भी नही रहा जब नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता के नाम पर वोट मिल जाए। अब जनता ने वोट काम के आधार पर देना शुरू कर दिया है। पीडब्लूडी विभाग संभालते हुए इंदिरा हिरदेश सडकें बनाने में यह कारनामा दिखा चुकी है। अब सिर्फ इंतजार है कि बीजेपी कोश्यारी को लाती है या नही। इधर कांग्रेसियों को भी बदलाव की जरूरत है। मगर कब करेंगे।

सोमवार, 1 जून 2009

फटाफट क्रिकेट




इंग्लैंड के दूसरे टी 20 वल्र्ड कप पर क्या भारत का कब्जा़ होगा। भारतीय टीम को देखकर हर किसी की जीतने की आस है। मगर भाई दबाव में बिखरने की आदत से इन्हें छुटकारा कौन दिलाऐगा। धोनी कह रहे है कि आईपीएल ने यह खूबी सिखा दी है। मगर ऐसा लगता नही है। भारतीय टीम में आज चोटी के बल्लेबाज है। जो लय पर होते है तो मैदान में रनों की छडी लग जाती है। विरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर की सलामी जोडी की चर्चा आज हर क्रिकेट प्रेमी की जुबान पर है। मगर आईपीएल में इनका प्रदर्शन निराश करने वाला था। युवराज भी एक दो मैचों में ही अच्छा कर पाये। धोनी ने जरूर कुछ हाथ दिखाये लेकिन उनके खेल के हिसाब से यह कुछ भी नही। मगर सुरेश रैना, रोहित शर्मा और यूसूफ पठान पर हर किसी की नजर है। बिते दिनों इन्होने बॉल और बैट दोनो से कमाल दिखाया। गेंदबाजी में भी फिक्र की बात नही है। आरपी सिंह आग अगल रहे है। जहीर खान ईशांत शर्मा और इरफान की तिकडी भी कमाल दिखा सकती है। बाकी का बचा खुचा काम भज्जी और प्रज्ञान ओझा के हवाले। हालॉकि इनमें सब एक साथ नही खेल सकते। मगर खिलाडियों की खूबी को भॉंपते हुए धोनी को बेहतर खिलाडियों को मैच में उतारना होगा। भारत को जीत के लिए जी तोड मेहनत करनी हेागी। धोनी अच्छी कप्तानी कर रहे है। साथ ही उन्हें बाकी खिलाडियों का भी सहयोगा प्राप्त है। ऐसे में टीम इंडिया को चाहिए की हर खिलाडी अपना 100 फीसदी दे। भारतीय क्रिकेटप्रेमी आज जीत के लिए भूखे है। बस जरूरत है तो बस यह कि धोनी हर टीम और खिलाडियों की ताकत और कमजोरी को ध्यान में रखकर मैदान में ऐस चक्रव्यूह बनाये जिससे पार माना मुश्किल हो। टी 20 की ज्यादाजर टीमें जबरदस्त है जो कभी भी खेल का रूख पलट सकती है। ऐसे में जो टीम मैच दर मैच अच्छा खेलेगी वह जीत की हकदार होगी।

मिशन इकोनॉमी



बाजार में रौनक लौटने लगी है। क्या यह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का जादू है। आर्थिक मंदी के प्रभाव से मुरझाये बाजार में अचानक तेजी आ गई है।
निवेशक अब बाजार में अपना पैसा झोंक रहे है। 2008 -09 की 6.7 फीसदी
विकास दर ने भी आशा बंधाई है। हालांकि जानकार पहले इस तेजी के बने रहने पर संकोच जताते रहे। लेकिन अब वो इसकी तेजी के प्रति आश्वस्त है। सरकार के लिए आर्थिक क्षेत्र में कई चुनौतियॉं मुंह बायें खडी है। अर्थव्यवस्था को पटरी में लाने के साथ साथ रोजगार पैदा करने और मॉंग बढ़ाने के लिए नीतियॉं तय करती होंगी। जिन क्षेत्रों में हालात खराब है उनके लिए कुछ कदम उठाने होंगे। सरकार को यह भी तय करना चाहिए की जो दो बेलाआउट उसने दिसम्बर और जनवरी में दिये। करों में जो राहत दी गई उसका असली फायदा क्या आम आदमी तक पहुंचा है। रिजर्व बैंक ने जिस तेनी से मौद्रिक उपाये किये क्या उतनी ही तेजी से बैंकों ने इसका फायदा आम आदमी को पहुंंचाया है। वित्त मंत्रालय की कमान संभालने के बाद प्रणव मुखर्जी ने इसके संकेत भी दिये। बैंको ने एनपीए का खौफ दिखाकर लोन देने में कंजूसी बरती। लोन देने के बजाय उन्होने अपना धन रिजर्व बैंक के पास रखना ही बेहतर समझा। बडे बडे उघोगों ने मंदी के नाम पर लोगो की रोजी रोटी से खिलवाड किया। ऐसा नही था कि हालात इतने खराब हो चुके थे। ज्यादा मुनाफा कमाने की हमारे उघोग जगत की प्रवति पर कौन बोले। उन्हें राहत की डोज तो बडे पैमाने पर चाहिए। मगर जनता के फायदे के लिए अपने मुनाफे का हिस्सा देना उन्हें गवारा नही। मनमोहन सरकार के सामने करने को बहुत कुछ है। विनिवेश की रूकी हुई गाडी को अब वो सरपट भगा सकते है। इससे राजकोशीय घाटे को कम करने के लिए संसाधन सरकार जुटा पायेगी। बुनियादी ढॉंचे में निवेश बढाना प्राथमिकता में होगा। इसके अलाव प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए भी दरवाजे खोलने होंगे। बीमा बैकिंग और खुदरा बाजार में इसकी जरूरत है। साथ ही सरकार को नरेगा जैसी योजनाओं को बढावा देने के लिए कुछ और कदम उठाने होगें। नरेगा योजना की तारीफ में नया नाम आईएलओ का जुडा है। इसके बाद इसी मॉडयूल को शहर में लागू करने में सरकार को आसानी होगी। खाघ सुरक्षा कानून जितनी जल्दी अमल में लाया जायेगा उतना बेहतर है। शिक्षा स्वास्थ्य और कृशि को बड़ावा देने के लिए कुछ और कदम की आवश्यकता होगी। भूमण्डलीकरण का यह दौर चुनौतियों से भरा है। ऐसा जरूरी नही की सबकुछ आपके हिसाब से चले। खतरा तो उठाना ही पडेगा। टीम मनमोहन को पास खुलकर खेलने का मौका है। सवाल यह है कि समग्र विकास की अपनी कथनी को क्या वो करनी में बदल पायेगें।

15वीं लोकसभा से उम्मीद





15 वीं लोकसभा का पहला दिन कई मायनों में याद रखा जायेगा। पहली बार कोई महिला वह भी दलित लोकसभा में अध्यक्ष पद पर आसीन होंगी। महिला आरक्षण पर घिरी सरकार के लिए यह कदम किसी सिक्सर से कम नही। जानकारों की माने यह कदम न सिर्फ महिला सशक्तिकरण को बढावा देगा बल्कि कांग्रेस ने दलित समुदाय को यह संकेत भी दिया है कि कांग्रेस से अच्छा विकल्प उनके पास नही है। कुल मिलाकर दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के लिए यह एक अच्छी शुरूआत है। इस बार सत्ता पक्ष के साथ साथ विपक्ष में भी कई महारथी है जो मुददों पर सरकार के सामने कम मुश्किल नही खडी करेंगे। बीजेपी में लालकृश्ण आडवाणी जहॉ 14वीं लोकसभा में सरकार के खिलाफ अकेले हल्ला बोलते थे। वहीं अब उनके साथ जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, सुशमा स्वराज, राजनाथ सिंह और मुरलीमनोहर जोशी जैसे नेता खडे होगें। कांग्रेस के लिए सबसे बडी राहत इस बात की है कि उनकी स्थिति आंकडों के लिहाज से मजबूत है। पिछली बार की तरह नही कि बाहर से समर्थन दे रहे वामदल गाहे बगाहे सरकार को नीचा दिखाने से पीछे नही हटते थे। पिछली बार सदन का ज्यादातर समय शोरगुल में बीत गया। यहॉं तक की बजट और कई महत्वपूर्ण विधेयक बिना बहस के पारित हो गये। आशा करतें है कि इस बार यह नही होगा। इस बार सदन में युवाओं की भी एक लम्बी फौज मौजूद है। दिलचस्प देखना यह होगा कि यह इस कार्यशैली में कितनी जल्दी अपने को ढालते है। इनमें से ज्यादातर युवा वाकपटु है। श ायद कह रहें हो हम साथ साथ है। भारत की जनता को भी इस लोकसभा से बहुत उम्मीदें है। जनता चाहती है उनकी हर वोट के बदले जनप्रतिनीधि ईमानदारी के साथ काम करें और उनके कल्याण के लिए नीतिया और कानून बनाये।

रविवार, 31 मई 2009

किस्सा किसान का

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दूसरी पारी से उम्मीदें आम जनमानस की ही तरह किसान को भी है। वो किसान जिसे भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ की हडडी माना जाता है। वो किसान जो धरती का सीना चीर कर खून पसीना एक कर अनाज तो पैदा करता चाहता है। मगर उसकी खुद की राज आधे पेट गुजरती है। आज किसान क्या चाहता है कि इतनी मेहनत के बावजूद उसका और उसके परिवार का पेट भर जाये। उसे कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या जैसे कायर कदम न उठाने पडे। बस इसी उम्मीद पर उसने वोट दिया है। यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल में किसानों की सुध ली। सबसे अच्छी बात की न्यूनतम समर्थन मूल्य में जबरदस्त बढोत्तरी की। गेहंं का समर्थन मूल्य 1080 और साधारण धान का 960 रूपये कर दिया गया है। इसके अलावा ग्यारवीं पंचवशीय योजना 4 फीसदी विकास दर पाने के लिए सरकार कई योजनाऐं चला रही है। मसलन 25000 हजार करोड़ की लागत से राश्टरीय कृशि विकास योजना। 4880 करोड़ की लागत से राश्टीय खाघ सुरक्षा मिशन। जिसके तहत 10 मिलीयन टन गेहंूं , 8 मिलीयन टन चावल और 2 मिलीयन टन दालों के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इसके अलावा राश्टीय हौल्टीकल्चर मिशन जैसे कार्यक्रम भी सामने आये है। मगर फिर भी 40 फीसदी किसान किसानी से तौबा करना चाहते है। बशतेZ उनके पास विकल्प हो। यह सरकार के साथ साथ आइसीएआर और कृशि विज्ञान केन्द्रों के मंंह पर एक तमाचा है। जिनके नाम तो बहुत बडे है मगर जब दशZन की बारी आती है तो वह बौने साबित होतें है। खेती छोड़ने का सबसे बडा कारण है कि किसान को खेती अब फायदे का सौदा नही लगती। यही कारण है कि 1997 से लेकर अब तक पौने दो लाख किसान मौत को गले लगा चुके है। इनमें से ज्यादातर कर्ज के बोझ के तले दबे थे। हालांकि यूपीए सरकार की किसानों की कर्ज माफी से फायदा भी हुआ। मगर कितनों को। और जिन्हें नही उनका क्या होगा। एक बडी किसान आबादी आज भी जमींनदार से कर्ज लेती है। साथ ही बीज उवर्रक और सिंचाई की व्यवस्था करना भी जरूरी है। आज भी 60 फीसदी खेती इंद्रदेवता के भरोसे है। किसानों को ऋण लेने में मुिश्कल आती है। सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद किसान को 7 फीसदी की दर पर कर्ज नही मिल पा रहा है। जबकि राश्टीय किसान आयोग की सिफारिश है कि किसान को को 4 फीसदी की ब्याज दर से कर्ज मुहैया कराया जाए। सुविधा तो फसल बीमा योजना और किसान क्रेडिट कार्ड की भी है मगर इसका दायरा बहुत सीमित है। आज देश को दूसरे हरित क्रांति की जरूरत है। मगर नीतिनिर्माताओं को पहले हरित क्रांति के आयामों को ध्यान में रखकर नई नीति बनानी होगी। हम अपनी खाघ सुरक्षा को लेकर पूरी तरह किसानों पर निर्भर है। इसलिए उनके लिए समय रहते कदम उठाने होंगे। ‘

जरूरी है पुलिस सुधार




हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की ओर से यह बयान आना कि पुलिस में बडे पैमाने पर भ्रश्ट है मामले की गंभीरता को बयॉं करता है। गाहे बगाहे यह सच्चाई सामने आती रहती है। फर्क इतना है कि इसे स्वीकार करना सबके बूते की बात नही। पुलिसिया व्यवस्था भ्रश्टाचार के आकंठ में डूबी हुई है। यह किसी से छिपा नही है। मगर इस समस्या के निदान के लिए आज तक कुछ ठोस नही हुआ। हॉं समय समय पर समितियों की लम्बी चौड़ी सिफारिशें जरूर आती रही। पुलिस सुधारों को लेकर राज्य सरकारों का रवैया भी संतोशजनक नही रहा। वही समय के साथ साथ अपराध बड़ते रहे। हालात इतने बिगड गए है कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर राश्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार एम के नारायणन को खुद कहना कि आतंकवादियों की पैठ जमीन आसमान और समंदर तक बड़ गई है। 26 नवंबर को मुंबई में हुए आतंकी हमलों ने देश को हिलाकर रख दिया। आज जरूरी है कि इस मामले के हर पहलू पर गौर किया जाए। सबसे पहले सुरक्षाकर्मियों को मिलने वाल सुविधाओं पर ध्यान देना होगा। अगर सुरक्षा करने वाले पुलिसकर्मियों की बेहतर देखरेख नही की गई तो हालात में सुधार आना नामुमकिन है। पुलिस कर्मियों की संख्या बड़ानी होंगी। काम का दबाव में कमी लाने के साथ साथ उन्हें बेहतर सुविधाओं मुहैया करानी चाहिए। इस पर आज बात करने को कोई तैयार नही है। पुलिस सुधार को लेकर अकसर जुबानी बातें होती रहती है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पुलिस व्यवस्था में सुधार की वकालत कर चुके है। दरअसल हमारे देश में पुलिस कानून 1861 का है जिसे बदलने की चर्चा हमेशा होती रहती है। कही हिरासत में हुई मौत तो कही फर्जी मडभेड। कही जनता पर बबZरता तो कही राजनीति और पुलिस के अवैध गठजोडों ने पुलिस की छवि को धक्का पहुंंचाया है। यही कारण की अपराधियों को खुद सजा देने की प्रवृति भी बड़ने लगी है। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह अच्छे संकेत नही। इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी मामले के प्रति गंभीरता का आभाव और मुिश्कलें बड़ाने वाला है। आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच सॉंप नेवले का संग्राम आम बात है। आज आम आदमी अपने को असुरक्षित महसूस कर रहा है। आतंकियों की पहुंंच छोटे छोटे शहरों तक बड़ गई है। देश के तेरह राज्य आंशिक व पूरी तरह से नक्सली हिंसा की चपेट में है। पूर्वोतर में असम में उल्फा का संघशZ बरकरार है। ऐसे में सुरक्षा का चिंता होना लाजिमी है। मगर निपटे कैसे इसपर बयानबाजी के अलावा और कुछ नही हेाता। देश का पुलिस कानून 147 साल पुराना है। ये वो समय था जब आजादी के परवानों को दबाने के लिए यह कानून बनाया गया। मगर आज ज्यादातर मामलों में इसका प्रभाव निश्क्रिय हो चुका है। तो ऐसे में इसका औचित्य क्या। ऐसा नही की इसको लेकर प्रयास नही हुए। प्रयास कई बार हुए मगर नतीजों पर सिर्फ विधवा अलाप ही किया जा सकता है। सवाल यह उठता है कि इतने गंभीर मसलों पर सरकारें अर्कमण्य क्यों रहती है। समाज में अपराध तेजी से पॉंव पसार रहा है मगर इससे निपटने की कवायद की रफतार धीमी है। संविधान की 7वीं अनुसूचि में पुलिस और कानून राज्यों का विशय है। सरकार का जवाब तो रटा रटाया है। पुलिस और कानून राज्य का विशय है इसलिए उनके हाथ बंधे है। यह बात सौ आने सच है। मगर उन्होने दिल्ली या अन्य संघ शासित प्रदेशों की पुलिस व्यवस्था में कौन सा ऐसा व्यापक बदलाव कर दिया जिससे वे राज्य सरकारों के सामने एक नजीर पेश कर सके। अपराध और अपराधियों के मामले में राजधानी दिल्ली खासा बदनाम है जबकि इसकी सीधी लगाम गृह मंत्रालय के हाथों में है। ऐसा नही कि पलिस सुधार को लेकर कुछ नही हुआ। सुधार के लिए बनाई गई समितियों की एक लम्बी फेहरिस्त है। सबसे पहले 1977 में पुलिस सुधार आयोग बनाया बनाया गया। मगर इनकी सिफारिशों को लेकर कोई पहल नही दिखाई दी। इसके बाद 1998 में रिबेरो समिति, 2000 में पघनाभयया समिति, 2002 में मालीमथ समिति। इसके बाद गृहमंत्रालय ने 20 सितंबर 2005 में विधि विशेशज्ञ सोली सोराबजी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया । इस समिति ने 30 अक्टूबर 2006 को मॉडल पुलिस एक्ट 2006 का प्रारूप केन्द्र सरकार केा सौंपा। उधर सुप्रीम कोर्ट ने 22 सितंबर 2006 को प्रकाश सिंह बनाम केन्द्र सरकार मसले पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। साथ ही इन सिफारिशों पर राज्य सरकारों को स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने राश्ट्रीय पुलिस आयोग की ज्यादातर सिफारिशों पर मुहर लगा दी। इन सिफारिशों में पुलिस मकहमे को राजनीतिक दखलअंदाजी से दूर रखने की बात कही। बड़े अधिकारियों का फिक्स कार्यकाल तय किया जाए साथ ही अपराधों की जॉंच और कानून को लागू करने वाली एजेंसियों को अलग अलग करने की बात कही गई। ज्यादातर राज्य सरकारों को यह बातें रास नही आई। हालॉंकि कुछ सरकारों ने जरूर इनपर अमल किया। पुलिस आधुनिकीकरण के बजट का भी सही इस्तेमाल देखने में नही आ रहा है। ज्यादातर सरकरों के पास पैसा तो है मगर उसे खर्च नही किया गया है। मौजूदा हालातों को देखते हुए राज्य सरकारों के भी मामले पर गंभीर होना पडेगा। हमारे यहॉ जनसंख्या पुलिस अनुपात भी तय मानदंड से बहुत ही नीचे है। राज्य सरकार रिक्त पडे पदों को भरने के जल्द ही कदम उठाये। हर स्तर पर जानकारी जुटाने वाले तंत्र को मजबूत बनाया जाए। साथ ही पुलिसकर्मीयों को बेहतर सुविधाऐं देने के लिए राज्य सरकारों को अपने बजट को भी बढाना चाहिए। तभी जाकर हम मौजूदा चुनौतियों का सामना कर सकते है।

शनिवार, 30 मई 2009

जय हो जनता जनार्दन की।

15 वीं लोकसभा का जनादेश सामने है। आत्ममंथन शुरू हो चुका है। राजनीतिक दल अपने हार के कारणों की समीक्षा करने लगे है। हार का ठीकरा एक दूसरे के सर फोड़ने में कोई पीछे नही है। जेडीयू ने इसकी शुरूआत कर दी है। आखिर गुस्सा क्यों नही आए 10 साल तक विपक्ष में बैठकर सरकार को कोसते रहो। बुरा तो लगता है न भाई। दरअसल किसी को ऐसे जनादेश की उम्मीद नही थी। अब हर कोई इस बहस में शामिल है कि इस जनादेश के पीछे का संदेश क्या है। क्या जनता ने काम का इनाम कांग्रेस को दिया है। क्या कांग्रेस का यूपी बिहार में एकला चलों का नारा काम कर गया। या फिर ये बीजेपी की कमजोर नीतियों का परिणाम है। कारण चाहे जो भी हो कांग्रेसियों के पास जीत के कारण बहुत है। नरेगा से लेकर ऋण माफी या फिर भारत निर्माण जैसे कार्यक्रमों को वो जीत का कारण मान रहे है। कुछ का मानना है कि यह राहुल बाबा की मेहनत का नतीजा है। अगर यह सही है तो राहुल का जादू छत्तीसगढ और बिहार में क्यों नही चला। दरअसल कांग्रेसियों को तो चापलूसी के बहाने चाहिए। बस मिल जाए छोड़ने का नाम ही नही लेते। राहुल गॉधी इस बात को जानते है। मगर एक बात उनके पक्ष में जाती है। अकेले चुनाव लडने और युवाओं को लडाने। यहॉं राहुल बाबा की रणनीति काम कर गई। कुछ की मानें तो ईमानदार प्रधानमंत्री को कमजोर कहना बीजेपी को भारी पड गया। कांग्रेस के लिए यूपी खशियों की सौगात लेकर आया। यहॉ 2004 में 9 सीटों को जीतने वाली कांग्रेस आज 21 सीटों को जीतकर जय हो कह रही है। मुलायम माया की रणनीति धरी की धरी रह गई। दक्षिण में वाइएसआर कांग्रेस का असली सेनापति साबित हुए। जबकि तमिलनाडू में द्रमुख को न छोडने का फैसला भी सही साबित हुआ। नवीन पटनायक ने भी मिशन उडीसा को अपने नाम कर लिया। सवाल यह भी उठ रहा है कि महंगाई आतंकवाद और आर्थिक मंदी जैसे जोरदार मुददों के बावजूद जनता ने ऐसा जनादेश क्यों दिया। लोकजनशक्ति पार्टी, टीआरएस और पीएमके को जनता ने सबक सिखा दिया है। अब कतार में वो खडे है जो इनसे सबक नही लेगें। जय हो जनता जनार्दन की।

नेता कहिन जीतो हर कीमत पर

चुनाव चुनाव चुनाव। कितने अच्छे है यह चुनाव। नेताओं को जानो। उनके देश प्रेम्र को मानो। दोस्तों को खिलाफ होते देखो। अपनो को पराये होते देखो। जो कल तक एक दूसरे के खिलाफ आग उगलते देखे जाते थे, आज एक दूसरे की जय जयकार करते नही अघाते। न किसी को किसी से हमेशा के लिए प्रेम न नाराजगी। जैसी समय की मॉंग वैसा मुखौटा पहन लो। गठबंधन भी सुविधा के हिसाब से। विचारधारा की खाल उधेड दो, मगर हाथ में आई सोने देने वाली मुर्गी न जाने दो। जनता से अनाप सनाप वादे कर दो। पॉच साल के बाद रटा रटा बयान दे दो। जो कहा वही किया। इसके अलावा कुछ नही किया। प्लीज एक बार और वोट दे दो। जनता के भी क्या कहने। किसी से ज्यादा प्रेम नही। प्रसाद सबको मिलेगा की तर्ज पर वोट थोडा थोडा सबको। थोडा बहुत ख्याल जात बिरादरी का भी। नेता कहिन जीतो हर कीमत पर। सत्ता में हर कोई बैठना चाहता है। नही मिली तो सारी करी कराई मेहनत में पानी फिर जायेगा। राजनीति में कमाई भी ठीक ठाक है। पॉच साल में विकास के नाम पर जेब भरो। ये मिडीया भी अजीब जन्तु है। पॉच हजार वाले को कैमरे में कैद करती है। पॉच करोड वाले की इमानदारी पर किसी को शक नही होता। राजीनिति मे सौदेबाजी की भी अपार संभावनाऐं है। क्यों आपको नही मालूम की सरकार के पक्ष में वोट डालने में करोडों मिले थे। दुख तो इस बात का है कि ऐसा मौका बार बार क्यों नही आता। हम तो बहती गंगा में हाथ धो नही पाए। कास मैं भी सांसद होता। कुछ संभावनाऐं तो बनती। खूब बडी बडी बातें करता। वादे करता, घोटाले करता। विकास के नाम पर चिल्ला कर अपनी आवाज खराब कर देता। नतीजों से पहले जीत को लेकर अति उत्साहित होता। नतीजों के बाद कहता शायद झूठ बोलने में कुछ कमी रह गई थी।

बेमेल गठबंधन

उत्तर प्रदेश में माया मुलायम की लडाई। बीजेपी ने अजीत प्रेम में डूबकर जीतरस की रट लगाई। कांग्रेसी पहलवानों के भी क्या कहने। अमेठी रायबरेली के बाहर भी देखने लगे है। अब जरा जानते है कि पॉंच साल में क्या बदला है। पिछले चुनाव में अजीत मुलायम के जय हो के नारे लग रहे थे। जनता ने दोनों कोे मिलकर 38 सीटों का प्रसाद दिया। अकेले 35 मुलायम के पास। बीजेपी और कांग्रेस से भी दुखी नही, कहने को राश्ट्रीय पाट्री। मगर विश्वास संतोशम परम सुखम पर। तभी तो 10 और 9 पर ही ख्ुाश रहे। हाथी कीे धमक का अहसास 19 सीटों में हुआ। फर्क सिर्फ इतना है तब साइकिल का राज था अब हाथी दनदना रहा है। माया को विश्वास अपने सर्वजनों पर। प्रधानमंत्री बनने की चाहत लिए उनका नारा साफ है। सर्वजन शंख बजायेगा, हाथी दिल्ली जायेगा। मुलायम का एजेंड साफ है। यूपी को माया की माया से बचाओ दिल्ली में हमें करीब पाओं। मुलायम खुद इस उहापोह में है कि कल्याण उनका कितना कल्याण करेंगे। डर भी सता रहा है कि कही मस्लिम प्रेम में दरार न आ जाये। सूकून इस बात का है कि अपनों की सीट में जरूर के यानि कल्याण फैक्टर असर डालेगा। कांग्रेसी दिग्गजों का उत्साह भी जबरदस्त है। हांलाकि नतीजों से पहले यह हमेशा देखा गया है मगर उम्मीद का परसेंटेज इस बार ज्यादा है। तीन त्रिदेव का भी मिलन हुआ है। लालू पासवान और मुलायम । इतिहास देखें तो डर लगता है कि कब ये आपस में ही न भीड जाऐं। ख्ौर तीनों की हालत पतली है। अच्छी बात है। दुख के सब साथी।